ज्येष्ठ मास की गणेशजी को कथा
प्राचीन काल में पृथ्वी पर राजा पृथु का राज्य था प्रथु के सत्य मैं जगरय नाम का एक ब्राह्मण रहता था। ब्राह्मण के सार पुत्र थे। खारों का सियाई हो चुका था। बड़ी पुत्रवधू गणेश चौथ का ब्रत करती खाहती थी। उसने इसके लिये अपनी सास से आज्ञा माँगी तो सास ने इन्कार कर रिया जब-जब भी बहू ने अपनी इच्छा अपनी मास के आगे ठ्यवत की, साय ने मना कर दिया। बहू परेशान सी रहने लगी।
और अपने मन ही मन मेँ अपने दुख को गणेशजी को सुनाने लगी। बढ़ी बरहु का एक खियाह योग्य लड़का था। गणेशजी ने अप्रसन्न होकर उसे चुग लिया। घर में उदासी झा गई। बड़ी बहू ने सास से प्रार्था की माँजी, यदि आप आज़ा दे दें तो मैं गणेश चौथ का व्रत कर लूं। हो सकता है, वे प्रसन होकर हम पर कृपा कर दें ओर मेरा बेटा मिल जाये।’” बुजुर्गों का पोते-पोती पर सतह तो अत्यधिक होता ही है, इसलिये उसने अनुमति दे दी।
बहू ने गणेशजी का व्रत किया। इससे गणेशजी ने प्रसन्न होकर दुबले-पतले ब्राह्मण का रूप बनाया और जयदव के घर आ गये। सास और बड़ी बहू ने बडी श्रद्धा और प्रेम के साथ उन्हें भोजन कराया। गणेशजी ने तो उन पर कृपा करने के लिये ही ब्राह्मण का वेष बनाया था, उनके आर्शीावाद से बड़ी बह का पुत्र घर लौट आया।
मई में प्रारम्भ होकर जून में समाप्त होता है यह मास। गंगा दशहरा इस मास का प्रमुख पर्व है तो दोनों एकादशियों का विशिष्ट धार्मिक महत्व है। वैसे गर्मियों का यह मास जहां एक ओर त्योहारों से विहीन है, वहीं किसी विशिष्ट धार्मिक ब्रत अथवा स्नानादि का विधान भी नहीं है।