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चातुर्मास्य विधान – हिन्दुओ के व्रत और त्योहार

चातुर्मास्य विधान 

कृष्ण से कुंती पुत्र अर्जुन बोले-” हे मधुसूदन) विष्णु भगवानर का शयन ब्रत किस प्रकार किया जाता है। सो सब कृपापूर्वक कहिये।”’ ऐ श्रीकृष्ण बोले-”हे अर्जुन! अब में तुम्हें विष्णु के शयन का ब्रत कक से कहता हूँ। इसे ध्यानपूर्वक स्मरण करोकर्क राशि में जब सूर्य नारायण स्थित हों, तब भगवान विष्णु शयन करते हैं और जब सूर्य नारायण तुला राशि में आते हैं तब भगवान उठते हैं। लौंद (अधिक) माह के आने पर भी विधि इसी प्रकार रहती है। इस विधि से अन्य देवताओं को शयन नहीं कराना चाहिए। आषाढ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का विधिपूर्वक व्रत करना चाहिए। उस दिन विष्णु भगवान की प्रतिमा बनानी चाहिए और चातुर्मास्थ व्रत नियत से करना चाहिए। सबसे प्रथम उस प्रतिमा को स्नान कराना चाहिए। फिर सफेद व्स्त्नों को धारण कराकर तकियेदार शय्या पर शयन कराना चाहिए। उनका धूप, दीप और नेवेद्यादि से पूजन कराना चाहिए। भगवान का पूजन शास्त्र ज्ञाता ब्राह्मणों के द्वारा कराना चाहिए, तत्पश्चातू भगवान विष्णु की इस प्रकार स्तुति करनी चाहिए”हे भगवान! मेंने आपको शयन कराया है। आपके शयन से सम्पूर्ण विश्व सो जाता है।” इस तरह विष्णु भगवान के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थाी करनी चाहिए, ‘हे भगवान! आप चार मास तक शयन करें, तब तक मेरे इस चातुर्मास्थ ऋ्नत को निर्विघ्न रखें।”
इस प्रकार विष्णु भगवान की स्तुति करके शुद्ध भाव से मनुष्यों को दातुन आदि के नियम को शुरू करने के पांच काल वर्णन किये हैं। देवशयनी एकादशी से लेकर देवोत्थानी एकादशी तक चातुर्मास्य ब्रत को करना चाहिए। द्वादशी, पूर्णमासी, और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशशी को समाप्त कर देना चाहिए। इसके ब्रत से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य इस ब्रत को प्रति वर्ष करते हैं, वह सूर्य के समान देदीप्यमान विमान पर बैठकर विष्णुलोक को जाते हैं। हे राजन! अब आप इसमें दान का पृथक फल सुनें
जो मनुष्य देव मंदिरों में रंगीन बेल-बूटे बनाता है, उसे सात जन्म तक ब्राह्मण की योनि मिलती हे।
जो मनुष्य चातुर्मास्य के दिनों में विष्णु भगवान को दही, दूध, घी, शहद ओर मिश्री आदि पंचामृत के द्वारा स्नान कराता है, वह वैभवशाली होकर सुख भोगता है। जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक भूमि, स्वर्ण, दक्षिणा आदि ब्राह्मणों को दान स्वरूप देता है, वह स्वर्ग में जाकर इंद्र के समान सुख भोगता है।
जो विष्णु भगवान की स्वर्ण प्रतिमा बनाकर धूप, दीप, पुष्प, नेवेद्य आदि से पूजा करता है, वह इंद्रलोक में जाकर अक्षय सुख भोगता है।
जो मनुष्य चातुर्मास्य के अन्दर नित्य भगवान को तुलसीजी अर्पित करता है, वह स्वर्ण के विमान पर बैठकर विष्णुलोक को जाता हे।
जो मनुष्य विष्णु भगवान की धूप-दीप से पूजा करता है, उनको अनंत धन मिलता है। जो मनुष्य इस एकादशी से कार्तिक के महीने तक विष्णु की पूजा करते हैं, उनको विष्णुलोक की प्राप्ति होती है।
इस चातुर्मास्य ब्रत में जो मनुष्य संध्या के समय देवताओं तथा ब्राह्णणों को दीपदान करते हैं तथा ब्राह्मणों को सोने के पात्र में वस्त्र दान देते हैं, वह विष्णुलोक को जाते हैं।
जो मनुष्य भक्तिपूर्वक भगवान का चरणामृत लेते हैं, वे इस संसार के आवागमन के चक्र से छूट जाते हैं। जो विष्णु मंदिर में नित्य प्रति 108 बार गायत्री मंत्र का जाप करते हैं, वे पापों में लिप्त नहीं होते।
जो मनुष्य पुराण तथा धर्मशास्त्र को सुनते हैं ओर वेदपाठी ब्राह्मण को वस्त्रों का दान करते हैं वे दानी, धनी, ज्ञाना और यशस्वी होते हैें। जो मनुष्य भगवान या शिवजी का स्मरण करते हैं और अंत में उनकी प्रतिमा दान करते हैं, वह पापों से रहित होकर गुणवान बनते हैं।
जो मनुष्य सूर्य नारायण को अर्ध्य देते हैं ओर समाप्ति में गोदान करते हैं, वे निरोगिता, दीर्घायु, कीर्ति, धन और बल पाते हैं। चातुर्मास्य में जो मनुष्य गायत्री मंत्र द्वारा तिल से होम करते हैं और चातुर्मास्य समाए हो जाने पर तिल का दान करते हें( उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते ह रो नीरोग शरीर मिलता है तथा अच्छी संस्कारशील संतान उत्पन्न हो ।
जो मनुष्य चात्मास्य मास्य ब्रत अन्न से होम करते हैं और समाप्त है जाने पर घरी, घड़ा ओर ब्त्रों का दान करते हें, वे ऐश्वर्यशाली होते हैं।
जो मनुष्य तुलसीजी को धारण करते हैं तथा अंत में विष्णु भगवा के निमित्त ब्राह्मणों को दान देते हैं, वह विष्णुलोक को जाते हैं।
जो मानव चातुर्मास्थ व्रत में भगवान के शयन के उपरान्त उनके मस्तक पर नित्य-प्रति दूध चढ़ाते हें और अंत में स्वर्ण की दूर्वा दान करते हैं तथा दान देते समय जो इस प्रकार की स्तुति करते हैं कि, ‘हे दूवे। जिस भाँति इस पृथ्वी पर शाखाओं सहित फैली हुई हो, उसी प्रकार मुझे भी अजर-अमर संतान दो”, ऐसा करने वाले मनुष्य के सब पाप छूट जाते हैं और अन्त में स्वर्ग को जाते हैं।
जो शिवजी या विष्णु भगवान का गान करते हैं, उन्हें रात्रि जागरण का फल मिलता है।
जो मनुष्य चातुस्थि मॉस्य ब्रत करते हैं, उनको उत्तम ध्वनि वाला घण्य दान करना चाहिए इस प्रकार स्तुति करनी चाहिए, ‘हे भगवान! हे जगदीश्वर! आप पापों का नाश करने वाले हें। मेरे न करने योग्य कार्यों को करने से जो पाप उत्पन्न हुए हैं, आप उनको नष्ट कीजिये।’
चातुर्मास्य ब्रत के अंदर जो नित्य-प्रति ब्राह्मणों का चरणामृत पान के है; वे समस्त पापों तथा दुखों से छूट जाते हैं और आयुवान, लक्ष्मीवान होते हैं।
चातुर्मास्य में प्राजापत्य तथा चांद्रायण व्रत पद्धति का पालन भी किया जाता है।
प्राजापत्य ब्रत को 12 दिनों में पूर्ण करते हैें। व्रत आरम्भ में शुरू के तीन दिनों तक बारह ग्रास भोजन प्रतिदिन लेते हैं, फिर आगामी तौन दिनों तक अट्ठाईस ग्रास भोजन लिया जाता हे और इसके बाद बाकी बचे तीन दिन निराहार रहने की परम्परा है। इस ब्रत के करने से मनोकामना पूर्ण होती है। व्रत करने वाले व्यक्ति को प्राजापत्य ब्रत करते हुए चातुर्मास्य के हेतु उपयुक्त सभी धार्मिक कृत्य जैसे पूजन, जप, तप, दान, शास्त्रों का पठन-पाठन तथा कीर्तन आदि करते रहना चाहिए।
है अर्जुन! इसी प्रकार चांद्रायण त्रत भी किया जाता है। अब इस व्रत की विधि भी सुनो-इस व्रत का विधान पूरे एक मास का है। सभी पापों को निजात दिलाने वाला यह व्रत घटता-बढ़ता रहता है। इसमें अमावस्या को एक ग्रास, प्रतिपदा को दो ग्रास, द्वितीय को तीन ग्राम भोजन लेते हुए. पूर्णिमा के पूर्व चौदह ग्रास और पूर्णिमा को पंद्रह ग्रास भोजन लेना चाहिए। फिर पूर्णिमा के बाद 14, 13, 12, 11 ग्रास इसी क्रम में भोजन करते हुए भोजन की मात्रा को प्रतिदिन घटाते रहते हैं।
“डे अर्जुन!’” भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, “जो प्राजापत्य और चांद्रायण ब्रत करते हें उन्हें इस लोक में धन-सम्पत्ति, शारीरिक निरोगता तथा ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है। इसमें कांसे का पात्र और वस्त्र दान की शास्त्रीय व्यवस्था है। चातुर्मास्य के समापन पर दक्षिणा से सुपात्र ब्राह्मणों को संतुष्ट करने का विधान है।
चारु्मास् मास्य व्रत की समाप्ति के बाद ही गौ-दान करने की प्रक्रिया है। यदि गौ-दान न कर पायें तो वस्त्र दान अवश्य करने चाहिएं।
जो ब्राह्मणों को नित्य-प्रति नमस्कार करते हैं, उनका जीवन सफल हो जाता है और वे समस्त पापों से छूट जाते हैं।
चातुर्मास्य ब्रत की समाप्ति में जो ब्राह्मणों को भोजन कराता है उसकी आयु तथा धन में वृद्धि होती है।
जो अलंकार सहित बछडे वाली कपिला गाय वेदपाठी ब्राह्मणों को दान में देते हैं, बे चक्रवर्ती, दीर्धजीवी, ओर पुत्रवान राजा का योग बनाते हैं। और स्वर्गलोक में प्रलय के अंत तक इंद्र के समान राज्य करते हैं।
जो मनुष्य हर भगवान तथा गणेशजी को नित्य नमस्कार करते हैं, उनकी आयु बढ़ती है ओर धन सम्पत्ति का विकास होता है। यदि गणेशजी प्रसन्‍न हो जायें तो वह मनोवांछित फल पाते हैं।
गणेशजी और सूर्य की प्रतिमा ब्राह्मण को देने से सब कार्यों की सिद्धि होती हे। जो मनुष्य दोनों ऋतुओं में महादेवजी की प्रसन्नता के लिये तिल और वलस्त्रों के साथ ताँबें का पात्र दान में देते हैं, उनकी संतान शिवभक्‍त होती है जो स्वस्थ और सुंदरता से परिषर र्ण होती है। चातुर्मास्य ब्रत की समाप्ति पर चांदी या तांबे का पात्र गुड़ और तिलों के साथ दान में देना चाहिए।
जो मनुष्य विष्णु भगवान के शयन करने के उपरान्त यथाशक्ति वस्त्र और तिल के साथ स्वर्णदान करते हैं, उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते है और वे इस लोक में सुख भोग कर अन्त में मोक्ष की प्राप्ति करते हैं।
चातुर्मास्य ब्रत के समाप्त होने पर जो शय्या दान कर करते हैं, वह अनन्त सुख के भागी बनते हैं ओर उन्हें कुबेर के भण्डार जितनी धन सम्पत्ति प्राप्त होती है। वर्षा ऋतु में जो गोपीचंदन देते हैं, उन पर भगवान प्रसन्न होते हैं।
चातुर्मास्य में एक बार भोजन करने वाला, भूखे को अन्न देने वाला, भ्रूपि ” पर शयन करने वाला अभीष्ट को प्राप्त करता है। इंद्रय निग्रह कर चातुर्माम्य ब्रत का अनंत फल प्राप्त किया जाता है। श्रावण में शाक, भादों मे दही, आश्विन में दूध और कार्तिक में दाल का त्याग करने वाले निगेगी होते |
चातु्मस्य ब्रत का पालन करने पर उद्यापन करना चाहिए। जब भगवान को शयन त्यागने का अनुरोध करें तब विशेष पूजन करना चाहिए। इस अवसर पर निरभिमानी, विद्वान ब्राह्मण को अपनी क्षमता के अनुसार दान-दक्षिणा देकर संतुष्ट करना चाहिए। हे पाण्डुनन्दन! देवशयनी एकादशी और चातुर्मास का माहात्म्य पुण्य फलदायी है, इससे मानसिक रोगों की शांति और भगवान विष्णु के प्रति निष्ठा बढ़ती है।
कथासार
चातुर्मास्य भगवान विष्णु की कृपा दृष्टि पाने के लिये यह ब्रत चार मास तक किया जाता हे। इस ब्रत को देवशयनी से देवोत्थान एकादशियों से जोड़ने से के प्रति अपना अनुराग दूढ़ होता है।
-चोौमासे में जब भगवान श्रीहरि विष्णु शयन करते हैं, उस समय कोई भी मांगलिक कार्य नहीं किये जाते, मांगलिक कार्यों का आरम्भ ही देवोत्थानी एकादशी से पुनः प्रारम्भ करते हें।
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