गणेश चतुर्थी व्रत की कथा
भोगवरती नामक नदी पर शंकर भगठन स्नान करने गये। उनके चले जाने के बाद पार्वती ने अपने तन की मैल से एक पुतला बनाया जिसका नाम उन्होंने गणेश रखा। गणेश को द्वार पर एक मुदगल देकर बेठाया कि जब तक में स्नान करूँ किसी पुरुष को अन्दर मत आने देना।
शिवजी भगवान स्नान करने के बाद जब वापस आए तो गणेशजी ने उन्हें द्वार पर ही रोक दिया। क्रुद्ध होकर भगवान शंकर ने उनका सिर धड़ से अलग कर दिया और अन्दर चले गये। पार्वती जी ने समझा कि भोजन में विलम्ब होने के कारण शिवजी नाराज हें। उन्होंने जल्दी से दो थालियों में भोजन परोसकर शंकर जी को कहा कि भोजन कर लीजिये।
जब शिव भोजन करने बैठे तब दो थाल देखकर पूछने लगे कि ये दूसरा थाल किसके लिये लगाया है?” पार्वतीजी बोली-”दूसरा थाल पुत्र गणेश के लिये है जो बाहर पहरा दे रहा है।” यह सुनकर शंकरजी ने फहा-”मैंने तो उसका सिर काट डाला।”’ इतना सुनने भर से पार्वती जी बहुत दुःखी हुई और प्रिय पुत्र गणेश को फिर से जीवित करने की शव से याचना करने लगीं। शंकर जी ने देखा कि एक हथिनी ने एक बच्चे को जन्म दिया है। शिव ने तुरन्त ही उस हथिनी के बच्चे का सिर काटकर बालक के धड़ से जोड़ दिया। तब पार्वतीजी ने बड़ी ही प्रसनता के साथ पति और पुत्र को भोजन कराया और स्वयं भी भोजन किया। यह घटना भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को हुई थी, इसलिये इसका नाम गणेश चतुर्थी पड़ा।