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नवरात्र व्रत की कथा – हिन्दुओ के व्रत और त्योहार

नवरात्र व्रत की कथा

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बृहस्पति जी ने एक बार ब्रह्माजी से कहा-ब्रह्मन! आप अत्यंत बुद्धिमान, सर्वशास्त्र और चारों वेदों को जानने वालों में सबसे श्रेष्ठ हैं। इसलिये हे प्रभू! कृपा करके मेरा कथन सुनिये। चैत्र, आश्विन, माघ ओर आषाढ़ मास के शुक्‍लपक्ष में नवरात्र का ब्रत ओर उत्सव क्‍यों किया जाता है

हे भगवन्‌! इस ब्रत का फल क्‍या है? किस प्रकार यह ब्रत करना उचित है? और पहले इस ब्रत को किसने किया? यह सब बातें आप विस्तारपूर्वक बताइये। बृहस्पतिजी का ऐसा प्रश्न सुनकर बह्माजी बोले – बृहस्पते! प्राणियों का हित करने की इच्छा से तुमने बहुत ही अच्छा प्रश्न पूछा है। जो मनुष्य मनोरथ पूर्ण करने वाली दुर्गा, महादेवी, सूर्य और नारायण का ध्यान करते हैं, वे मनुष्य धन्य हैं। यह नवरात्र ब्रत सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला हे। 
इसके करने से पुत्र चाहने वाले को पुत्र, धन चाहने वाले को धन, विद्या चाहने वाले को विद्या और सुख चाहने वाले को सुख मिल सकता है। इस ब्रत को करने से रोगी मनुष्य का रोगमुक्त होकर स्वस्थ हो जाता हे, और कारागार में पड़ा हुआ मनुष्य बन्धन से छूट जाता हे। मनुष्य की सारी विपत्तियां दूर हो जाती हैं और उसके घर में धन-सम्पत्ति और सुख की प्राप्ति होती हे। बन्ध्या और कोख बन्धया के इस ब्रत के करने से पुत्र हो जाता है। ऐसा कोई भी मनोरथ नहीं है जो समस्त पापों को दूर करने वाले इस ब्रत के करने से सिद्ध नहीं हो सकता। जो मनुष्य इस मनुष्य देह को पाकर भी नवरात्र का व्रत नहीं करता वह माता-पिता से हीन हो जाता है अर्थात्‌ उसके माता-पिता मृत्यु को प्राप्त हो जाते हें, ओर वह अनेक दुःख भोगता है। उसके शरीर में कुष्ठ हो जाता है। और वह अंगहीन हो जाता है। उसको सन्‍तान प्राप्ति नहीं होती। इसी प्रकार वह मूर्ख व्यक्ति अनेक दुःखों को भोगता है। इस व्रत को न करने वाला निर्दयी मनुष्य धन और धान्य से रहित हो, भूख ओर प्यास के मारे पृथ्वी पर घूमता है और गूँगा हो जाता है। 
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जो सुहागिन स्त्री भूल से इस ब्रत को नहीं करती है वह पति से हीन होकर नाना प्रकार के दुःखों को भोगती है। यदि व्रत करने वाला मनुष्य सारे दिन का उपवास न कर सके तो एक समय भोजन करे और उस दिन ब्रत की कथा श्रवण करे। ब्रह्मजी ने आगे कहा- बृहस्पते! जिसने पहले इस महाव्रत को किया है उसका पवित्र इतिहास में तुम्हें सुनाता हूँ। तुम सावधान होकर सुनो।
 ब्रह्मजी बोले एक मनोहर नगर था जिसका नाम पीठत था वहां पर एक अनाथ नाम का ब्राह्मण निवास करता था। वह भगवती दुर्गा का अनन्य भक्त था। सम्पूर्ण सदगुणों से युक्त मानों ब्रह्मा की सबसे पहली रचना हो ऐसी यथार्थ नाम वाली एक कन्या ने उसके यहां जन्म लिया। जिसका नाम सुमति रखा गया। वह कन्या सुमति अपने घर पर बचपन में अपनी सहेलियों के साथ खेलती हुर्ड इस प्रकार बढ़ने लगी जैसे शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा की कला बढ़ती है। उसका पिता प्रतिदिन दुर्गा की पूजा ओर हवन किया करता था। उस समय वह भी नियम से वहां उपस्थित हो जाती थी।
 एक दिन वह सुमति अपनी सखियों के साथ खेलने लग गई और भगवती के पूजन में उपस्थित नहीं हुई। उसके पिता को पुत्री की ऐसी असावधानी देखकर क्रोध आया और पुत्री से कहने लगा कि हे दुष्ट पुत्री! आज प्रभात से तुमने भगवती का पूजा नहीं किया इस कारण में किसी कुष्ठी और दरिद्र मनुष्य के साथ तेरा विवाह करा दूंगा। इस प्रकार क्रोधित पिता की बात सुनकर सुमति को बड़ा ही कम पहुंचा ओर पिता से कहने लगी कि हे पिताजी! में आपकी पुत्री हूँ। में आपके सब तरह से अधीन हु, जैसी आपकी इच्छा हो वैसा ही करो। रोगी, कुष्ठी या और किसी के साथ जैसी तुम्हारी इच्छा हो विवाह कर सकते हो। होना तो वही है जैसा मेरे भाग्य में लिखा हे, मेरा तो भाग्य पर पूर्ण विश्वास हे। मनुष्य न जाने कितने मनोरथों का चिन्तन करता हे पर होता वही है जो भाग्य में विधाता लिखकर भेजता है। जो जैसा कार्य करता हे। उसको फल भी उसके कर्मानुसार प्राप्त होता है। 
क्योंकि कर्म करना मनुष्य के हाथ में है और उसका फल देना देवता के हाथ में है। कन्या की ऐसे निर्भयतापूर्ण वचन सुनकर ब्राह्मण को अत्यधिक क्रोध आया और उसने अपनी कन्या का विवाह एक कुष्ठी के साथ कर दिया और अत्यंत क्रुद्ध होकर पुत्री से कहने लगा कि जाओ, जल्दी जाओ। अपने कर्म का फल भोगो। देखें केवल भाग्य के भरोसे पर रहकर क्या करती हो? पिता के इस प्रकार के कड़वे वचन सुनकर सुमति अपने मन में विचार लाने लगी कि-मेरा बड़ा भाग्य है जिससे मुझे ऐसे पति प्राप्त हुआ। इस तरह अपने दुख से दुखी विचार करती हुई वह सुमति अपने पति के साथ वन में चली गई और भयानक वन में कुशायुक्त उस स्थान पर उन्होंने वह रात बड़े कष्ट के साथ बिताईं। उस गरीब बालिका की ऐसी दशा देखकर भगवती पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रकट होकर सुमति से कहने लगी – हे दीन ब्राह्मणी! मैं तुम पर प्रसन्‍न हूँ, तुम जो चाहो, वरदान माँग सकती हो। मांग लो। मैं प्रसन होने पर मनवांछित फल देने वाली हूँ।”
इस प्रकार भगवती दुर्गा माँ का वचन सुनकर ब्राह्मणी कहने लगी कि आप कौन हैं जो मुझ पर प्रसन्न हुई हैं, अपनी कृपादृष्टि से मुझ दीन दासी को कृतार्थ करो। ब्राह्णी का ऐसा वचन सुनकर देवी कहने लगी कि मैं आदि शक्ति हूँ और मैं ही ब्रह्मा, विद्या और सरस्वती हूँ। मैं प्रसन होने पर प्राणियों का दुख दूर कर उनको सुख प्रदान करती हूँ। इसलिये हे ब्राह्मणी! मैं तुझ पर तेरे पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से प्रसन्न हूँ। तुम्हारे पूर्व जन्म की सारी बात बताती हूँ सुनो! तू पिछले जन्म में निषाद की स्त्री थी और अति पतिव्रता थी। एक दिन तेरे पति निषाद ने चोरी की। चोरी करने के कारण तुम दोनों को सिपाहियों ने पकड़ लिया और ले जाकर जेल में कैद कर दिया और उन लोगों ने तेरे को और तेरे पति को भोजन भी नहीं दिया। इस प्रकार नवरात्र के दिनों में तुमने न तो कुछ खाया और न जल ही पिया। इसलिंयें नौ दिन तक नवरात्र का ब्रत हो गया। 
हे ब्राह्मणी! उन दिनों जो व्रत किया उस ब्रत के ही प्रभाव से में प्रसन्न होकर मनवांछित वस्तु दे रही हूं। तुम्हारी जो इच्छा हो वह मांग सकती हो। इस प्रकार दुर्गा मां के कहे हुए वचन सुनकर ब्राह्मणी बोली कि अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो हे दुर्गे! आपको में शत्‌-शत्‌ प्रणाम करती हूं। कृपा करके मेरे पति के कोढ़ को दूर कर दीजिये। देवी कहने लगी कि उन दिनों में जो तुमने व्रत किया था उस ब्रत के एक दिन का पुण्य अपने पति का कोढ़ दूर होने के लिये अर्पण करो। मेरे प्रभाव से तेरा पति कोढ़ से रहित हो सोने के समान शरीर वाला हो जायेगा। ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार देवी का वचन सुनकर वह ब्राह्मणी बहुत खुश हुई और पति को निरोग करने की इच्छा से ठीक है, ऐसे बोली। तब तक उसके पति का शरीर भगवती मां की कृपा से कुष्ठहीन होकर अति कान्तियुक्त हो गया था। जिसकी कान्ति के सामने चंद्रमा की कान्ति भी धीमी पड़ जाती है!
 वह ब्राह्मणी पति के मनोहर देह को देखकर देवी को अति पराक्रम वाली समझकर स्तुति करने लगी कि हे दुर्ग! आप दुःखों को दूर करने वाली, तीनों लोकों के कष्ट हरने वाली, समस्त दुःखों का निवारण करने वाली, रोगी मनुष्य को निरोग करने वाली, प्रसन्‍न होने पर मनवांछित फल देने वाली ओर दुष्ट मनुष्य नाश करने वाली हो। तुम ही सारे जगत्‌ की माता और पिता हो। हे अम्बे माँ। मुझ अपराध रहित अबला का विवाह मेरे पिता ने एक कुष्ठी के साथ करके घर से निकाल दिया। 
पिता की निकाली हुई बेटी पृथ्वी पर घूमने लगी। आपने ही मेरा इस आपत्ति रूपी समुद्र से बाहर निकाला है। हे देवी आपको मैं बारम्बार प्रणाम करती हूँ। मुझ दीन की रक्षा करो। ब्रह्माजी बोले कि हे बृहस्पते! इसी प्रकार उस सुमति ने मन से देवी की बहुत स्तुति की, उससे की हुई स्तुति सुनकर देवी को बहुत संतोष हुआ और ब्राह्मणी से कहने लगी कि हे ब्राह्मणी! तुम्हारे उदृदालक नाम का एक अति बुद्धिमान, धनवान, कीर्तिमान और जितेन्द्रिय पुत्र शीघ्र ही होगा। ऐसे कहकर वह देवी उस ब्राह्मणी से फिर कहने लगी कि हे ब्राह्मणी ओर जो कुछ तेरी इच्छा हो वही मनोवांछित फल मांग सकती हो। दुर्गा माँ के कहे ऐसे वचन सुनकर सुमति बोली कि हे भगवती दुर्गें! यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं तो कृपा कर मुझे नवरात्र व्रत करने की विधि सविस्तार बताइये। हे दयावती! जिस विधि से नवरात्र ब्रत करने से आप प्रसन्न होती हैं उस विधि और उसके फल को भी विस्तार से बताने की कृपा करें। ब्राह्मणी के ऐसे वचन -सुनकर दुर्गा मां कहने लगी कि हे ब्राह्मणी! मैं तुम्हारे लिये सम्पूर्ण पापों को दूर करने वाली नवरात्र ब्रत की विधि बताती हूँ। जिसको सुनने से तमाम पापों से छूटकर मोक्ष प्राप्त होता है। तुम इसे ध्यानपूर्वक सुनो। आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर नो दिन तक विधिपूर्वक ब्रत करें। यदि दिनभर का ब्रत न कर सकें तो एक समय का भोजन करें। ब्राह्मणों से  पूछकर घट स्थापना करें और वाटिका बनाकर उसको प्रतिदिन जल से सींचें। महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की मूर्तियाँ बनाकर उनकी निंत्य प्रति विधिपूर्वक पूजा अर्चना करें। और पुष्पों से विधिपूर्वक अर्ध्य करे। बिजौरा के फूल से अर्ध्य देने से रूप की प्राप्ति होती है। जायफल से कीर्ति, दाख से कार्य की सिद्धि होती हे। आँवले से सुख ओर केले से भूषण की प्राप्ति होती है। इस प्रकार फलों से अर्ध्य देखकर यथाविधि हवन करें। खांड, घी, गेहूँ, शहद, जौ, तिल, बिम्ब, नारियल, दाख और कदम्ब, इन सब सामग्रियों से हवन सम्पन्न करें। गेहूँ का हवन करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। खीर व चम्पा के फूलों से धन और पत्तों से तेज और सुख प्राप्त होता है। आँवले से कीर्ति ओर केले से पुत्र की प्राप्ति होती है। कमल से राज-सम्मान और दाखों से सुख-सम्पत्ति की प्राप्ति होती है। खांड, घी ,नारियल, शहद, जो और तिल, इनसे तथा फलों से होम करने से मनवांछित वस्तु की प्राप्ति होती है। व्रत करने वाला मनुष्य इस विधि से हवन कर आचार्य को अत्यंत नम्नरता के साथ प्रणाम करे और यज्ञ की सिद्धि के लिये उसे दक्षिणा दे।
 इस महाब्रत को पहले बताई हुई विधि के अनुसार जो कोई करता है उसके सब मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। इसमें तनिक भी शंका नहीं है। इन  नौ दिनों में जो कुछ दान दिया जाता है, उसका करोडों गुना फल मिलता है। इस नवरात्र के व्रत करने से ही अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है। हे ब्राह्मणी। इस सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाले उत्तम ब्रत को तीर्थ, मन्दिर अथवा घर में ही विधि पूर्वक करें। ब्रह्माजी आगे बोले-” हे ब्रहस्पते। इस प्रकार ब्राह्मणी को ब्रत की विधि ओर फल बताकर देवी अर्न्तध्यान हो गई। जो मनुष्य या स्त्री इस ब्रत को भक्तिपूर्वक करते हैं। वह इस लोक में सुख पाकर अन्त मोक्ष प्राप्त करते हैं। इसलिये हे बृहस्पते! इस ब्रत का माहात्म्य मैंने तुम्हारे लिये बतलाया है ब्रह्मजी का कथन सुनकर बृहस्पतिजी आनन्द विभोर हो उठे। और ब्रह्माजी से कहने लगे-हे ब्रह्माजी! आपने मुझ पर अति कृपा की है जो आपने मुझे अमृत के समान इस नवरात्रि ब्रत का माहात्म्य सुनाया। 
हे प्रभो! आपके बिना और कौन इस माहात्म्य को सुना सकता है। ऐसे बृहस्पति जी के वचन सुनकर ब्रह्माजी बोले-हे बृहस्पते! तुमने सब प्राणियों का हित करने वाले इस अलौकिक ब्रत को पूछा है इसलिये तुम धन्य हो। यह भगवती शक्ति सम्पूर्ण लोगों का पालन करने वाली हें, इस महादेवी के प्रभाव को कौन जान सकता है! 
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