लाला जी का लालच
एक बार की बात है कि एक सेठ जी ने मार्ग में जाते हुए एक खजूर का पेड़ देखा जिस पर मोटी-मोटी मीठी खजूर लटक रही थी। खजूरों का देखकर उनके हृदय में उन्हे खाने की इच्छा जाग्रत हो गई और पेड़ पर चढ़ गया।
खजूरों का सेवन करने के बाद जैस ही उतरने के लिए उन्होंने नीचे की ओर देखा तो उनका शरीर कांपने लगा उन्होंने सोचा कि यदि उतरते समय कहीं नीचे गिर पड़ तो हड्डियों का निश्चित रूप से चूरा हो जायेगा। यह सोचते
ही सेठजी थर-थर काँप रहे थे और खजूर खाने वाले अपने मन को बार-बार धिक्कारने लगे।
उन्हें पेड़ पर बैठे-बेठे बहुत समय हो गया तो सेठ जी ने सोचा – पेड़ पर कब तक बैंठा रहूँगा। इसलिए ईश्वर का नाम लेकर धारे-धीरे पेड़ पर से उतरने लगे । जब सेठ जी पेड़ पर से आधी दूरी पर आ गये तो उन्होंने पचास ब्राह्मणां को सकुशल उतरने पर भोजन कराने का संकल्प लिया। जेसे जैसे सेठजी खजूर के पेड़ से धीरे-धीरे नीचे उतर रहे थे, त्यों-त्यों जिमाने वाले ब्राह्मणों की संख्या भी कम करते जा रहे थे।
अन्त में जब वह सकुशल पेड़ से नीचे उतर आये तो वे बोले – घर पहुँचते ही एक ब्राह्मण को भोजन करा दूँगा। ऐसा करने से न तो प्रतिज्ञा ही भंग होगी और न अधिक खर्च ही करना पड़ेगा।
सेठ जी यह सोचते हुए घर पर पहुँच गये । दूसरे दिन वह किसी ऐसे ब्राह्मण को खोजने लगे जो कम से कम भोजन , करता हो।
अब सेठजी का यह नियम बन गया कि कोई ब्राह्मण उनकी दुकान के सामने से निकलता तो वे उससे उसके आहार के बारे में पूछते रहते थे। परन्तु तेज स्वभाव वाले ब्राह्मण जितना भोजन करते उससे दुगनी मात्रा बता देते थे। इस कारण से किसी को भोजन नहीं करा पा रहे थे।
एक धूर्त ने सोचा कि क्यों न इस लालची सेठ को लूट कर अपने घर कामकाज ठीक कर दिया जाये। वह धूर्त यह सोचकर तिलक लगाकर और पंडितों जैसा स्वरूप बनाकर सेठजी की दुकान के आगे से निकला तो सेठजी ने उसे विद्वान ब्राह्मण जानकर प्रणाम करते हुए
पूछा – पंडितजी! आपकी खुराक़ कितनी होगी?
उस दुष्ट ने कहा–इससे आपका क्या तात्पर्य है?
सेठजी ने कहा – पंडितजी आप तो बुरा मान गये। मेरा कोई तात्पर्य वात्पर्य नहीं है, मैंने तो यूं ही पूछ लिया था। क्रोध करना अच्छी बात नहीं है। इसलिए आप क्रोधित न हों।
सेठजी की बात सुनकर वह बोला – यजमान्! हम ब्राह्मण लोग तो शत्रु पर भी क्रोध नहीं करते, फिर आप जैसे सज्जनों पर तो अप्रसन्न क्यों होने लगे? सेठजी यदि आप हमारे भोजन के बारे में जानना ही चाहते हैं तो सुनिए-मैं अधिक से अधिक आधा पाव आटे की चपाती, आधी छटाक दाल और छः माशे घी का प्रयोग करता हूँ । इतना भोजन 24 घंटे के लिए पर्याप्त है।
इसमें भी कुछ भाग गऊ के लिए और कुछ भाग कौए व कुत्ते के लिए भी निकाला करता हूँ। यदि सारा भोजन कर लूँ तो फिर वैद्यजी को बुलाकर चूर्ण लेते हुए अड़तालीस घंटे पेट के दर्द में कराहते हुए व्यतीत करने पड़ें तथा दक्षिणा तो मैं किसी से लेता ही नहीं।
इतना सुनते ही सेठजी का मन आनन्द विभोर होकर कमल की भाँति खिल गया और मुस्कुराते हुए सेठ जी ने कहा – पंडितजी।
कल आपका निमंत्रण है। आप हमारे घर आकर इच्छानुसार रसोई बनवाकर भोजन ग्रहण कर लेना। इसके बाद सेठजी के घर का पता पूछकर वह दुष्ट अपने घर चला गया और रात्रि को सेठजी ने अपने घर जाकर सेठानी से कहा – कल एक पंडितजी घर पर खाना खाने आयेंगे, उन्हें जिस वस्तु की इच्छा हो वह दे देना। ऐसा न हो कि उन्हें अपने घर आकर किसी बात का कष्ट उठाना पड़े।
सेठानी बड़ी धर्मात्मा थी। उसने सेठजी के मुख से धर्म के काम के लिए ऐसी दिल खोलकर बातें आज ही सुनी थीं, इस कारण उसे बड़ी प्रसन्नता हुई और वह बोली-जैसी आपकी इच्छा! दूसरे दिन सेठजी तो दुकान चले गये। लगभग नौ बजे पंडित जी सेठजी के घर आये। उन्होंने सेठानी से अपने जिमाने के विषय में पूछ-ताछ की। सेठानी ने हाथ जोड़कर नमस्ते करते हुए कहा – सेठजी मुझे बता गये हें। आप प्रेम पूर्वक इच्छानुसार भोजन करें। आप रसोई घर में जाकर अपनी इच्छानुसार भोजन तेयार करके खाइये।
सेठानी की बात सुनकर पंडितजी ने कहा – आप दस सेर आटा, ढाई सेर मेवा, साढ़े सात सेर शुद्ध घी और दस सेर बूरा का प्रबन्ध कर दीजिये। जब हलवा पूरी व लड्डू तैयार हो जायें तो साग, मसाला और दही मंगवा देना। पंडितजी की इच्छानुसार सब वस्तुओं का सेठानी ने प्रबन्ध कर दिया अब पंडितजी की रसोई तैयार हो चुकी थी
हु की पत्नी अपने बाल बच्चों को लेकर डा उसने अपनी पत्नी और बाल बच्चों सहित प्रेम पूर्वक भोजन किया तथा शेष बचा भोजन अपने बच्चों के हाथ अपने घर पहुँचा दिया। तत्पश्चातू् जब वह धूर्तराज घर जाने लगा तो उसने सेठानी से कहा -भगवान् आपको । हमेशा प्रसन्न रखे और दिन दूना रात चौगुना लाभ हो। अब दक्षिणा देने की कृपा करें। सेठानी ने पुछा – दक्षिणा में पंडितजी क्या दिया जाये।
वह बोला – सेठजी होते तो उनसे दक्षिणा में सोने की एक मुहर लेता। अब आपकी जो इच्छा हो देने का कष्ट करें। सेठानी ने पंडितजी को दो सोने की मोहर दक्षिणा में देकर विदा किया। रात्रि को जब सेठजी घर आये तो सेठानी ने ब्रह्म भोज का इतिहास सुनाया । इस पर सेठजी हाय-हाय कहकर पलंग पर गिर पड़े। उन्होंने भाग्य को धिक्कारते हुए और सेठानी की मुर्खता पर दुःख प्रकट करते हुए कहा – अरी पगली!
तूने यह क्या कर डाला जो एक ब्राह्मण पर इतना खर्च कर डाला। तुमने तो मुझे दिन दहाड़े लुटवा कर कंगाल बना दिया। सेठानी बोली – मेरी इसमें क्या गलती है? आप ही तो यह कह गये थे कि उन्हें जिस वस्तु की इच्छा हो वह दे देना। सेठानी की बात सुनकर सेठजी ने क्रोध में भरकर कहा – अरी पगली। तुम्हें कुछ घर की भी कुछ चिन्ता थी या नहीं ।
मैंने यह थोड़े ही कहा था कि उसे पचास आदमियों का भोजन का सामान देकर और दक्षिणा में दो सोने की मोहर दे देना। हाय! जिस समय वह दुकान पर आया था तो उसने आधा पाव आटा, एक छटॉक दाल और छः माशे घी अपने भोजन के लिए बताया था। साथ ही दक्षिणा लेने के लिए सर्वथा इन्कार कर रहा था। इसीलिए मैंने उसे भोजन का निमंत्रण दिया था।
है सजनों! सेठानी को अब पता चला कि सेठजी कल क्यों दिल खोल कर बातें कर रहे थे, परन्तु जो होना था वह तो हो ही गया। उधर पंडित जी अपने घर पहुँच कर अपनी पत्नी से बोले – अमुक रंग रूप का कोई आदमी यहाँ घर पर मुझे पूछने के लिए आये तो उसे देखकर रोते-रोते कहना की पता नहीं कि किस पापी के घर ऐसा भोजन करके आये कि पेट दर्द के कारण छटपटाते हुए अपने प्राणों से हाथ धो बैठे । हाय! में तो विधवा हो गई ।
अब मेरे पास उनके अन्तिम संस्कार के लिए न पैसे हैं और न कफन के लिए कपड़ा। इस कारण मैं तो अब थाने में जाकर खबर करती हूँ जिससे सरकार उनका अन्तिम संस्कार कर देगी। दूसरे दिन सेठजी प्रात:काल उठकर गलियों में घूमते हुए लोगों से पता लगाकर जैसे ही उस धूर्त के घर पहुँचे तो उन्हें ब्राह्मणी के मुँह से उसके मरने का पता लग गया तथा ब्राह्मणी जोर से रोने लगी।
अब सेठजी को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने सोचा कि यदि यह बात पुलिस को ज्ञात हो गईं तो वह छानबीन करती हुई मुझसे पूछताछ करेगी। तब पता नहीं क्या-क्या दुःख उठाने पड़ें । साथ ही मेरी अपकीर्ति भी होगी। इसलिए ब्राह्मणी को कुछ देकर राजी कर लिया जाये तो अच्छा रहेगा।
यह सोचकर सेठजी ने कंहा – पंडितायन जी! इससे तो पंडितजी की लाश की मिट्टी खराब होगी। इसलिए मैं तुम्हें सौ रुपये देता हूँ। इन रुपयों से पंडित जी का दाह संस्कार क्रिया कर्म कर देना और आरिष्टी के दिन बारह ब्राह्मणों को जिमा देना। इस तरह सेठ जी अपनी गाँठ से सौ रुपये देकर ईश्वर को मनाते हुए दुकान पर चले गये।
रात को घर आने पर सेठजी ने पंडितजी की मृत्यु का समाचार दिया। इससे सेठानी को बड़ा दु:ख पहुचा। कुछ समय बीत जाने पर एक दिन दोपहर के समय सेठानी पलंग पर लेटी हुई कोई धार्मिक पुस्तक पढ़ रही थी । उसी समय वही धूर्त पंडित ने आशीर्वाद देकर सेठानी को चौंका दिया।
मरे हुए पंडित को अचानक अपने सामने देखकर सेठानी के भय और आश्चर्य की कोई सीमा न रही। परन्तु फिर भी साहस बटोरकर और दिल को कड़ा करके नमस्कार करते हुए कहा – पंडितजी ! आप तो स्वर्ग सिधार गये थे। क्या यह बात वास्तव में सच है? वह बोला–यह सर्वथा सत्य है।
घबराकर सेठानी ने काँपते हुए पूछा – फिर आपका यहाँ आना कैसे सम्भव हुआ? उसने बताया – आपकी जो पुत्री मर चुकी है, उसने मुझे आपके पास भेजा है। उसने अपने आभूषण और वस्त्र मंगवाये हैं। वह इनके बिना वहाँ पर दु:खी रहती है। उस धूर्त की ये बातें सुनकर सेठानी ने अपनी पुत्री के समाचार पूछे और उसके सब आभूषण और वस्त्र दे दिये। वह धूर्त सामान की गठरी बाँध कर प्रसन्नता पूर्वक अपने घर को चला गया।
रात को जब सेठजी घर आये तो सेठानी ने उन्हें दिन वाली घटना से अवगत कराया, अब सेठ को पूर्णतया विश्वास हो गया कि वह धूर्त जीवित है। उसने हर बार मुझे लूटने के लिए जाल फैलाया है। इसलिए प्रात:काल उठकर सीधे उसके घर जाकर उसे पकड़ना चाहिये। प्रात:काल उठने पर सेठ ऊँट पर बैठकर उस धूर्त के घर की ओर चल दिये। उसने सोचा था कि यदि वह दुष्ट मुझे देखकर भागेगा तो ऊँट के द्वारा उसे शीघ्र पकड़ा जा सकता है। सेठ को आते देखकर वह धूर्त शीघ्रता से घर से भागने लगा, सेठजी ने उसे भागते देखा तो वह ऊट पर बेठकर उसका पीछा करने लगे।
दो तीन मील दौड़ने के बाद उस धूर्त ने देखा कि सेठ उसे शीघ्र पकड़ लेगा तो वह दौड़कर एक वृक्ष पर चढ़ गया। वृक्ष के नीचे पहुचकर सेठ ने उसे गालियां देकर नीचे उतरने के लिए कई बार कहा परन्तु वह सेठ जी की बातों को अनसुना करता रहा तो सेठ बहुत बिगड़े, और ऊट को बैठा कर उसे पकड़ने के लिए वृक्ष पर स्वयं चढ़ गये। सेठ को पास आया देखकर धूर्त जान बचाकर पेड़ की शाखाओं को पकड़कर निचे कूद गया ओर सेठ के नीचे उतरने से पहले ही सेठ के ऊंट पर बैठकर बहुत दूर निकल गया।
ऊंट को हाथ से गया हुआ जानकर पेड़ पर से ही सेठ ने खड़े होकर उस धूर्त से जोर से चिल्लाकर कहा – पंडितजी ! यह ऊंट भी मेरी पुत्री को ही दे देना। इतना कहकर सेठजी पेड़ से नीचे उतर आये और उदास हृदय से अपने घर को लौट गये।