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भगवान गर्व प्रहरी हैं

Lord

भगवान गर्व प्रहरी हैं 

जब महाराज युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ कर रहे थे तो उनके मन में यह-विचार उठा कि जिस प्रकार दिल खोलकर प्रसन्नता से मैंने दान करते हुए यज्ञ किया है, ऐसा अन्य किसी ने किया होगा।
युधिष्ठटिर के अहंकार को देखकर अभिमान का नाश करने वाले भगवान श्री कृष्ण ने विचार किया कि अहंकार और क्रोध करने से किये गये पुण्य नष्ट हो जाया करते हैं। अतः युधिष्ठिर को शिक्षा देकर उसके अभिमान को नष्ट करके इनके पुण्यों की रक्षा करनी चाहिए।
भगवान श्री कृष्ण ने अपनी माया से वहाँ एक नेवला जिसके शरीर के बाल स्वर्ण के हो चुके थे, उपस्थित किया । जो  यज्ञ के पात्रों में मुंह डालता हुआ इधर-उधर दौड़ लगा रहा था। उसको भागते हुए देखकर युधिप्ठिर ने चकित होकर  भगवान श्री कृष्ण से कहा–हे श्याम सुन्दर! मैंने आज तक ऐसा विचित्र नेवला कभी नहीं देखा । इसलिए इसकी विजचिद्रता  के सम्बन्ध में मुझे कुछ बताने की कृपा करें। आप सर्वज्ञ हैं |
Lord
और सबके घट-घट के ज्ञाता हैं। युधिष्ठिर की बात सुनकर भगवान श्री कृष्ण ने कहा- युधिष्ठिर! इस नेवले से सम्बन्ध रखने वाली एक विचित्र घटना है। तुम्हारे आग्रह करने पर मैं उसे तुम्हें सुना रहा हूँ। अतरव  ध्यान देकर सुनिये।  बहुत समय पहले इसी जनपद में एक तपस्वी ब्राह्मण  रहते थे। उसके पत्नी, पुत्र तथा पुत्र वधु थी। इस प्रकार उनका चार आदमियों का छोटा सा कुट॒म्ब था। वे चारों ही भगवान का भजन करते हुए धार्मिक परम्पराओं के आधार पर अपना जीवन यापन किया करते थे।
है राजन! वे ब्राह्मण होते हुए भी किसी से दान लेना पाप समझते थे और जो कोई उनके यहाँ अतिथि आ जाता तो उसे  प्राण रहते विमुख नहीं जाने देते थे। एक दिन की बात है कि कई दिनों के उपवास के बाद  उन्होंने भोजन बनाया और जैसे ही उस भोजन के चार भाग करके वह तपस्वी ब्राह्मण भोजन करने को तैयार हुआ त्योंहि एक दुर्बल रोगी व्यक्ति उनके द्वार पर आकर भोजन मागने लगा पर भूखा खड़े देखकर विप्र ने अपने दिया। दिया गया भोजन खा चुका तो ब्राह्मण पुछा–क्या आप तृप्त हो चुके हैं?  ।बोला–नहीं मैं अभी भूखा हूँ। यदि और कुछ हो तो  कृपाकें।
अतिथि के ये वाक्य सुनकर ब्राह्मण की पत्नी ने सोचा  कि जिस स्त्री के सम्मुख उसका पति और अतिथि दो देव तुल्य  प्राणी भूखं हों तो उसका भोजन करना धिक्कार है। इसलिए  ब्राह्मणी ने अपने भाग का भोजन अतिथि को देकर पति की तरह पुण्य प्राप्त करना चाहिए। ऐसा सोचकर उस पतित्रता ब्राह्मणी ने अपने हिस्से का भोजन अतिथि को दे दिया।  जब वह अतिथि ब्राह्मण की पत्नी का हिस्सा भी खा चुका तो ब्राह्मण ने उससे फिर पूछा कि अब आप तृप्त हो चुके हैं? उस अतिथि ने कहा नहीं–अभी तो भूखा ही हूँ, थोड़ा-सा और भोजन दिलाने की कृपा करें। । तब ब्राह्मण के बेटे ने सोचा कि जब मेरे माता-पिता और  अतिथि जैसे देवता के समान प्राणी भूखे रह जायें तो मेरा  भोजन करना उचित नहीं है। यह सोचकर उसने प्रसन्नता पूर्वक अपने भाग का भोजन भी अतिथि को खिला दिया। ब्राह्मण के बेटे का भाग भी खा चुकने के बाद अतिथि से ब्राह्मण ने पूछा-भगवान्‌! क्या आपकी भूख मिट गई है  या नहीं। ‘ |
उसने कहा–विप्रवर! अभी थोड़ा सा पेट खाली है। न्‍ यदि थोड़ा सा भोजन और मिल जाता तो बहुत दिनों की भूख से सताई हुईं उदर की अग्नि शान्त हो जाती। आतएव थोड़ा सा भोजन और देने की कृपा करें।  अतिथि के मुख से ये वाक्य सुनकर ब्राहुँण की धर्मज्ञा | पुत्र वधु ने अपना भाग भी अपने एवसुर के द्वारा उस अतिथि को समर्पित कर दिया।  भगवान श्यामसुन्दर! युधिष्ठिर से बोले–हे धर्मपुत्र! उस  तपस्वी ब्राह्मण की पुत्र वधु द्वारा दिये गये आहार को खाते ही । वह अतिथि अपने असली चतुर्भुजी रूप में प्रकट हो गये और उनको आशीर्वाद देता हुआ उनका गुणानुवाद करने लगा। तब साक्षात्‌ भगवान विष्णु को सम्मुख देखकर वे चारों उनकी स्तुति करने लगे। हे राजन्‌! तदन्तर वहाँ एक दिव्य विमान आया और उन चारों धर्मात्माओं को विमान में बेठाकर बैकुण्ठ लोक को चला गया। भगवान के अन्तर्धान हो जाने पर और चारों धर्मात्माओं ‘ के बैकुण्ठ चले जाने पर यह नेवला वहाँ आया और ज्योंहि उस धर्मात्मा ब्राह्मण के दान किये हुए आहार की जुठन को  इसने खाया वैसे ही इसका आधा शरीर स्वर्ण का बन गया।
इसलिए अब उसने सोचा कि एक ब्राह्मण के पुण्य प्रताप से आधा शरीर स्वर्ण का हो चुका है तो धर्मात्मा युधिष्ठिर के राजसूर्य यज्ञ में चलकर शेष आधा भाग भी स्वर्ण का हो जाये तो मैं सब जीवों में श्रेष्ठ गिना जाऊँगा क्योंकि महाराज युधिष्ठिर । ने भी बहुत पुण्य दान किया है। हे युधिष्ठिर! इसी आशा में यह नेवला तुम्हारे यहाँ अतिथि ल्‍ ब्राह्मणों की जूठन खाता हुआ भाग रहा है। परन्तु दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आपके यज्ञ ‘ द्वारा इसके शरीर का एक भी बाल स्वर्ण का न हो सका है। इससे पता चलता है कि उस तपस्वी ब्राह्मण के किये हुए पुण्य के सामने आपका दान सहस्त्रांश भी नहीं है। भगवान श्री कृष्ण के मुख से यह बात सुनते ही राजा युधिष्ठिर का अभिमान चकनाचूर हो गया और उनके मन में बड़ी ग्लानि उत्पन्न हुई कि क्‍यों मैंने व्यर्थ में अभिमान किया?
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