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दृष्टा एवं दृश्य का सांई भाव | साक्षी भाव | -Vision and sight

दृष्टा एवं दृश्य का सांई भाव
दृश्य वह है जो दिखाई देता है तथा दृष्टा वह है जो उसे देखता है। हर दृष्टा अपने दृष्टिकोण से सोचकर दृश्य को देखता है। (jyotish hindi latest news) बाहरी दृश्य को दृष्टा अपने नेत्रों से देखता है किन्तु आन्तरिक दृश्य केवल शुद्ध मन से ही देखा जा सकता है। जिसे सब देख सकते हैं वह बाहरी दृश्य है और जिसे स्वयं देख सकते हैं वह आन्तरिक दृश्य कहलाता है। यदि हम इस कथन को पूर्ण रूप से समझकर स्वीकार कर लें तो हमारी आन्तरिक अवस्था सुदृढ़ हो सकती है क्योंकि ऐसा करने से हम अनेक प्रकार के संतापों दु:खों से बच सकते हैं। हालांकि हम यह जानते हैं कि दृष्टा व दृश्य का तथ्य अटल सत्य है, फिर भी हम इसे स्वीकारने के बावजूद भी अपने संतापों से मुक्त नहीं हो पाते हैं।
सांई अपने संदेश में समझाते हैं कि हम जो बाहरी दृश्य देखते हैं उसे अपनी सोच के अनुसार ही समझने लगते हैं। एक विशाल वृक्ष को देखने और उसके बारे में सोचने के अनेक तरीके हो सकते हैं। पहला दृष्टा उस वृक्ष को देखकर सोचता है कि यह कितना विशाल एवं सुन्दर वृक्ष है और उसकी बनावट पर मुग्ध हो जाता है तथा उसे देखकर प्रसन्नता का अनुभव करता है। दूसरा दृष्टा उसके लाभ देखता है और सोचता है कि इस अकेले वृक्ष के तले बहुत से पथिक इसकी छाया में एक साथ विश्राम कर सकते हैं। इसके साथ ही यह अनेकों पक्षियों के रैन बसेरे का भी एक विशाल स्थान बन सकता है। परन्तु यदि यह सूख जाये तो न यह पंथी को छाया दे पायेगा न ही पक्षियों को बसेरा। तीसरा पथिक सोचता है कि इतना विशालकाय वृक्ष यदि किसी पर गिर पड़े तो यह उसका जीवन ले सकता है] यदि सड़क पर आ गिरे तो राहगीरों के लिए व्यवधान पैदा कर सकता है। चैथा दृष्टा इसे व्यापार की दृष्टि से देखता है और सोचता है कि इसको काटकर यदि लकड़ी का प्रयोग किया जाये तो इससे अत्यधिक मात्रा में सुन्दर फर्नीचर बनाया जा सकता है।
पहले पथिक की सोच सर्वोत्तम है क्योंकि उसकी दृष्टि किसी उपयोग अथवा अपभोग से सम्बन्ध नहीं रखती। जब दृष्टा की दृष्टि में उपभोग समावेषित होता है तब वह दु:ख का कारण बन जाता है। बाबा ने सोच पर प्रकाश डालते हुए आगे कहा कि यदि हमारे सोचने का रुख विपरीत दिशा की ओर रहता है तो हम सदैव दु:ख के भागी बनते हैं। यह दु:ख क्लेश से पैदा होता है और क्लेश पाँच प्रकार की मूल एवं भूल की अवस्थाओं से उत्पन्न होता है। ये अवस्थायें हैं: अविद्या] राग] द्वेष] अस्मिता] अहंकार एवं अभिनिवेष। अविद्या] राग एवं द्वेष मूल अवस्थायें हैं जो मानव जीवन में साधनों के अभाव तथा परिस्थितियों के कारण अस्तित्व में आती हैं और क्लेश का कारण बन जाती हैं।
विपरीत सोच ही हमारे विवेक पर हावी होती है और हमें अविद्या के अंधेरों में भटका देती है। जब हम दृष्टा बनते हैं तो दृश्य में सदैव नकारात्मकता नजऱ आती है। राग एवं द्वेष की अवस्थायें भी इसी कारण से उत्पन्न होती हैं और हमारे भीतर समायी रहती हैं। इसीलिए हम अपने पराये के जंजाल से बाहर निकलने में असमर्थ रहते हैं। परिणाम स्वरूप हम संतापों से घिरे रहते हैं। यह छोटी सी अत्यंत सीधी] सरल एवं सत्य बात हम समझ नहीं पाते हैं। अस्मिता] दअहंकार½ एवं अभिनिवेष की उत्पत्ति भूल से होती है क्योंकि हम दूसरों को अथवा अन्य वस्तुओं को अपने से तुट्टछ एवं कम महत्व की समझने लगते हैं। स्वयं को ज्ञानी एवं महाज्ञानी मानने की भूल से अहंकार पैदा होता है। कभी&कभी यह भय के कारण भी होता है] यह सोचकर कि दूसरों के आगे झुकने से अपना अस्तित्व ही समाप्त न हो जाये। अभिनिवेष का अर्थ भी भय का साथ लिए हुए है। इसका अर्थ है भूलवष किसी अवस्था को आत्मभाव से अपना लेना। हममें से अधिकांष लोग इस देह को आत्मभाव से अपनी आत्मा मान लेते हैं जबकि यह देह तो नश्वर है तथा इसका नाष अवश्यंभावी है । यह भी हम सब जानते हैं तथा इसी भय से अभिनिवेष क्लेश उत्पन्न हो जाता है और हमारे दु:ख का कारण व कारक बन जाता है। मरने का भय ही अभिनिवेष नामक क्लेश के नाम से जाना जाता है। यही हम सब की भूल है और इसी भूल से हम बाहर नहीं आते। अत: जब हम दृष्टा बनते हैं तो इस प्रकार की भूल हमें सही दृश्य देखने से वंचित कर देती है। हम भ्रामकता से घिर जाते हैं और भयभीत होकर स्वयं के लिए एवं दूसरों के लिए भयावह स्थिति उत्पन्न कर देते हैं। यदि हम प्रारम्भिक अवस्था से ही इस ओर ध्यान देना प्रारम्भ कर दें अथवा इसे स्वयं समझकर औरों को समझाने का प्रयास करें तो मुमकिन है कि हमें अपने शरीर से दूर होने का या उसके मरने का भय कभी नहीं सतायेगा तथा हमारा दृष्टिकोण सकारात्मकता की ओर अग्रसर होने लगेगा। बाबा बड़े सहज अन्दाज में समझाने लगे कि जन्म के समय मनुष्य पूर्ण रूप से शुद्ध] बुद्ध एवं मुक्त होता है। उस समय उसकी कोई पहचान नहीं होती।
उसे तो पहचान देने के लिए उसका काल्पनिक नामकरण कर दिया जाता है। कल्पना से रखे इस नाम से उसका आत्मस्वरूप खो जाता है तथा वह पंचमहाभूतों की इस देह को ही अपना मानने लगता है। यही दृष्टा द्वारा दृश्य को देखने की भूल का अचूक उदाहरण है। यह भूल मूलत: अविद्या के कारण उत्पन्न होती है तथा अविद्या अज्ञान के कारण। वस्तुत: दृष्टा और दृश्य ही अविद्या के मूल कारण हैं तथा दृष्टा और दृश्य का संयोग ही संताप उत्पन्न करता है। यथार्थ में तो इन दोनों का संयोग हो ही नहीं सकता किन्तु माया का आवरण अविद्या के माध्यम से इस संयोग के होने का अहसास दिलाता है जो निरा भ्रम है। दृष्टा और दृश्य का संयोग तो हो ही नहीं सकता क्योंकि दृष्टा चैतन्य है जबकि दृश्य जड़ है] दृष्टा निर्विकार है और दृश्य विकारी है।
अब प्रष्न उठता है कि अविद्या क्या है। सांई का पथ अविद्या को जानने के लिए विद्या को समझने की उत्सुकता पर बल दिता है और कहता है कि जो विद्या नहीं है वही तो अविद्या कहलाती है। बाबा ने इस ओर उल्लेेख करते हुए बताया कि हम नित्य कर्मों में तीन अवस्थाओं से गुजरते हैं] जाग्रत] गहरी निद्रा तथा स्वप्न। निद्रा की अवस्था में हम कुछ भी ग्रहण नहीं करते इसीलिए कहते हैं जो सोवत है सो खोवत है। इसे अग्रहण की अवस्था भी कहा जाता है। अत: निद्रावस्था ही अविद्या की अवस्था कहलाती है। जिस प्रकार निद्रा में हम भोजन के ग्रास का एक अंष अथवा जल की एक बूंद भी ग्रहण नहीं कर पाते ठीक उसी प्रकार हम ज्ञान रूपी आहार को भी मन मस्तिष्क में ग्रहण नहीं कर पाते और यही अग्रहण कहलाता है जो अविद्या उत्पन्न करता है।
जाग्रत एवं स्वप्न में हम जो ग्रहण करते हैं उन पदार्थों की कोई सत्ता नहीं है और उन्हें असत् माना गया है। सत् व सत्ता रूप व आकार से परे हैं जो ज्ञान की जननी हैं तथा इसके अस्तित्व से ही विद्या की प्राप्ति सम्भव है। कहने का तात्पर्य यह है कि ये तीनों अवस्थायें ही अविद्या की स्त्रोत हैं तथा दृष्टा और दृश्य के संयोग को दर्षाती हैं। इन सबसे ऊपर की अवस्था को तुरीयावस्था के नाम से जाना जाता है। यही ज्ञान एवं विज्ञान की अवस्था है जो पतमतत्व की अनुभूति कराती है तथा दृष्टा की स्वरूप स्थिति को दर्शाती है। यही विद्या है। अन्तत: सांई के पथ की ओर चलो और सुखी रहो।
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