भक्त प्रवर ने सोचा कि क्यों नहीं माँ उमा (उनकी लड़की का नाम)-से ही सहायता लेकर बेड़ा बाँध लिया जाय। उन्होंने ‘माँ उमा, माँ उमा’ कहकर पुकारा। माँ उमा (उनकी लड़की) उस समय अपनी सखियों के घर खेलने गयी थी। उनको इसका क्या पता था। वे तो दो-चार बार माँ उमा को पुकार करअपने कार्य में लग गये। सङ्गीत उनके हृदय से नि:सृत हो रहा था, जिसमें उनकी तपी-तपायी भक्ति का भाव-स्रोत फूट रहा था और वे थे भाव में तल्लीन।
इस पार से डोरी को उन्होंने दिया, परंतु उस ओर से डोरी तो आनी ही चाहिये। नहीं तो, बेड़ा बँधता किस तरह ! भगवती उमा ने अपने बेटे के कष्ट एवं निश्छलता को देखा और माँ दौड़ पड़ी संतान की मदद के लिये। फिर तो क्या था। दोनों ओर से डोरी आ-जा रही थी और इस तरह वह बेड़ा बँधकर सङ्गीत-लहरी के शेष होते-होते तैयार हो गया।
माँ की कैसी विडम्बना ? संतान की पुकार पर क्षण भर में दौड़ पड़ना और फिर आँखों से ओझल! ठीक उसी समय आती है उनकी कन्या माँ उमा। उमा ने आते ही आश्चर्य से पूछा कि ‘ बाबा! क्या ही बढ़ियाँ बेड़ा बाँधा है आपने, कैसे आपसे अकेले ऐसा सम्भव हो पाया। पिता ने स्मित हँसी हँसकर कहा कि ‘बेटी ! बिना तेरी मदद के यह कैसे सम्भव हो पाता, तूने ही तो इस ओर से डोरी दे-देकर मेरी सहायता की और तभी तो यह सुन्दर बेड़ा बँधकर सामने है।
कन्या के आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा, जब उसने अपनी मदद की बातें सुनीं तब बतलाया कि वह तो अपनी सहेलियों के साथ खेल रही थी। वह तो अभी-अभी बेड़ा के बँध जाने पर आयी है। पहले तो रामप्रसाद जी ने सहसा विश्वास ही नहीं किया। परंतु कन्या के बार-बार कहने पर उनको बड़ा ही आश्चर्य हुआ और तब भक्त ने समझा कि भगवती उमा ने ही आकर उनकी सहायता की थी और भक्त प्रवर फूट-फूटकर रोने लगे एवं सङ्गी तल हरी फिर पूर्व की तरह प्रवाहित हो चली।
यह उनके जीवन की एक सच्ची किंतु अलौकिक घटना है, जिसका उनके एक तत्सम्बन्धी सङ्गीत से भी पता चलता है-