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सद्‌गुरु के सतत सुमिरन-भजन से आत्म-साक्षात्कार – Self-Interview with Sadhguru’s Continuous Sumiran-Bhajan

सद्‌गुरु के सतत सुमिरन-भजन से आत्म-साक्षात्कार

लेखक श्री श्री १०८ श्रीस्वामी सतगुरु सरनानंदजी महाराज परमहंस
                      परमात्मा के सगुण रूप सद्‌गुरु-शरीरी परमात्मा हैं। वे ज्ञान स्वरूप हैं। पराविद्या के जिज्ञासुओं के लिए परमात्मा स्वरूप समय के सद्‌गुरु की शरण में जाना इसलिए भी आवश्यक है कि जन्म मरण के बंधन के कारणरूप कर्म श्रृंखला को पूर्णरूप से समाप्त करने की क्षमता केवल समय के सद्‌गुरु में ही है, किसी कथा,प्रवचन, तप, जप, योग, यज्ञ से कर्म नहीं जलते उन्हें तो ज्ञान स्वरूप सद्‌गुरु ही जलाते हैं। गीता में कहा गया है-
                  यथैधांसि समिद्धोग्निर्भस्मसात्कुरूतेअर्जुन ।
                  ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरूते तथा ॥
अर्थात जैसे प्रज्जवलित अग्नि ईंधनों को जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को जलाकर भस्म कर देती है।
यह ज्ञान गुरु प्रदत्त ज्ञान है, यही गुरुदीक्षा में प्राप्त “नाम” है, जिसे साधकर सद्‌गुरु का दिव्य दर्शन प्राप्त होता है और उसी से कर्मो का नाश होता है। यह ज्ञान वेद, शास्त्र या किसी धर्मग्रन्थ में नही है, यह ज्ञान गुरु के शब्द में है क्योंकि पराविद्या में ज्ञान व ज्ञानी अभेद होते है, जिसे परब्रम्ह का ज्ञान हो गया वही परब्रम्ह हो गया “प्रज्ञान ब्रम्ह”। अतः अन्य विघि से प्राप्त ज्ञान परोक्ष ज्ञान है परन्तु गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान को अपरोक्ष ज्ञान कहते है, यह इन्द्रियातीत होने से अनिर्वचनीय है, अनुभूति का विषय है, इसलिए इसे अपरोक्षानुभूति कहते हैं।
यह पढ़ा नही जाता, सुना नहीं जाता, अन्तर्चक्षुओं से दर्शनीय होता है। इसलिए तो कबीर साहब ने कहा है–
                जग कहता कागद की लेखी । कबीरा कहता आँखो देखी ॥
क्योंकि वह ज्ञान कागद की लिखी हो ही नहीं सकता, कागद में अक्षर है और वह तो निरक्षर है, कागद पर कैसे आयेगा।
                काजी कथे कतेब कुराना पण्डित वेद पुराना ।
                वह अक्षर तो लखो न जाई मात्रा होई न काना॥
                नादी वादी पढ़ना गुनना बहु चतुराई खीना।
                वह कबीर सो परै न परलय नाम तत्व जेहि चीन्हा॥
पराविद्या के क्षेत्र में पढ़ाई-लिखाई, बौद्धिक क्षमता तथा चातुर्य कुछ काम नहीं आता केवल सद्‌गुरु के भजन, सुमिरन, सेवा से उनकी प्रसन्नता, कृपा के प्रसाद स्वरूप जब नाम तत्व की पहचान, या दर्शन हो जाता है तो अमरत्व प्राप्त हो जाता है। महाप्रलय में भी गुरुभक्त का नाश नहीं होता । नाम तत्व को पहचानना ही ज्ञान-दर्शन है। सद्‌गुरु की दिव्य देह भी ज्ञान स्वरूप है अतः उनके श्रीमुख से निकले वचन से ही नहीं उनके दिव्य तन से भी ज्ञान धारा प्रवाहित होती रहती है, उनका हर कार्य, व्यवहार आत्मज्ञान की ज्योति से प्रकाशित रहता है। इसी को भक्ति भाव से देखना, ग्रहण करना ज्ञान का  प्रत्यक्ष दर्शन है।
श्रीसद्‌गुरु महाराज के मुखार्विन्द से हर वक्त सत्संग रूपी ज्ञानामृत की वर्षा होती रहती है तथा उनकी मनोहर रूप से ज्ञान रश्मियाँ निकला करती हैं। इनके सुनने और देखने से(गुरु का दर्शन करने से) मन निर्मल हो जता है, आन्तरिक शुद्धि के कारण साधक निर्विकार हो जाता है तथा कर्मो का नाश होता रहता है। पिछले कर्म भी धीरे-धीरे दग्ध हो जाते है। आध्यात्मिक ज्ञान सुदृढ़ होता चला जाता है। साधक दैवी सम्पदाओं या सन्त-आचरण से युक्त होता है, इस प्रकार उसका बाह्याभ्यान्तर सब कुछ पवित्र बन जाता है। गुरु चरणों में सर्वस्व समर्पण के कारण सांसारिक प्रपंचों के भार से मुक्त होकर हल्का महसूस करने लगता है। सद्‌गुरु के सान्निध्य, उनके सत्संग, उनके दर्शन से तथा सबसे बढ़कर उनकी कृपा से उसके लिए, सभी आध्यात्मिक रहस्य खुलने लगते हैं। प्रेम की परावस्था जिसे प्रेमाभक्ति कहते हैं प्राप्त कर लेने पर वह सदा के लिए सद्‌गुरुदेव से अभेद स्थिति प्राप्त कर लेता है, उन्ही में विलीन हो जाता है। सद्‌गुरु उसे अपना स्वरूप बना लेते हैं। कहा गया है–
                    कीट न जाने भृंग को कर ले आप समान ।
परमपिता परमात्मा की असीम कृपा से ही सन्त सद्‌गुरु प्राप्त होते है। सद्‌गुरु की ही कृपा परमात्मा की कृपा है। सद्‌गुरु को प्राप्त कर उनके भजन, सुमिरन, सेवा से ही भक्ति हाथ लगती है जो सभी पापों की विनाशक है।
                   जब द्रवै दीनदयाल राघव साधु संगति पाइये।
                   जेहि दरस परस समागमादिक पाप रासि नसाइये॥
जीव जब संसार में कर्म भोगते-भोगते व्याकुल हो जाता है और सांसारिक बन्धनों से छुटकारा पाने की तीव्र लालसा उसके ह्रदय में पैदा होती है तो उसके भीतर से यह करूण पुकार उठती है कि हे मालिक ! अब मैं जन्म-मृत्यु के चक्र में घूमते-घूमते अतिशय दुख झेल चुका हूँ, मैं थक गया हूँ, असहाय हो चुका हूँ, आप दयासागर हैं, मुझ पर कृपा करके इस भव-वारिधि से पार करें। जीव की करूण पुकार यदि किसी घटना विशेष की प्रतिक्रिया न होकर वास्तविक है तो प्रभु उस पुकार पर अवश्य द्रवित होकर तुरन्त उसे उबारने के लिए आ ही जाते हैं। स्वामी विवेकानन्दजी ने कहा है–” ज्यों ही आत्मा की धर्म पिपासा प्रबल होती है, त्यों ही धर्मशक्ति संचारक पुरूष को उस आत्मा की सहायता के लिए आना ही चाहिए और वे आते भी हैं।” धर्मशक्ति संचारक पुरूष अन्य कोई नहीं, स्वयं नररूप में परमात्मा सद्‌गुरु ही हैं। वें ही उस भाग्यशाली जीव को अपनी शरण में लेकर उसके कर्म के अंक मिटाते हैं, उसे ताप-पाप से रहित करतें हैं, उसके कर्णधार बनकर उसे संसार सागर से पार करते हैं।
                     भाग्यवन्त वह जीव है जो गुरु शरण में आय ।
                     आपा भाव मिटाय कर चरणन माहिं समाय ॥
                     नाम सुमिर गुरुदेव का हीये जीव निःशंक ।
                     त्राण मिले तिहुँ ताप से मिटे कर्म को अंक ॥
                     सतगुरु ही हैं जीव के परम हितू औ मीत ।
                     तातें निसदिन कीजिये गुरु चरणन संग प्रीत ।
                     मम ह्रदयेश गुरुदेव जी करूणा के अवतार ।
                     कर्णधार बनकर प्रभो करते भव से पार ॥
परमात्मा सद्‌गुरु में एक विलक्षण अलौकिक शक्ति का ऐसा आकर्षण होता है कि उनके प्रथम दर्शन से ही जीव को पूर्ण विश्वास हो जाता है कि जिसकी मुझे जन्म-जन्मान्तरों से खोज थी वह मेरे देवता मानव शरीर में मेरे सामनें हैं, साथ ही गुरु से दीक्षा ग्रहण करते ही उसे इस सत्य की अनुभूति हो जाती है कि यही महामंत्र “नाम” मेरे भव रोगों की प्रमाणिक औषधि है। उसी दिन उसके ह्रदय में सद्‌गुरु के प्रति एक दिव्य प्रेम का उदय होता है जो गुरु के उपदेशित मार्ग पर चलकर साधना रत होने पर प्रतिदिन प्रगाढ़ होते-होते पराभक्ति का रूप ग्रहण करता है। श्रीसद्‌गुरु की दीक्षा द्वारा साधक के अंत:करण में ’नाम’ रूपी बीज भजन, सुमिरन, सेवा रूपी जल से सिंचित होकर तत्काल अंकुरित हो जाता है तथा  फूलने फलने के लिये समय-समय पर सद्‌गुरु के सत्संग रूपी अमृत रस की प्राप्ति होती रहती है । एक न एक दिन प्रभु मिलन रूपी इसका सुफल अवश्य मिलता है। 
                          सुमिरन मारग सहज का सतगुरु दिया बताय ।
                          स्वाँस स्वाँस सुमिरन करो एक दिन मिलिहैं आय ॥
सद्‌गुरु के नाम का स्वाँस-स्वाँस के साथ प्रेम श्रद्धा और सावधानी के साथ जप होता रहे तो एक न एक दिन ह्रदय के भीतर दर्शन अवश्य होगा। नाम का जप और रूप का ध्यान दोनों साथ-साथ चलना ही सच्चा भजन, सच्चा सुमिरन है, परन्तु यदि नाम का जप होता रहे तथा रूप का स्पष्ट ध्यान न हो तो भी घबड़ाने की या निराश होने की आवश्यकता नहीं है । नाम की पुकार अंन्तःकरण से होती रहेगी तो नामी को अभी नही, कभी आना ही आना है । साधना पथ पर चलते रहिये सद्‌गुरु का साहाय्य अवश्य मिलता रहेगा।
                           जौं एहि पंथ चलै मन लाई । तौं हरि काहे न होंहि सहाई ॥
श्री सद्‌गुरु महाराज ही भक्ति तत्व के ज्ञाता है जो भक्त प्रेम, श्रद्धा के साथ भजन, सुमिरन, सेवा, पूजा, ध्यान किया करता है उसे अपनी भक्ति का अधिकारी बना देते हैं तथा भक्त मालिक की शरण में जाकर उनकी कृपा की शीतल छाया में रहकर अपनी सभी लौकिक, पारलौकिक कामनाओं को पूरा करके शाश्वत सुख की प्राप्ति कर लेता है। बिना सद्‌गुरु की शरण ग्रहण किये अन्य किसी भी साधन से जीव का कल्याण नहीं हो सकता।
                          ज्ञान ध्यान जप जोग अरु पढ़िये बेद पुरान ।
                          बिन गुरु भक्ति जीव का कबहुँ न हो कल्याण ॥
श्री सद्‌गुरु महाराज की भक्ति प्राप्त करने के लिये श्रद्धा और प्रेम के साथ निश्छल निष्काम सेवा ही सर्वोतम साधन है। उनकी हर आज्ञा का संशय रहित होकर अक्षरशः पालन करना, उनकी अमृत वाणी का सप्रेम श्रवण, उनके निर्देशानुसार आचरण और व्यवहार बनाना ही वह उपाय है जिससे सद्‌गुरुदेव की कृपा प्राप्त होती है और उनके प्रति प्रेम उत्तरोत्तर प्रगाढ़ हो जाता है। गुरु भक्ति से ही आध्यात्मिक संपदा प्राप्त होती है और मानव जीवन का उद्देश्य पूरा होता है। इसलिये सन्त महापुरुष यही शिक्षा देते हैं कि हे भाई ! यदि तू भगवद भक्ति चाहता है तो हमारी यह सीख अवश्य मान ले कि तू भक्तो के प्रति प्रभु के उपकार मय कार्यो को ह्रदय में धारण कर तथा जाकर तत्वदर्शी सद्‌गुरु की सेवा कर जिन्होंने अपना आपा चेत लिया है या जिन्होंने आत्मसाक्षात्कार कर लिया है।
                              मन मेरे मानहि सीख मेरी । जौं तैं चहति भगति हरि केरी ॥
                               उर आनहि रघुपति कृति जेते । सेवहि ते जे अपनपौ चेते ॥
                                               
( उपरोक्त लेख श्री श्री १०८ श्रीस्वामी सतगुरु सरनानंदजी महाराज परमहंस द्वारा रचित “श्रीसद्‌गुरु‍-कृपा का महत्व” नामक साहित्य का अंश है।)

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