एक अक्षर से तीन उपदेश
एक बार देवता, मनुष्य और असुर-ये तीनों ही ब्रह्माजी के पास ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याध्ययन करने गये। कुछ काल बीत जाने पर उन्होंने उनसे उपदेश (समावर्तन) ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की। सबसे प्रथम देवताओं ने कहा – प्रभो ! हमें उपदेश कीजिये। प्रजापति ने एक ही अक्षर कह दिया ‘द’। देवताओं ने कहा ‘हम समझ गये।’ हमारे स्वर्गादि लोकों में भोगों की ही भरमार है। उन्हीं में लिप्त होकर हम अंत में स्वर्ग से गिर जाते हैं, अतएव आप हमें ‘द’ से ‘दमन’ अर्थात् इन्द्रिय संयम का उपदेश कर रहे हैं। तब प्रजापति ब्रह्मा ने कहा, ठीक है, तुम समझ गये।
फिर मनुष्यों ने प्रजापति से कहा – आप हमें उपदेश कीजिये।’ प्रजापति ने उनसे भी ‘द” इस एक अक्षर कों ही कहा और पूछा कि “क्या तुम समझ गये ?’ मनुष्यों ने कहा–‘ जी, समझ गये, आपने हमें दान करने का उपदेश दिया है; क्योंकि हम लोग जन्मभर संग्रह करने की ही लिप्सा में लगे रहते हैं, अतएव हमारा दान में ही कल्याण है।’ तब प्रजापति ने कहा ठीक है, मेरे कथन का यही अभिप्राय था।
अब असुरों ने उनके पास जाकर उपदेश को प्रार्थन की। प्रजापति ने इन्हें भी ‘द” अक्षर का ही उपदेश किया। असुरों ने सोचा, ‘हम लोग स्वभाव से ही हिंसक हैं, क्रोध और हिंसा हमारा नित्य का सहज व्यापार है। अतएव नि:सन्देह हमारे कल्याण का मार्ग एकमात्र ‘दया’ ही है। प्रजापति ने हमें उसी का उपदेश किया है, क्योंकि दया से ही हम इन दुष्कर्मो कों छोड़कर पाप ताप से मुक्त हो सकते हैं।!’ यों विचारकर वे जब चलने को तैयार हुए, तब प्रजापति ने उनसे पूछा ‘ क्या तुम समझ गये ?! असुरों ने कहा – प्रभो! आपने हमें प्राणि मात्र पर दया करने का उपदेश दिया है।’ प्रजापति ने कहा, ‘ठीक है, तुम समझ गये।!
प्रजापति के अनुशासन की प्रतिध्वनि आज भी मेघ गर्जना में हमें ‘द, द, द’ के रूप में अनुदिन होती सुनायी पड़ती है। अर्थात् भोग प्रधान देवताओ ! इन्द्रियों का दमन करो। संग्रह प्रधान मनुष्यो! भोग सामग्री का दान करो। और क्रोध प्रधान असुरो। जीवमात्र पर दया करो। इससे हमें दमन, दान और दया – इन तीनों को सीखना तथा अपनाना चाहिये।