वृत्रासुरने देवराज इन्द्रके साथ महायुद्ध करते हुए उनसे कहा–“देवराज! भगवान् विष्णुने मुझे मारनेके लिये तुम्हें आज्ञा दी है, इसलिये तुम मुझे वज्रसे मार डालो। मैं अपने मनको भगवान्के चरणोंमें विलीन कर दूँगा।जो पुरुष. – – हो गये हैं और उनके चरणोंके अनन्य प्रेमी हैं, उनको भगवान् स्वर्ग, पृथ्वी अथवा पातालकी सम्पत्ति नहीं देते; क्योंकि इनसे परम आनन्दकी प्राप्ति न होकर द्वेष, अभिमान, उद्वेग, मानस पीड़ा, कलह, दुःख और परिश्रम ही हाथ लगते हैं। मुझपर -+अत्यन्त कृपा है, इसीसे वे मुझे “2 सम्पत्तियाँ नहीं दे रहे हैं। मेरे प्र – कृपाका तो भव उनके अकिंचन भक्तोंको ही होता है। * उसे नहीं जान पाते। वे प्र अपने भक्तके अर्थ, धर्म और कामसम्बन्धी प्रयासोंको असफल करके ही उनपर कृपा करते हैं। मैं इसी कृपाका अधिकारी ॥।* यों कहते-कहते वृत्रासुरने भगवानूसे प्रार्थना की-प्रभो! मेरा मन निरन्तर आपके मड्भलमय गुणोंका ही स्मरण करता रहे। मेरी वाणी उन गुणोंका ही गान करे और शरीर आपकी सेवामें ही लगा रहे। सर्वसौभाग्यनिधे ! मैं आपको छोड़कर स्वर्ग, ब्रह्मपद, भूमण्डलका साम्राज्य, पातालका एकच्छतन्न राज्य, योगकी सिद्धियाँ–यहाँतक कि अपुनर्भव मोक्ष भी नहीं चाहता। जैसे, जिनके पाँख नहीं उगे हैं, ऐसे माँपर निर्भर रहनेवाले पक्षियोंके बच्चे अपनी माँकी बाट देखते रहते हैं, जैसे भूखे बछड़े अपनी गैया-मैयाका दूध पीनेके लिये आतुर रहते हैं, जैसे वियोगिनी पत्नी अपने प्रवासी प्रियतमसे मिलनेके लिये नित्य उत्कण्ठित रहती है, वैसे ही कमललोचन ! मेरा मन आपके लिये छटपटा रहा है। मुझे मुक्ति न मिले, मेरे कर्म मुझे चाहे जहाँ ले जायें; परंतु नाथ! मैं जहाँ-जहाँ जिस-जिस योनिमें जाऊँ, वहाँ आपके प्यारे भक्तोंसे ही मेरी प्रीति -मैत्री रहे। जो लोग आपकी मायासे देह-गेह और स्त्री-पुत्रादिमें आसक्त हैं, उनके साथ मेरा कभी किसी प्रकारका भी सम्बन्ध न हो।’