परोपकार (दान) महान् धर्म
दुरात्मा रावण ने मारीच कों माया-मृग बनने के लिये बाध्य किया। माया से स्वर्ण-मृग बने मारीच का आखेट करने धनुष लेकर श्रीराम उसके पीछे गये। वह उन्हें दूर वन में ले गया और अन्त में जब उनके बाण से मरा, तब मरते-मरते भी ‘हे लक्ष्मण!” पुकारकर उसने छल किया। उस आर्तस्वर को सुनकर श्रीजानकी व्याकुल हो गयीं। उनके आग्रह से लक्ष्मणजी को अपने ज्येष्ठ भ्राता का पता लगाने वन में जाना पड़ा।
पंचवटी में श्री वैदेही को अकेली देखकर रावण वहाँ आया और उसने बलपूर्वक उन जनक कुमारी को रथ में बैठा लिया। श्रीसीताजी को रथ में बैठाकर राक्षसराज रावण शीघ्रता से भागा जा रहा था।
वे श्री मैथिली आर्त-क्रन्दन कर रही थीं। उनकी वह आर्त-क्रन्दन-ध्वनि पक्षिराज जटायु ने भी सुनी। जटायु वृद्ध थे उनको पता था कि रावण विश्वविजयी है, अत्यन्त क्रूर है और ब्रह्माजी के वरदान के प्रभाव से अजेय प्राय है। जटायु समझते थे कि वे न रावण को मार सकते हैं न पराजित कर सकते हैं।
श्रीजनक नन्दिनी को वे छुड़ा सकेंगे उस क्रूर राक्षस से, इसकी कोई आशा न उन्हें थी न हो सकती थी। उलटे रावण का विरोध करने पर मृत्यु निश्चित थी। परंतु सफलता विफलता में चित्त को समान रखकर प्राणी को अपने कर्तव्य का दृढ़ता से पालन करना चाहिये। यही जटायु ने किया। वे पूरे वेग से रावण पर टूट पड़े।
उसका रथ अपने आधघातों से तोड़ डाला। अपने पंजों तथा चोंच की मार से रावण के शरीर को नोच डाला। पर अन्त में रावण ने तलवार निकालकर उनके पंख काट दिये। जटायु भूमि पर गिर पड़े। रावण श्रीजानकी को लेकर आकाश मार्ग से चला गया।
मारीच को मारकर श्रीराम लौटे। लक्ष्मण उन्हें मार्ग में ही मिल गये। कुटिया में श्रीजानकी को न देखकर थे व्याकुल हो गये। नाना प्रकार का विलाप करते हुए वैदेही को ढूँढ़ते आगे बढ़े। मार्ग में उनकी प्रतीक्षा करते जटायु अन्तिम स्थिति में मृत्यु के क्षण गिन रहे थे। मर्यादा पुरुषोत्तम को उन्होंने विदेह-नन्दिनी का समाचार दिया। उस दिन श्रीराघवेन्द्र ने नरनाटय त्याग कर कहा-‘तात! आप अपने शरीर को रखें! मैं आपको अभी स्वस्थ कर दूँगा।
जटायु इसे कैसे स्वीकार कर लेते। श्रीराम सम्मुख खड़े हों, मृत्यु के लिये ऐसा सौभाग्यशाली क्षण क्या बार-बार प्राप्त होता है? वे त्रिभुवन के स्वामी जटायु को गोद में लेकर अपनी जटाओं से उनके रक्त में सने शरीर की धूलि पोंछ रहे थे, उन्हें अपने अश्रुओं से स्रान करा रहे थे। वे अनुभव कर रहे थे कि सर्व समर्थ होने पर भी वे जटायु को कुछ नहीं दे सकते।
नेत्रों में अश्रु भरकर उन श्रीराघवेन्द्र ने कहा-
‘तात कर्म निज लें गति पाई ॥
परहित बस जिन्हे के मन माही ।
तिनह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ७
‘जटायु! तुमने तो अपने कर्म से ही परम गति प्राप्त कर ली है। तुम पूर्ण काम हो गये हो, तुम्हें में दे क्या सकता हूँ।
शरीर त्यागकर जटायु जब चतुर्भुज दिष्य भगवत्पार्षद देह से बैकुण्ठ चले गये, तब श्रीराम ने अपने हाथों उनके उस गीध देह का बड़े सम्मानपूर्वक अग्नि-संस्कार किया।