सत्य-पालन की दृढ़ता
अयोध्या-नरेश महाराज हरीशचंद्र ने स्वपन में एक ब्राह्मण को अपना राज्य दान कर दिया था। जब वह ब्राह्मण प्रत्यक्ष आकर राज्य माँगने लगा, तब महाराज ने उसके लिये सिंहासन खाली कर दिया। परंतु ब्राह्मण कोई साधारण ब्राह्मण नहीं था और न उसे राज्य की भूख थी। वे तो थे ऋषि विश्वामित्र, जो इन्द्र की प्रेरणा से हरीशचंद्र के सत्य की परीक्षा लेने आये थे। राज्य लेकर उन्होंने राजा से इस दान की साड्ता के लिये एक सहख्र स्वर्ण मुद्राएं दक्षिणा की और माँगीं। दान किये हुए राज्य का तो सब वैभव, कोष आदि ऋषि का हो ही गया था, राजा को वह अतिरिक्त दक्षिणा देने के लिये एक महीने का समय उन्होंने दिया।
जो अब तक नरेश था, वह अपनी महारानी तथा राजकुमार के साथ साधारण वस्त्र पहिने राजभवन से दरिद्र के समान निकला। उसके पास एक फूटी कोड़ी भी नहीं थी और न था पाथेय ही। अपने दान किये राज्य का अन्न-जल उसके लिये वर्जित था। वह उदार धर्मात्मा भगवान् विश्वनाथ की पुरी काशी में पहुँचा। भरे बाजार में उसने अपनी पत्नी को दासी बनाने के लिये बेचने की पुकार प्रारम्भ की। महारानी शैब्या, जो सैकड़ों दासियों से सेवित होती थीं, धर्मनिष्ठ पति द्वारा बेच दी गयीं।
एक ब्राह्मणने उन्हें खरीदा। बड़ी कठिनाई से उस ब्राह्मण ने शैब्या को अपने छोटे-से पुत्र रोहिताश्व को साथ रखने की अनुमति दी। परंतु महारानी को बेचकर भी हरीशचंद्र केवल आधी ही दक्षिणा दे सके विश्वामित्र को शेष आधी के लिये उन्होंने स्वयं अपने को चाण्डाल के हाथों बेचा।
महारानी शैव्या अब ब्राह्मण की दासी थीं। पानी भरना, बर्तन मलना, घर लीपना, गोबर उठाना आदि सब कार्य ब्राह्मण के घर का उन्हें करना पड़ता था। उनका पुत्र – अयोध्या का सुकुमार युवराज रोहिताश्व अपनी नन्ही अवस्था में ही दासी-पुत्र का जीवन व्यतीत कर रहा था। उधर राजा हरिश्वन्द्र को चाण्डाल ने श्मशान रक्षक नियुक्त कर दिया था। जिनकी सेवा में सेवकों और सैनिकों की भीड़ लगी रहती थी। वे अब हाथ में लाठी लिये अकेले घोर श्मशान भूमि में रात्रि को घूमा करते थे। जो कोई वहाँ शव-दाह करने आता था, उससे ‘कर’ लेना उनका कर्तव्य बन गया था।
विपत्ति यहीं नहीं समाप्त हुई। रोहिताश्र को सर्प ने डस लिया। अब शैब्या के साथ भला, श्मशान जाने वाला कौन मिलता। अपने मृत पुत्र को उठाये वे देवी रोती चिल्लाती रात्रि में अकेली ही श्मशान आयीं। उनका रुदन सुनकर हरीशचंद्र भी लाठी लिये “कर” लेने पहुँच गये उनके पास।
मेघाच्छन्न आकाश, घोर अन्थकारमयी रजनी किंतु बिजली चमकी और उसके प्रकाश में हरीशचंद्र ने अपनी रानी को पहचान लिया। पुत्र का शव पड़ा था सामने और पतिव्रता पत्नी क्रन्दन कर रही थी। परंतु हरीशचंद्र ने हृदय को वज्र बना लिया था। हाय रे कर्तव्य! कर्तव्य से विवश वे बोले -‘ भद्दे! कुछ ‘कर’ दिये बिना तुम पुत्र के देह का संस्कार नहीं कर सकतीं। मेरे स्वामी का आदेश है कि मैं किसी को भी ‘कर’ लिये बिना यहाँ शव-दाहादि न करने दूँ। मेरा धर्म मुझे विवश कर रहा है।!
शैब्या – क्या ‘कर’ दें! क्या धरा था उस धर्म मयी नारी के पास। पुत्र के मृत शरीर को ढकने के लिये उसके पास तो कफन भी नहीं था। अपने अंचल से ही वह उसे ढककर ले आयी थी। परंतु पति के धर्म की रक्षा तो अपने प्राण देकर भी उसे करनी थी। उसने अपनी आधी साड़ी ‘कर’ के रूप॑ में देने का विचार कर लिया। हरीशचंद्र ने फाड़ लेना चाहा उसकी साड़ी।
परीक्षा समाप्त हो गयी। श्मशान भूमि दिव्य आलोक से आलोकित हो उठी। भगवान् नारायण ने प्रकट होकर हरीशचंद्र का हाथ पकड़ लिया था। सत्य-स्वरूप श्रीनारायण हरीशचंद्र की सत्यनिष्ठा से पूर्ण संतुष्ट हो गये थे। वे कह रहे थे – राजन्! अब तुम पत्नी के साथ वैकुण्ठ पधारो।
राजन्! आपने अपनी सेवा से मुझे संतुष्ट कर लिया। आप अब स्वतन्त्र हैं। हरीशचंद्र ने देखा कि उनका स्वामी चाण्डाल और कोई नहीं, वे तो साक्षात् धर्मराज हैं।
उस समय वहाँ महर्षि विश्वामित्र भी आ पहुँचे। वे कह रहे थे – बेटा रोहित उठ तो।’ रोहिताश्व उनके पुकारते ही निद्रा से जगे की भाँति उठ बैठा। महर्षि ने कहा – राजन्! रोहित अब मेरा है ओर उसे मैं अयोध्या के सिंहासन पर बैठाने ले जा रहा हूं।