अभिमान का पाप
(ब्रह्मा जी का दर्पभड़)
हरि माया कर अमित प्रभावा।
बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा॥
ब्रह्मा जी के मोह तथा गर्वभञ्जन की भागवत, ब्रह्मवैवर्त, शिव, स्कन्द आदि पुराणों में बहुत-सी कथाएँ आती हैं। अकेले ब्रह्मवैवर्त पुराण में एकत्र कृष्ण जन्मखण्ड के १४८ वें अध्याय में ही उनके गर्वभञझ्न की कई कथाएँ हैं। एक तो उनमें से अत्यन्त विचित्र है।
कथा है कि एक बार स्वर्ग की अप्सरा मोहिनी ब्रह्मा जी पर अत्यन्त आसक्त हो गयी। वह एकान्त में उनके पास गयी और उनके आसन पर ही बैठकर उनसे प्रेम दान की प्रार्थना करने लगी। ब्रह्माजी को उस समय भगवान् स्मरण आये और भगवत्कृपा से उनका मन निर्विकार रहा और वे मोहिनी को ज्ञान की बातें समझाने लगे। पर वह इसे न सुन अवाञ्छनीय चेष्टा करने लगी।
ब्रह्माजी ने भगवान् का स्मरण किया और तब तक सप्तर्षिगण सनकादि के साथ वहाँ पहुँच गये। पर दुर्देववशात् अब ब्रह्माजी को अपनी क्रिया, भक्ति तथा शक्ति का गर्व हो गया। ऋषियों ने जब मोहिनी के एकासन पर बैठने का कारण पूछा, तब ब्रह्माजी ने गर्व पूर्वक हँसकर कहा – यह नाचते-नाचते थककर पुत्री के भाव से मेरे पास बैठ गयी है।
ऋषि लोग समझ गये और थोड़ी देर बाद हँसते हुए चले गये। अब मोहिनी का क्रोध जाग्रत हुआ। उसने शाप दिया – तुम्हें अपनी निष्कामता का गर्व है और मुझ शरणागता का तुमने उपहास किया है। इसलिये न तो तुम्हारी संसार में कहीं पूजा होगी और न तुम्हारा यह गर्व ही रहेगा। वह तुरंत वहाँ से चलती बनी।
अब ब्रह्माजी को अपनी भूल का पता चला। वे दौड़े हुए भगवान् जनार्दन की शरण में वैकुण्ठ पहुँचे। वे अभी अपनी गाथा तथा शापादि कों बात सुना ही रहे थे, तब तक द्वारपाल ने प्रभु से निवेदन किया – ‘प्रभो! बाहर दरवाजे पर अमुक ब्रह्माण्ड के स्वामी अष्टमुख ब्रह्मा आये हैं और श्रीचरणों का दर्शन करना चाहते हैं। प्रभु की अनुमति हुई।
अष्ट मुख ब्रह्मा ने आकर बड़ी श्रद्धा से अत्यन्त दिव्य स्तुति सुनायी। ब्रह्माजी को इन ब्रह्मा के सामने अपनी विद्या, बुद्धि, शक्ति, भक्ति-सब नगण्य दिखी। तदनन्तर ये आठ मुख के ब्रह्माजी चले गये। इनके जाते ही दूसरे ही क्षण द्वारपाल ने कहा-प्रभो ! अमुक दरवाजे पर अमुक ब्रह्माण्ड के अधिनायक षोडशमुख ब्रह्मा उपस्थित हैं तथा श्रीचरणों का दर्शन करना चाहते हैं।!
भगवदाज्ञा से वे भी आये और उन्होंने पूर्वोक्त ब्रह्मा से भी उच्च श्रेणी की स्तुति सुनायी। इसी प्रकार एक एक करके षोडशमुख से लेकर सहख्रमुख ब्रह्मा तक पहुँचते गये और उत्तरोत्तर उत्कृष्टतर शब्दावलियों में अपना स्तोत्र सुनाते गये। उनकी योग्यता और निरभिमानता देखकर अपने को प्रभु के तुल्य ही मानने वाले ब्रह्माजी का गर्व गलकर पानी हो गया। फिर भगवान् ने गड्ढास्नान कराकर उनके गर्वजनित पाप की शान्ति करायी।