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निष्काम की कामना – इक्कीस पीढ़ियाँ तर गयीं

निष्काम की कामना – इक्कीस पीढ़ियाँ तर गयीं 

हिरण्यकशिपु जब स्वयं प्रह्मद को मारने के लिये उद्यत हुआ और क्रोधावेश में उसने सामने के खंभे पर घूसा मारा तब उसी खंभे को फाड़कर नृसिंह भगवान्‌ प्रकट हो गये और उन्होंने हिरण्यकशिपु को पकड़कर अपने नाखुनो से उसका पेट फाड़ डाला।

दैत्यराज के अनुचर प्राण लेकर भाग खड़े हुए। हिरण्यकशिपु की आँतों की माला गले में डाले, बार-बार जीभ लपलपाकर विकट गर्जना करते अड्भार-नेत्र नृसिंह भगवान्‌ बैठ गये दैत्यराज के सिंहासन पर। उनका प्रचण्ड क्रोध शान्त नहीं हुआ था। शंकर जी तथा ब्रह्माजी के साथ सब देवता वहाँ पधारे। सबने अलग-अलग स्तुति की।
Hrinyakashyap or bhagat parhlad ki kahani in hindi
लेकिन कोई परिणाम नहीं हुआ। ब्रह्माजी डरे कि यदि प्रभु का क्रोध शान्त न हुआ तो पता नहीं क्‍या अनर्थ होगा। उन्होंने भगवती लक्ष्मी को भेजा। किंतु श्रीलक्ष्मी जी भी वह विकराल रूप देखते ही लौट पड़ीं। उन्होंने भी कह दिया-इतना भयंकर रूप अपने आराध्य का मैंने कभी नहीं देखा। मैं उनके समीप नहीं जा सकती।
अन्त में ब्रह्माजी ने प्रहाद से कहा -बेटा! तुम्हीं जाकर भगवान्‌ को शान्त करो। प्रहाद को भय क्‍या होता है, यह तो ज्ञात ही नहीं था। वे सहजभाव से प्रभु के सम्मुख गये और दण्डवत्‌ प्रणिपात करते भूमि पर लोट गये। भगवान्‌ नृसिंह ने स्वयं उन्हें उठाकर गोद में बेठा लिया और वात्सल्य के मारे जिहा से उनका मस्तक चाटने लगे। उन त्रिभुवन-नाथ ने कहा – बेटा! मुझे क्षमा कर। मेरे आने में बहुत देर हुई,
इससे तुझे अत्यधिक कष्ट भोगना पड़ा। प्रहाद ने गोद से उतरकर हाथ जोड़कर श्रद्धापूर्ण गद्द-स्वर में प्रार्थना की। भगवान ने कहा – प्रह्माद! मैं प्रसन्न हूँ। तेरी जो इच्छा हो, वह वरदान माँग ले।! प्रह्ाद बोले – प्रभो! आप यह क्‍या कह रहे हैं? जो सेवक कुछ पाने की आशा से स्वामी की  सेवा करता है, वह तो सेवक ही नहीं है। आप मेरे परमोदार स्वामी
हैं ,और मैं आपका चरणाश्रित सेवक हूँ। यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो यही वरदान दें कि मेरे मनमें
कभी कोई कामना हो ही नहीं। ु भगवान्‌ सर्वज्ञ हैं। उन्होंने एवमस्तु कहकर भो
कहा–‘ प्रह्ाद! कुछ तो माँग ले!’ प्रह्ादने सोचा–‘ प्रभु जब मुझसे धार-थार माँगनेको कहते हैं तो अवश्य मेरे मनमें कोई-न-कोई कामना
है।’ अन्तमें उन्होंने प्रार्था कौनाथ! मेरे पिताने आपकी बहुत निन्‍दा की है और आपके सेवक-मुझको कष्ट दिया है। मैं चाहता हूँ कि वे इस पापसे छूटकर पवित्र हो जायें।’
भगवान्‌ नृसिंह हँस पड़े–‘प्रहाद! तुम्हारे-जैसा भक्त जिसका पुत्र हुआ वह तो स्वयं पवित्र हो गया। जिस कुलमें तुम-जैसे मेरे भक्त उत्पन्न हुए, उस कुलकी तो इक्कीस पीढ़ियाँ तर गयीं।’
अपनेको कष्ट देनेवालेकी भी दुर्गत न हो, यह एक कामना थी प्रह्मादके मनमें। धन्य है यह कामना। सच्चे भगवद्धक्तमें अपने लिये कोई कामना भला शेष कैसे रह सकती है। द
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