सिद्धार्थ जगह जगह भटक रहे थे। अपने सत्य की खोज के लिए। और उन्होंने सभी प्रकार के प्रयास किए, सभी प्रकार की उस समय की उपलब्ध भारतीय परम्पराओं में ज्ञान की जानकारी ली। उस मार्ग पर चले, मगर वहां पर उनके प्रश्नों का उत्तर नहीं मिल पा रहा था। और इसी प्रयास में छः साल बीत गए थे, तपस्या करते हुए। सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई। एक दिन कुछ स्त्रियां नगर से लौटते हुए वहां से निकली। जहां सिद्धार्थ तपस्या कर रहे थे। उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा। वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो। ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा। परन्तु तारों को इतना भी मत कसो कि टूट जाएं। यह बात सिद्धार्थ को जँच गई। वे मां गए, नियमित आहार विहार से ही योग सिद्ध होता है। अति किसी बात की अच्छी नहीं। किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है। और इसके लिए कठोर तपस्या करनी पड़ती है।
एक समय ऐसा आया जब उनको ज्ञान हुआ कि स्वयं के शरीर को कष्ट पहुंचा कर सत्य की खोज नहीं हो सकती है। और उन्होंने तपस्या और व्रत के तरीकों की निंदा की।
तो यहां पर एक बात तो साबित हो चुकी थीं कि इनके इस छः साल के अथक प्रयास ने काफी कुछ उन्हें अनुभव दिया। और काफी कुछ उन्हें इस लायक बना दिया कि वे अपने प्रश्नों का उत्तर ढूंढ़ सके। वहां पर उन्होंने जो एक प्रमुख अनुभव किया, जिसे हम मध्य मार्ग कहते हैं। उसकी भी अपनी एक विशिष्ट विशेषता थी। मध्य मार्ग में कुछ चीजें बहुत ही प्रभावशाली रूप से हमारे जीवन को प्रभावित करती हैं। मिसाल के तौर पर हमारे जीवन में होने वाली जो घटनाएं हैं। उनका हमारे ऊपर होने वाले प्रभाव।
यदि हमारे जीवन में एक ऐसी दुःख भरी घटना हो गई है। तो उसकी प्रक्रिया में हमें बहुत ज्यादा दुःखी होना चाहिये। अपने आप को बहुत ज्यादा दुःख पहुँचाना चाहिए। बहुत ज्यादा अपने आप को परेशान करना चाहिए। क्या ये सही है? या हमारे जीवन में कोई एक खुशी की घटना अगर घट गई है तो हमें उसमें बहुत ज्यादा खुशी मनानी चाहिए, बहुत ज्यादा आनन्द लेना चाहिए। तो इन दोनों भावों में मध्यम मार्ग का कहना है कि इन दोनों अवस्थाओं में आपको सम रहना है। समान स्तर पर आपको अवस्थाओं को महसूस करना है। क्योंकि आप अगर दुख में ज्यादा दुखी और सुख में ज्यादा सुखी का आप अनुभव नहीं लें तो इस बात की पूरी सम्भावना है कि दुख जो है वो आपके जीवन को पूरी तरह से नष्ट कर दे। तो उन्होंने कहा है कि जीवन के दुखों में भी हमें उसी स्थिति पर बने रहना चाहिए। जो जीवन के सुखों में हम रहें। दोनों में न बहुत ज्यादा खुश होने की आवश्यकता है और न ज्यादा दुखी होने की। और जीवन के दुखों में आप स्थिर रहकर, चीजों को समझ कर उनकी तीव्रता को कम कर सकते हैं। और जीवन में जो बहुत ज्यादा आपके लिए खुशी का माहौल आया है, उसके लिए बहुत ज्यादा उत्साह और इन चीजों से दूर रहकर आप इस अवस्था को समझ सकते हो। और यही अवस्था जो मध्यम पद की है, मध्यम मार्ग में रहने की है। यही अवस्था श्रेष्ठ मानी जाती है। पर जीवन में कई ऐसी घटनाएं होती हैं, जहां पर हम निर्णय बहुत उत्तेजनावश में लेते हैं। या बड़े निराशावादी माहौल में लेते हैं। हमको इन दोनों अवस्थाओं से दूर हो जाना है। ना ही हमें बहुत निराशावादि होना है और न ही हमें ज्यादा उत्साहित भी होना है। बल्कि हमें दोनों के भाव से निकल कर एक समभाव में आना है ओर उसी समानता के भाव में हमें सारी प्रतिक्रियाएं देनी हैं। जीवन के उसी स्तर पर समझना है। जीवन को उसी तरीके से महसूस करना है। जिस प्रकार से वहाँ पर उन्होंने बताया कि विणा के तारों को आप ज्यादा कसेंगे तो ये टूट जाएंगे। अर्थात आप जीवन में किसी भी चीज की अति करदें तो ये जीवन आपका नष्ट हो जाएगा। उसका विपरीत प्रभाव आप पर पड़ सकता है।
जिस प्रकार आप वीणा के तारों को ढीला छोड़ देंगे तो स्वर ही न निकलेगा।