महाराज सगरके साठ सहस््न पुत्र महर्षि कपिलका अपमान करके अपने ही अपराधसे भस्म हो गये थे। उनके उद्धारका केवल एक मार्ग था-उनकी भस्म गड्भाजलमें पड़े। परंतु उस समयतक गड़ाजी पृथ्वीपर आयी नहीं थीं। वे तो ब्रह्मलोकमें ब्रह्माजीके कमण्डलुमें ही थीं। सगरके पौत्र अंशुमान्ने उनको पृथ्वीपर लानेके लिये तपस्या प्रारम्भ की और तपस्या करते-करते ही उनका देहावसान भी हो गया। उनके पुत्र दिलीपने तपस्या करके पिताके कार्यको पूरा करना चाहा, किंतु वे भी असफल रहे। उनकी आयु भी तपस्या करते-करते समाप्त हो गयी। दिलीपके पुत्र भगीरथने जैसे ही देखा कि उनका ज्येष्ठ पुत्र राज्यकार्य चला सकता है, उसे राज्य दे दिया और स्वयं वनमें चले गये। पिता-पितामह जिस कार्यको पूरा नहीं कर सके थे, उसे उन्हें पूरा करना था। दीर्घकालीन तपस्याके पश्चात् गड़ाजीने प्रसन्न होकर दर्शन भी दिया और बोलीं–‘ मेरे वेगको सहेगा कौन? वैसे भी मैं पृथ्वीपर नहीं आना चाहती; क्योंकि यहाँके पापी मुझमें स्नान करेंगे। उनका पाप मुझमें रह जायगा। वह पाप कैसे नष्ट होगा?!