मैं डरता क्यों हूँ?
वक्ता : हम में से कितने लोग हैं जो कभी-कभी या अक्सर डर का अनुभव करते हैं? कृपया अपने हाथ उठायें !
(करीब-करीब सभी अपने हाथ उठा लेते हैं)
वक्ता (हाथ उठाये हुए): मैं भी आपके साथ हूँ, तो मेरा भी हाथ उठा हुआ है ।
(श्रोतागण मुस्कुराते हैं)
हम में से शायद ही कोई ऐसा हो जो डर से अछूता हो । ये डर है क्या ? आप में से कितने लोगों को लोगों के सामने, या भीड़ के आगे बोलने में डर लगता है ? चलो श्रोताओं में से ही किसी एक को लेते हैं । नदीम तुम ज़रा खड़े हो जाओ। (एक श्रोता की ओर इंगित करते हुए)
वक्ता : क्या तुम्हें लोगों के सामने बोलने में डर लगता है ?
श्रोता १ : हाँ ।
Add caption |
वक्ता : अच्छा, अभी यहाँ करीब दो सौ लोग मौजूद हैं, पर क्या अभी, इस वक़्त, जब तुम मुझसे बात कर रहे हो, तुम्हें डर लग रहा है ?
श्रोता १ : नहीं ।
वक्ता : ठीक अभी डरे हुए नहीं हो, पर वैसे डर लगता है ।
श्रोता १ : पहले डर लग रहा था ।
वक्ता: फिर से बोलो, ज़रा ज़ोर से ।
श्रोता १ : खड़े होने के पहले डर लग रहा था ।
वक्ता : पर यहाँ तो इतने सारे लोग हैं, पर अभी डर लग रहा है क्या ?
श्रोता १ : नहीं ।
वक्ता : बैठ जाओ । ये जो अभी बात हुई, इसे बड़े ध्यान से समझिये । सैकड़ों की भीड़ के आगे बोलने में हम में से ज़्यादातर लोगों को डर या हिचक की अनुभूति होती ही है । पर नदीम ने कहा कि ठीक अभी जब वो बोल रहा है, तब डर नहीं है । इस से पहले डर लग रहा था । इस से पहले क्या नदीम बोल रहा था ?
श्रोतागण : नहीं।
वक्ता : फिर तो ये बड़े मज़े की बात हो गयी, कि जब बोल रहे हैं तब डर नहीं लग रहा, पर जब बोल नहीं रहे हैं, तो डर लग रहा है । और जब बोल नहीं रहे तो हम क्या कर रहे हैं ? हम बोलने के बारे में सोच रहे हैं। तो डर बोलने में है या सोचने में ?
श्रोतागण : सोचने में।
वक्ता : तो आपने स्वयं ही पता कर लिया । बिल्कुल निजी खोज है ये आपकी अभी-अभी, कि डर सिर्फ एक विचार है । डर करने में नहीं, डर करने के विषय में सोचने में है । जब कर्म हो रहा होता है, जब आप गहराई से कर्म में उतरे हुए होते हैं, तब डर महसूस नहीं हो रहा होता है । हम में से ज़्यादातर लोगों को भ्रम यही है कि मुझे ये काम करने में डर लगता है । “मुझे बोलने में डर लगता है, मुझे कहीं जाने में डर लगता है, मुझे लिखने में डर लगता है।”
याद रखियेगा, डर ना बोलने में है, ना कहीं जाने में, और ना ही लिखने में । डर है उस विषय के बारे में सोचने में । तो पहली बात -डर सिर्फ एक विचार है, उसकी कोई वास्तविकता नहीं है । डर एक विचार है और जितना इस विचार को गहरा उतरने देंगे, डर उतना ही लगेगा । सब लोग लिख लें इस बात को: “डर सिर्फ एक विचार है”।
(श्रोतागण लिखने लगते हैं)
अब दूसरी बात लिखने से पहले उसे समझेंगे । ये जो विचार है जिसको हम नाम देते हैं ‘डर’, ये विचार क्या कहता है ? ये विचार कहता है कि कुछ खो सकता है, कुछ नुकसान हो सकता है । ये विचार यह है कि मुझमें कुछ कमी आ सकती है । हानि का विचार है यह । तो पहली बात हमने लिखी कि डर मात्र एक विचार है, और दूसरी बात हम लिखेंगे कि ये विचार कहता है कि कुछ खो सकता है।
डर का विचार है कि कुछ खो सकता है।
(श्रोतागण लिखने लगते हैं)
ठीक है ? अब हम देखेंगे कि ये जो कुछ है, ये क्या है । कुछ खो सकता है । क्या खो सकता है ? नदीम, क्या तुम बोलने में घबराते, अगर ये हॉल पूरी तरह खाली होता ? क्या कोई भी ऐसा होता है जो अकेले कमरे में बैठे हुए भी बोलने से घबराता हो ? कोई उसे सुन नहीं रहा, किसी से उसे बात करनी नहीं है, पर तब भी घबराता हो अपनी ही आवाज सुनने में?
श्रोतागण : नहीं।
वक्ता : शायद ही होता हो कोई ऐसा ! तो बोलने का विचार घबराहट नहीं देता है, दूसरों के सामने बोलने का विचार घबराहट देता है । बोलने में शायद कोई बड़ी बात नहीं है, कोई भयावहता नहीं है उसमें, पर दूसरों के सामने बोलने में बड़ा खौफ है । तो डर बोलने का हुआ या डर ‘दूसरों’ का हुआ?
श्रोतागण : दूसरों का ।
वक्ता : हमने जो दूसरा बिंदु अभी-अभी लिखा, वो था कि डर का विचार यह है कि कुछ खो सकता है, कि मेरा कुछ नुकसान हो सकता है, कुछ हानि हो सकती है । इस बात को हम इस तीसरे बिंदु से जोड़ेंगे और फिर देखेंगे कि क्या निकल कर आता है । निश्चित रूप से अगर डर लगता है दूसरों के सामने, तो जो हमें खोना है उसका संबंध भी दूसरों से है । डर मुझे यही है न कि मेरा कुछ चला जाएगा ? और साथ ही साथ दूसरों के सामने बोलने से डर है ? तो निश्चित रूप से मुझे जो खो जाने का डर है, वो मुझे दूसरों से ही मिला है । क्योंकि जो दूसरों से मिला है, वो ही दूसरे ले भी जा सकते हैं । क्या है जो मुझे दूसरों ने दिया है और जिसके खो जाने का डर है मुझे ?
श्रोतागण : इज्ज़त । सम्मान । पहचान ।
वक्ता : बहुत बढ़िया । इज्ज़त तो ठीक ही कहा, पर पहचान बहुत बड़ी चीज़ है, बहुत बड़ा वृत्त है, जिसमें इज्ज़त के अलावा भी बहुत कुछ आ जाता है । पहचान का मतलब है- “मैं हूँ कौन ? मेरा होना । मेरी जो पूरी छवि है, मेरी दृष्टि में । मुझे यही दूसरों ने दी है, और यही है जिसके खो जाने का बड़ा डर लगता है, क्योंकि उसमें मेरा तो कुछ है ही नहीं।”
“दूसरों ने दिया है और मैंने उसको ऐसे पकड़ लिया है जैसे कि वो मेरा अपना ही हो । मैं निर्भर हूँ, आश्रित हूँ दूसरों पर । दूसरों ने मुझे सम्मान दिया है और दूसरे वो सम्मान छीन भी सकते हैं । वो कभी भी खो सकता है । दूसरों ने दी है पहचान।”
आपकी अपने बारे में जितनी धारणाएँ हैं, छवियाँ हैं, वो दूसरों से आती है । और ये बड़ी गहरी ग़ुलामी है । हम बड़े आश्रित हैं । इन्हीं छवियों के, इन्हीं धारणाओं के, इसी मान-सम्मान के खो जाने का हमें बड़ा डर लगा रहता है । तो नदीम को या बाकी सब को ऐसा लग सकता है कि हम इस मंच पर आते हैं, बोलना शुरू करते हैं, तो किसी दूसरे की नज़र में उसकी छवि ख़राब हो रही है । लेकिन आप में से अगर कोई ऐसा भी है जो ये कहे, ‘मैं क्या हूँ, मैं जानता हूँ, दूसरे ताली दें या गाली दें, इस से मुझपर कोई अंतर नहीं पड़ेगा । मैं अपने आप को अपनी दृष्टि से देखता हूँ।” तो क्या वो भी डरेगा?
श्रोतागण : नहीं ।
वक्ता : क्या उसे कोई भय सताएगा कि कुछ खो सकता है, कि पहचान जा सकती है, सम्मान जा सकता है ?
श्रोतागण : नहीं ।
वक्ता : तो ये तीसरा बिंदु लिख लीजिये- डर सदा दूसरों के सन्दर्भ में है, और यही है कि जो दूसरों से मिला है वो छिन ना जाये । ये है डर को समझना । अब प्रश्न ये है कि इस डर से मुक्ति कैसे पायी जाए ? अगर हम डर को ठीक-ठीक समझ गए हैं तो ये भी दिख गया होगा कि डर से कैसे मुक्त हुआ जा सकता है । डर का मूल कारण है दूसरों पर निर्भरता । क्या ये बात स्पष्ट हो पायी है ?
श्रोतागण : हाँ ।
वक्ता : जो भी अपनी छवि को लेकर दूसरों पर आश्रित रहेगा, वही डरा रहेगा कि वो छवि कहीं नष्ट ना हो जाये । अर्थ स्पष्ट है ?जो भी भयमुक्त होना चाहता हो, उसे दूसरों पर अवलंबन छोड़ना होगा, उसे अपने पाँव पर खड़े होना सीखना होगा, उसी अपनी दृष्टि से स्वयं को देखना सीखना होगा और अपनी चेतना से समझना-सीखना होगा ।
इसका अर्थ यह है कि दूसरे अगर मुझे कह दें कि तुम बहुत बढ़िया हो, बहुत बहादुर हो, तो मैं जल्दी से खुश नहीं हो जाऊँगा । “मैं आश्रित नहीं हूँ तुम पर कि तुमने मुझे बहादुर होने का प्रमाण दे दिया और मैं मान ही लूँ कि मैं बहादुर हूँ । अगर तुम्हारे कहने से मैं ये मान लेता हूँ की मैं बहादुर हूँ, तो तुम्हारे कहने पर थोड़ी देर बाद मुझे ये भी मानना पड़ेगा कि मैं कायर हूँ, डरपोक हूँ । अब मैं तुम पर निर्भर हो गया हूँ, ग़ुलाम बन गया मैं तुम्हारा, हमेशा डरा हुआ रहूँगा कि इसने दिया है मुझे बहादुरी का प्रमाण पत्र, कहीं ये मुझसे वो छीन न ले !”
“दूसरी ओर अगर मैंने खुद जाना है, अपने आप को देख कर, अपने विचारों को, अपने कर्मों को खुद देख कर, साफ़ नज़रों से देख कर मैंने जाना है कि मैं कैसा हूँ, तो क्या मैं तुम पर निर्भर रहूँगा ये बताने के लिए कि मैं कैसा हूँ ? फ़िर मैं तुम पर निर्भर नहीं रहूँगा ना ?”
पर देखिये हमारा जीवन कैसा है । हमें इस बात से कम अंतर पड़ता है कि हमने पढ़ाई की तो हमें समझ में कितना आया, हमें इस बात से कहीं अधिक अंतर पड़ता है कि किसी और ने मुझे अंक कितने दे दिये, प्रमाण-पत्र दिया कि नहीं दिया, पास होने का ! ये बड़ी गहरी निर्भरता है । आपने अगर पढ़ाई नहीं भी की है मगर आप प्रमाणित हो गये हैं कि पास हैं, तो आप कहते हैं कि सब ठीक है । और सब कुछ जानते बूझते हुए भी आप पाते हैं कि अंक कुछ कम पाने पर आप उदास हो जाते हैं । आशय स्पष्ट है ।
हम जब पढ़ते हैं, हम पढ़ने में रस लेते ही नहीं । हम उसमें कभी डूबे ही नहीं । क्योंकि जिसको पढ़ाने में ही आनंद मिल जायेगा, वो इस बात की परवाह शायद ही करेगा कि नंबर आते हैं या नहीं आते हैं । पहली बात तो ये कि उसके अंक आयेंगे ही आयेंगे, पर अगर किसी वजह से नहीं भी आते हैं, तो वो दुखी नहीं हो जाएगा । वो कहेगा, “मुझे जो मिलना था वो तो मिल ही गया है । किताब के साथ रहा, बड़ी मौज की । पढ़ने में ही आनंद था और वो मिल चुका है, इसने नंबर कुछ कम भी दे दिए तो कोई विशेष बात नहीं है, ठीक है।”
जिसके पास अपना कुछ होता है वो दूसरों पर आश्रित रहना बंद कर देता है । हम लगातार-लगातार दूसरों पर आश्रित हैं, इसका कारण ही यही है कि हमारे पास अपना कुछ नहीं है । और जब आप दूसरों पर आश्रित रहेंगे तो जीवन डर में बीतेगा ही बीतेगा। ये नियम है जीवन का । जो जितना पराश्रित रहेगा, वो उतना डरा रहेगा । और आपको आश्रित रहना ही पड़ेगा, जब तक आप उसको नहीं पा लेते जो पूरी तरह आपका अपना है ।
तो क्या है वो जो पूरी तरह अपना है, जिसको पाने के लिए किसी और का मुँह देखने की आवश्यकता नहीं ? जब आप उसको जानेंगे, उसके महत्व को समझेंगे, तो पायेंगे कि जीवन से डर बिल्कुल चला गया । क्या है ऐसा जो आपको दूसरों से नहीं मिला, आपका अपना है ? उसके लिए आपको उन सब बातों को देखना पड़ेगा जो आपको दूसरों से मिली हैं ।
नाम दूसरों से मिला है, धर्म दूसरों से मिला है, पहचान दूसरों से मिली है । जीवन में किस मुकाम पर हैं, किस घर से आए हैं, कितना रुपया-पैसा है, ये सब किसी और से मिला है । आपके पास कुछ डिग्रियाँ हैं, पर वो डिग्रियाँ भी दूसरों के द्वारा प्रमाणित हैं । तो ऐसा क्या है जो पूर्णतया आपका अपना है, जो दूसरों से नहीं मिला है ?
श्रोता २ : कर्त्तव्य ।
वक्ता : कर्त्तव्य की जो तुम्हारी परिभाषा है, और कर्त्तव्य की जो किसी और की परिभाषा है, वो अलग-अलग होगी । तुम किस देश में पैदा हुए हो, किस धर्म में पैदा हुए हो, किस लिंग में पैदा हुए हो, इसके आधार पर कर्त्तव्य बदलते रहते हैं । और ये सारे कर्त्तव्य हमारे मन में स्थापित किये जाते हैं, दूसरों के द्वारा, कि तुम्हारा ये कर्त्तव्य है, ये दायित्व है, ये सब तुम्हें करना चाहिये । तो ये सब कर्तव्यों का जो पूरा विचार है, वो हमारे मन में दूसरों के द्वारा प्रतिस्थापित किया जाता है । क्या है ऐसा जो दूसरे हमें नहीं देते, पर वो पूर्णतया हमारा अपना है ?
श्रोता ३ : अस्तित्व ।
वक्ता : क्या तुम शारीरिक अस्तित्व की बात कर रहे हो ? क्योंकि हम तो सिर्फ एक ही अस्तित्व जानते हैं, शारीरिक । और अगर शारीर की बात कर रहे हो तो उसकी पहली दो कोशिकाएँ थीं, वो माँ और बाप से आयीं हैं, बाहरी हैं । और उसके बाद शरीर ने जो कुछ पाया है, वो भी बाहर से ही आया है । हवा, पानी, भोजन, सब बाहर से ही आया है । ऐसा क्या है जो तुमने बाहर से नहीं पाया है ?
श्रोता ४ : कर्म ।
वक्ता: कर्म आते हैं विचारों से । जो विचार होते हैं, वही कर्म में परिवर्तित हो जाते हैं । और हर विचार बाहर से ही आता है । तुम्हारे दिमाग में कहीं न कहीं बाहर से ही आरोपित होता है । समाज द्वारा, धर्म द्वारा, परिवार द्वारा, शिक्षा द्वारा । तो जिसको तुम ‘अपना कर्म’ बोलते हो, वो तुम्हारा अपना कहाँ है ? चलो मैं बात को थोड़ा सुलभ किये देता हूँ । मैं अभी तुमसे कुछ बोल रहा हूँ । जो कुछ भी बोल रहा हूँ, एक बाहरी बात है ना ? एक बाहरी आदमी आया है और तुमसे कुछ कह रहा है, ये बात तुम्हारी बिल्कुल भी अपनी नहीं है ना ? ये बात मेरी है ।
श्रोतागण : हाँ ।
वक्ता : ये बाहरी बात जितना तुम सुन रहे हो, जितना तुम्हारे कानों के परदे पर पड़ रही है, ठीक उतनी ही इस माइक पर पड़ रही है ?
श्रोतागण : हाँ ।
वक्ता : यहाँ तक बात बिल्कुल एक जैसी है । एक बाहरी स्रोत है, उस स्रोत से कुछ ध्वनि निकल रही है । वही ध्वनि माइक के ऊपर पड़ रही है और वही ध्वनि तुम्हारे कान के ऊपर पड़ रही है । यहाँ तक हिसाब बिल्कुल बराबर है ना ?
श्रोतागण : हाँ ।
वक्ता : लेकिन उसके आगे कुछ और होता है ।
श्रोता ५ : समझ ।
वक्ता : शाबाश। माइक इतना करीब हो कर भी, सारी ध्वनियों को पा कर भी, कुछ जान नहीं सकता । इतना कुछ सुनता रहता है ये, तुमने जितना कुछ सुना होगा उस से कहीं ज़्यादा इसने सुना होगा ! पर ये कभी कुछ जान नहीं सकता । सुनता सब रहता है, पर जान कुछ नहीं सकता । पर तुम समझ सकते हो । तुम जान सकते हो । अब जो बात कही गयी है वो बाहरी है, पर समझ किसकी है ?
श्रोतागण : हमारी ।
वक्ता : और अगर तुम्हारी समझ न हो तो जो ये कहा जा रहा है, क्या वो किसी भी काम आ सकता है ?
श्रोतागण : नहीं ।
वक्ता : क्या ये इस माइक के काम आ सकता है ? इस रिसीवर के काम आ सकता है ? इस कैमरे के काम आ सकता है ? क्या किसी ऐसे व्यक्ति के काम आ सकता है, जो सो रहा हो ? क्या किसी ऐसे व्यक्ति के काम आ सकता है, जो ध्यान ना दे रहा हो ?
श्रोतागण : नहीं ।
वक्ता : तो इसका मतलब क्या है ? कि ध्यान ही समझ है । और वो ताकत पूरी तरह तुम्हारी अपनी है । जो ध्यान नहीं दे रहे, उनकी स्थिति इस माइक से बेहतर नहीं । उनके भी कानों के पर्दों पर आवाज़ पर रही होगी, पर क्या उन्हें कुछ समझ में आ रहा होगा ? नहीं। ठीक वैसे ही जैसे कि इस माइक को कुछ समझ नहीं आ रहा होगा ।
ये काबिलियत है तुम्हारी अपनी जो तुम्हें किसी और ने नहीं दी है, और ना कोई तुमसे ये छीन सकता है । समझने की, जानने की काबिलियत। विचार बाहर से आ सकते हैं, ठीक, पर विचारणा की शक्ति बाहर से नहीं आ सकती । वो तुम्हारी अपनी है । और विचारणा की शक्ति से भी ऊपर ध्यान की शक्ति- ‘द पावर टु अटेंड’ । वो बाहर से नहीं आ सकता, वो तुम्हारा अपना है, बाकी सब बाहरी है ।
मैं जो कह रहा हूँ- बाहरी बात, किताब में जो लिखा है- बाहरी बात । लेकिन जो समझने वाला है, वो बाहरी नहीं हो सकता । सब बाहर-बाहर है, पर जो समझने वाला है, वो बाहरी नहीं हो सकता । वो तुम हो और वो समझ ही तुम्हारी अपनी है । इसका मतलब ये है कि जिसने इस समझ के आधार पर जीवन जीना सीख लिया, वो निर्भय हो जाता है । हमने कहा था, जिसने वो पा लिया जो उसका अपना है, पूरी तरह अपना है, उसके जीवन से डर …
श्रोतागण : चला जाता है ।
वक्ता : जिसने इस ध्यान को पा लिया, जो इस समझ को उपलब्ध हो गया, अब वो सदा के लिए निडर हो जाता है। या यूँ कहो कि जब ध्यान में होता है, तो निडर रहता है। जब ध्यान टूटेगा, जब फिर नासमझी में उतरेगा, तब फिर से डरेगा । जितने भी लोग उत्सुक हों निर्भयता में, कितने लोग हैं उत्सुक ? कितने लोग निडर होना चाहते हैं ? हाथ उठाएँ ।
(सभी हाथ उठा लेते हैं)
तो फिर उन लोगों को अपने प्रति ईमानदार होना पड़ेगा । उनको दूसरों पर आश्रित होना छोड़ना पड़ेगा । उन्हें अपने आप से वायदा करना होगा कि मैं जीवन सिर्फ और सिर्फ अपनी समझ के आधार पर ही जीऊँगा । क्योंकि यही समझ मेरी अपनी है । “यही मैं हूँ।”
और हम सब युवा हैं, यही समय है हमारे लिए कि हम अपने प्रति संकल्पित हो जायें कि हम आश्रित नहीं रहेंगे, बैसाखियों पर नहीं चलेंगे । अपने पाँव पर चलेंगे । जिसने अपने पाँव पर चलना सीख लिया, अब उसके पास डरने का कोई कारण नहीं । कोई बैसाखी नहीं है उसके पास, जो छिन सके । और टांगें तो फिर भी बाहरी हैं, कट भी सकती हैं, कोई तोड़ सकता है । समझ बाहरी नहीं है । जिसने उस समझ को को आधार बना लिया जीवन का, अब वो कभी डरा हुआ नहीं रहेगा । और जो उसको आधार नहीं बनाएगा, वो कहेगा कि मेरे जीवन के निर्णय कोई और कर दे मेरे लिए ।
“समाज किसलिए है ? शिक्षा किसलिए है ? माँ-बाप किसलिए हैं ? मुझे आगे क्या पढ़ना है, कोई और बता दे । मुझे कैसी नौकरी करनी है, कोई और बता दे । मुझे प्रेम किससे करना है, कोई और बता दे ।” जो इन आधारों पर जीवन जीयेगा, वो निरंतर डरा हुआ रहेगा ।
बात समझ में आई ?
श्रोतागण : जी सर!