आपके जाने के बाद भूल क्यों जाता हूँ?
प्रश्न: जब तक सत्र में होते हैं, सामने होते हैं, तब तक बात समझ में आती है, ठीक भी लगती है, लेकिन बाहर जाते ही हकीक़त कुछ और दिखाई देती है, बाहर जाते ही यह बातें काम नहीं आतीं हैं। जब वास्तव में इनकी ज़रूरत पड़ती है उस वक्त यह काम नहीं आतीं, भूल ही जातीं हैं।
बाहर तमाम ताकतें हैं जो इन बातों के विरोध में खड़ी हैं, जो इनको चलने नहीं देती हैं।
वक्ता: जब यह घटना घटती है तो तुम्हें शायद ऐसा लगता होगा कि तुम बाहर कमज़ोर पड़ जाते हो। जिसने मुझसे यह सवाल पूछा है उसका आशय यही रहा है कि जब तक हम सुन रहे हैं, तब तक सब ठीक है, गड़बड़ बाहर हो रही है। तुम्हारा कहना यह है कि जब तक तुम यहाँ बैठे हो तुम्हें सब समझ आ रहा है और तुम्हें सब ठीक भी लग रहा है, लेकिन गड़बड़ बाहर हो रही है। अगर कोई मरीज़ किसी अस्पताल में हो और अस्पताल से बाहर निकलते ही उसे जल्दी-से वही बीमारी लग जाए जिसके लिए वो अस्पताल आया था, वो फिर से अस्पताल जाए और उसे लगे कि वो ठीक है, और बाहर आकर फिर से उसे बीमारी लग जाए, तो क्या वो कभी-भी ठीक हुआ था? क्या उसका यह दावा करना उचित होगा कि बीमारी उसे बाहर से लग रही है।
सच तो यह है कि वो कभी ठीक हुआ ही नहीं था। उसे बस भ्रम हो जाता था कि वो ठीक हो गया है। दिक्कत बाहर नहीं हो रही है, दिक्कत अंदर हो रही है। तुम्हारा यह दावा कि जब तुम यहाँ हो तब तुम्हें सब समझ में आता है, यह दावा ठीक नहीं है। अगर तुम यहाँ पूरे ध्यान में डूब गए होते, तुमने ईमानदारी से अपने आप को खोल दिया होता, बातें पूछ लीं होतीं, स्पष्टीकरण ले लिए होते, तो तुम्हें बाहर दिक्कत नहीं आती। बाहर दिक्कत इसलिए आती है क्योंकि जब तुम भीतर होते हो तो पूरी तरह मौजूद नहीं होते हो। दिक्कत बाहर नहीं है, दिक्कत यहाँ पर है (प्रश्न कर्ता की ओर इंगित करते हुए)।
मैं अभी तुमसे कुछ बातें कह रहा हूँ, तुममें से कुछ लोग ध्यान में डूबे हुए हैं और कुछ लोग ध्यान में नहीं हैं। अब अगर वो बाहर जाए, गिरें, ठोकर खाएँ, उन्हें चोट लगे, तो क्या उनका यह कहना उचित होगा कि अंदर तो सब समझ आया था पर बाहर सब भूल गए? तुमने अंदर समझा ही कब? तुम तो कहीं और खोए हुए थे। तुमने कब समझा अंदर कुछ? जो अंदर समझ ही लेगा उसे बाहर कोई गिरा नहीं सकता।
तुम्हें बस एक मौका मिलता है, तुम इस मौके को यूँ ही गँवा देते हो। यह ऐसा मौका जो तुम्हें पहले कभी मिला नहीं। मैं उम्मीद करता हूँ कि आगे और मिले, पर संभावना कम है, क्योंकि समाज ऐसे ही बंधनों से भरा हुआ है जो तुम्हें मुक्त होने का मौके नहीं देंगे। वो लोग सिर्फ दो ही काम जानते हैं। पहला- वो तुमसे कहते हैं कि तुम खोटे हो और तुम्हारे भीतर हीन-भावना डाल देते हैं। दूसरा- वो तुम्हें यह बता देते हैं कि देखो बेड़ियों की दुकान उधर है, अपना संक्षिप्त विवरण (सी.वी.) लेकर जाओ और वहाँ से बेड़ियाँ ले आओ। वो तुमसे यह नहीं कहेगा कि मुक्त हो जाओ।
तुम्हें यह एक ख़ास मौका मिला है, इसको व्यर्थ मत जाने दो। पर तुम इसे व्यर्थ जाने देते हो, और उसके बाद तुम्हें यह देखकर आश्चर्य होता है कि जो बात अंदर ठीक लग रही थी, उसे बाहर पहुँचते ही हम भूल क्यों जाते हैं। अंदर हमें लगता है कि यही बात ठीक है, लेकिन जैसे ही हम बाहर पहुँचते हैं, और हमसे कोई तर्क करता है, तो हमारे पास उन तर्कों के जवाब नहीं होते। तुममें से कुछ ने मुझे बताया कि जब उन्होंने बाहर जाकर अपने मित्रों से इन विषयों पर चर्चा करने की कोशिश की, और उन्होंने दो-चार सवाल पूछे, तो दो-चार तर्क देने के बाद आखिर में उनके पास कोई जवाब नहीं था।
तुम्हारे पास जवाब आयेगा कहाँ से? असली जवाब तो असली समझ से उठता है, तुमने कभी समझा ही नहीं था। तुम्हें बस लग गया था कि तुमने समझ लिया है। इसीलिए जब तुम्हें कोई तर्क देता है, तो तुम फंस जाते हो। और जब तुम फंस जाते हो तो तुम्हें लगता है कि- ये तो बात ही झूठी थी, इसलिए हम फंस गए।
यहाँ समझो, यहाँ पूरी तरह मौजूद रहो, और यह ख्याल ही मन से निकल दो कि बाहर क्या होगा। ‘बाहर’ की परिभाषा ही बदल जाएगी। बाहर तुम्हें जो ताकतें बहुत बड़ी लगतीं हैं, उनका बड़ा लगना ही बंद हो जाएगा। अभी तो तुम्हें छोटी से छोटी बात भी बहुत बड़ी लगती है क्योंकि तुम अपने आप को छोटी से छोटी बात से भी छोटा समझते हो। अभी तो तुम्हारी हालत यह है कि सड़क पर चलता आदमी तुमसे आकर कुछ कह देता है तो तुम व्यथित हो जाते हो। अभी तो तुम्हारी हालत यह है कि जिसको तुम जानते तक नहीं वो भी आकर तुमसे कुछ कह दे, तो तुम्हारे भीतर संदेह उठने लगता है। वो आदमी छोटा है, लेकिन तुम अपने आप को उससे भी छोटा माने बैठे हो। याद रखना, समस्याएँ बड़ी नहीं हैं, तुम अपने आप को छोटा मानते हो।
अपने बड़प्पन को पा लो, अपनी विशालता को जान लो, उसके बाद बाहर की ताकतें तुम्हें दबा नहीं पाएंगी।
अगर बाहर तुम पाते हो कि बार-बार तुम्हारा शोषण होता है, तुम्हें दबना पड़ता है और तुम्हारे भीतर यह हिम्मत उठती ही नहीं कि सामना कर पाओ, तो उसकी वजह यह नहीं है कि बाहर की दुनिया बड़ी खौफनाक है, उसकी वजह यह बिल्कुल भी नहीं है कि बाहर की तंत्र व्यवस्थाएँ या लोग बड़े शक्तिशाली हैं, उसकी वजह यह है कि तुम्हारी हालत बहुत ख़राब है, कि तुम अपने आप को बहुत छोटा समझते हो।
और इससे ज़्यादा और कोई बात तुमको चुभती नहीं कि तुम छोटे नहीं हो, क्योंकि छोटा होने के तुमने खूब फायदे ढूँढ लिए हैं । इसीलिए जैसे ही कोई तुमसे आकर कहता है कि छोटा होना तुम्हारा स्वभाव नहीं है और तुम छोटे नहीं हो,अपनी अपरीमितता को जानो, तो तुम्हें बात खल जाती है, तुम मुंह बनाते हो, तुम्हें लगता है कि भागूँ किसी तरह से, तुम कसमसा जाते हो।
तुम अगर अपना छुटपन छोड़ोगे, अपनी छुद्रता छोड़ेंगे, अपनी हीनता छोड़ोगे, तो साथ ही तुम्हें अपनी सुविधाएँ भी छोड़नी पड़ेंगी, और इन तुच्छ सुविधाओं के लालच में तुम अपनी मुक्ति को बेचे हुए हो। तुच्छ सुविधाएँ जैसे सोने के लिए बिस्तर मिल जाए, किसी का नाम मिल जाए, थोड़े बहुत पैसे मिल जाए, एक मानसिक रक्षा बनी रहे। इन छोटी-सी बातों के लिए तुम अपने आप को हर प्रकार की परेशानी, बंधन में डालने के लिए बिल्कुल तैयार हो। और कोई बात नहीं है। बस लालच है।
और लालच भी किन बातों का? बस यही ज़रा-सी सुविधाओं का। कुछ विशेष तुम्हें मिल भी नहीं रहा है, लेकिन डरे हुए हो कि अगर यह छूट जाएगा तो क्या होगा? एक आदत लग गयी है कि कुछ भी करेंगे तो पूछ-पूछ कर करेंगे। “अगर पूछ कर नहीं किया तो मेरा होगा क्या? अगर अपने पाँव पर चल लिया तो मेरा होगा क्या?” सिर्फ इस सुविधा के लालच में तुम अपने आप को छोटा मानने को राज़ी हो।
और जब अपने आप को छोटा मानते हो तो जैसे मैंने कहा, बाकी सब कुछ बहुत बड़ा लगने लगता है। फिर सारी समस्याएँ इतनी बड़ी लगने लगती हैं कि वो तुम पर हावी हो जाती हैं।जब भी कोई समस्या बहुत बड़ी लगने लगे, तो एक सवाल पूछना अपने आप से? “समस्या बड़ी है या मैं छोटा अनुभव कर रहा हूँ।” ईमानदार उत्तर हमेशा एक ही मिलेगा- समस्या बड़ी नहीं है, तुम अपने आप को बहुत छोटा मानते हो। और छोटा मानने का जो कारण है वो बता दिया है- लालच।
जो व्यक्ति लालच छोड़ने को तैयार है, उसके ऊपर कोई हावी नहीं हो सकता। जो लालच में नहीं फंस रहा, उस को फंसाया जा ही नहीं सकता। एक ही तरीका है जिस के द्वारा दुनिया तुम पर राज करती है- तुम्हें लालच दिखा-दिखा कर। तुम्हें पहले हीन भावना में डाला जाएगा और फिर तुम्हें यह लालच दिया जाएगा कि अब हम तुम्हें कुछ दे सकते हैं।
पहले तुमसे कहा जाएगा कि तुम्हारे पास कुछ नहीं है, और फिर तुमसे कहा जाएगा कि जो तुम्हारे पास है नहीं, वो हम से मिलेगा । अब तुम अज्ञान में और लालच में फंस कर खिंचे चले जाओगे, खिंचे चले जाओगे, और अपने आप को बेचे चले जाओगे। और यह कहानी जीवन भर चलती है।
दो बातें हैं। पहली- यह मत सोच लेना कि भूल बाहर हो रही है, भूल यहाँ होती है, कि तुम यहाँ ध्यान में नहीं हो। यहाँ जो ध्यान में आ गया, यहाँ जिसने समर्पित होकर सुन लिया, उसे बाहर हारना नहीं पड़ेगा। और दूसरी- बाहर की समस्याएँ बड़ी लगती हैं क्योंकि तुमने अपने आप को लालच वश बहुत छोटा बना लिया है।
देखो अगर सीधा-सादा सच कड़वा लगता हो, तो क्या इसका यही अर्थ नहीं है कि हमने झूठ में जीने की आदत बना ली है? जो बात मैं कह रहा हूँ उसमें कोई पेंच नहीं है, बात बहुत सीधी है, बहुत-बहुत सीधी बात है। और यह सीधी बात अगर तुम्हें पचती नहीं है तो क्या इसका यही मतलब नहीं है कि अपनी ज़िंदगी आपने बहुत टेढ़ी कर रखी है? दिमाग सिर्फ टेढ़ी चालें चलना जानता है। एक टेढ़े डिब्बे में एक सीधी लकीर कैसे आएगी? डिब्बा टेढ़ा है, उसमें कुछ भी सीधा रखोगे कैसे?
मन का ढाँचा अगर टेढ़ा हो चुका है, तो उसमें मेरी सीधी बात समाती ही नहीं है। बात इतनी सीधी है कि एक बच्चा भी आसानी से समझ लेगा, क्योंकि उसका मन निर्दोष है।
पर तुम कहते हो, “न! हमें अच्छी नहीं लगती, तुम कहते हो देखिये, तेंदुलकर को गणित नहीं अच्छी लगती थी हमको आपकी बात नहीं अच्छी लगती, क्या फर्क है ? ”
तुम्हें फर्क दिखाई नहीं दे रहा ?
मैं गणित की नहीं जीवन की बात का रहा हूँ | गणित के बिना जी सकते हो, जीवन के बिना जी सकते हो ?
तो फिर कैसा तर्क देते हो ?