हम ये हैं या वो हैं
हम ये है या वो हैं, इसका नहीं ज्ञान।
भंग भवानी से सभी, भूल गये पहिचान॥
एक बार एक भंगेड़ी अपनी रिश्तेदारी में जाने के लिए चला, कपड़े आदि बाँध लिए। वह चलने को ही था कि उसे याद आया कि उसने भाँग तो रखी ही नहीं है। उसने पाव भर भांग बाँधी और उसे घोटने के लिए कुंडी सोटा ले लिया। चलते-चलते दिन के बारह बज गये। वह एक वृक्ष के नीचे गया और अवलोकन करने से पता चला कि वह बड़ का पेड़ है तथा उसकी छाया घनी है। उस वृक्ष की बगल में ही एक कुंआ भी था। वह सोचने लगा बड़ी अच्छी जगह है। अब तो यहीं पर भंग छनेगी। उसने सब कपड़े एक तरफ रख दिये और भाँग निकाली। कुँए से जल निकाल कर भाँग को अच्छी तरह से धोया और कुंडी में डाल कर सोटे से घोटने लगा। थोड़ी ही देर में भाँग तैयार हो गई। मंगलाचरण पढ़कर भाँग को छाना और पी गया।
फिर दिशा मैदान जाकर स्नान किया, कुछ खा पीकर दरी बिछायी और उस पर सो गया। सोते समय उसे स्मरण आया कि कुंडी सोटा बाहर रह गया है। कहीं ऐसा न हो कि कोई उठाकर ले जाये। इसलिए वह उठा और कुंडी-सोटे को कमर से बाँधकर सो गया। इसी अवसर पर उसका दूसरा भाई भंगड़ा पहुँच गया। बड़ के वृक्ष की छाया और कुंए को देखकर उसका मन प्रफुल्लित हो गया। वह सोचने लगा कि आज मेरे पास कुंडी सोटा नहीं है वरना आज मैं भाँग का मजा उठाता।
उसकी दृष्टि वहाँ पर पहले से मौजूद भंगड़ पर पड़ी जिसकी कमर में कुंडी और सोटा बंधा हुआ था। उसने सोचा इसकी कुंडी और सोटा खोलकर अपना काम चलाना चाहिये। उसने अंगोछे से बंधी कुंडी और सोटे को खोल लिया और यह महोदय अपने काम में लग गये। परन्तु पहले भंगेड़ी की आँखें नहीं खुली दूसरे भंगेड़ी ने भंग घोटी, छानी और पी गया। इसके बाद यह भी दिशा-मैदान से निवृत्त होकर स्नान करने लगा, भोजन ग्रहण किया और सो गया।
उसे याद आया कि कुंडी और सोटे को पहले भंगेड़ी की कमर में बांध देना चाहिये। वह भांग के नशे में पहले भंगेड़ी की कमर में न बांधकर अपनी ही कमर में कुंडी और सोटे को बॉध लिया। इतने में पहले भंगेड़ी की आंखें खुल गईं। उसने देखा कि मैं कुंडी सोटे को अपनी कमर से बाँधकर सोया था, परन्तु वह तो दूसरे की कमर से बंधा है। ये क्या माजरा है? पहला भंगेड़ी विचार करने लगा कि हम ये हैं या वे हैं। हम कौन हैं? हम लाल दरी वाले हैं तो हम ये हैं और यदि हम कुंडी सोटे वाले हैं तो हम वे हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि वर्तमान काल में बहुत से नामधारी हिन्दू अपने को हिन्दू कहने का दावा करते हुए चोटी और जनेऊ धारण करते हैं परन्तु वैदिक परम्परा को नष्ट भ्रष्ट कर मनुष्य मात्र के भोजन को एक करना चाहते हैं और विदेशी सभ्यता के प्रभाव में पड़कर दिन रात कोट, पैंट में डटे रहते हैं। उनकी भी ठीक यही दशा है जैसे कि ऊपर बताये गये दो भंगेड़ियों की है। संक्षेप में हिन्दू जाति को अपनी प्राचीन मर्यादाओं का पालन करते हुए अपने को सजीव बनाना चाहिए तथा हम ये हैं, हम वो हैं के भ्रम में नहीं पढ़ना चाहिए।