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जीर्णोद्धारका पुण्य

पहले गौडदेशमें वीरभद्र नामका एक अत्यन्त प्रसिद्ध राजा राज्य करता था। वह बड़ा प्रतापी, विद्वान्‌ तथा धर्मात्मा था। उसकी पत्नीका नाम चम्पकमञ्जरी तथा प्रधानमन्त्रीका नाम वीरभद्र था। ये तथा उसके दूसरे मन्त्री एवं पुरोहित भी धर्मनिष्ठ थे। ये सभी कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य, धर्म-अधर्म आदिका निर्णय सदा धर्मशास्त्रोंक आधारपर ही करते थे; क्योंकि वे जानते थे कि प्रायश्चित्त, चिकित्सा, ज्यौतिषका फलादेश अथवा धर्म-निर्णय सदा शास्त्रोंके आधारपर ही करना चाहिये। जो बिना शास्त्रोंके यों ही मनमाना फतवा दे डालता है, उसे ब्रह्महत्याका पाप लगता है’। इसलिये ये लोग राजाको सदा धर्मशास्त्रादिका श्रवण कराते रहते थे। उसके राज्यमें कोई नगण्य व्यक्ति भी अधर्म या अन्यायका आचरण नहीं करता था। उस समय गौडदेशमें स्वर्ग-जैसा सुराज हो रहा था। 

एक दिन राजा वीरभद्र अपने मन्त्रियोंक साथ वनमें शिकार खेलने गया। वे वहाँ दौड़ते-दौड़ते थक गये और तबतक दोपहर भी हो गयी थी। वे लोग प्याससे बेचैन हो रहे थे। तबतक उनकी दृष्टि एक छोटी-सी पोखरीपर गयी, जो प्राय: सूखी थी। उसके मन्त्री बुद्धिसागरने उसे देखकर उसमेंसे जल निकालनेकी युक्ति सोची। उसने उसमें एक हाथका गड्डा खोदा और जल निकाल लिया। उस जलके पीनेसे राजा तथा मन्त्री दोनोंकी ही पूर्ण तृप्ति हो गयी। अब धर्म-अर्थके पण्डित उस मन्त्रीने राजासे कहा-‘राजन्‌! यह पुष्करेणी (तलैया, पोखरी) न जाने इस पर्वतकी अधित्यका (चौरस भूमि)-में किसने बनायी थी। अभीतक तो यह वर्षके जलसे भरी थी, पर अब सूख गयी है। अब यदि आज्ञा दें तो मैं इसका पूर्णतया उद्धार करके चारों ओर बढ़िया बाँध बनाकर इसे सरोवरका ही रूप दे दूँ।’ राजाने मन्त्रीके इस प्रस्तावको बड़ी प्रसन्नताके साथ स्वीकार कर लिया। उसने बड़े समारोहसे बुद्धिसागरको इस कार्यमें नियुक्त किया। शुद्धात्मा मन्त्रीने बड़ी श्रद्धासे दो सौ हाथ लंबा-चौड़ा एक सरोवर तैयार किया और उसके चारों ओर पत्थरके घाट बनवा दिया। इस तरह उसमें अगाध जलराशि संचित हो गयी। तबसे वह वनचरों एवं पक्षियोंका क्रीडास्थल एवं जलपानका आश्रय हो गया। आयु समाप्त होनेपर बुद्धिसागर जब धर्मराजके यहाँ पधारे, तब धर्मराज चित्रगुप्तसे उनके कृत्योंके सम्बन्धमें पूछताछ की। चित्रगुस्ने उनके सरोवर-निर्माणकी चर्चा की। साथ ही यह भी कहा कि ‘ये राजाको सदा ही धर्मकार्यमें प्रेरित करते थे।” चित्रगुप्तवे यों कहनेपर धर्मराजने बुद्धिसागरको धर्मविमानपर चढ़ाये जानेकी आज्ञा दे दी। कुछ दिनोंके बाद राजा वीरभद्र भी वहीं (यमलोक) पधारे और धर्मराजको आदरपूर्वक नमस्कार करके एक ओर खड़े हो गये। पुण्यसम्बन्धी प्रश्न किये जानेपर चित्रगुपसने उनके लिये भी उसी सरोवरनिर्माणके पुण्यकी चर्चा की। तदनन्तर धर्मराजने मद्धुत बाणीसे राजाको सम्बोधित करते बड़ी ५ राजन्‌! पूर्बकालमें हुए कहा«! पूर्वकालमें सैन्धवगिरिकी अधित्यकामें लवा पक्षीने जल ठहरानेके लिये अपनी चॉचसे हि अंगुल भूमि चसे दो पुल भूमि खोदी थी। तत्पश्चात्‌ कालान्तरमें शूकरने उसी एक स्थलपर अपने थुथुनेसे एक हाथ गहरा गड्ढा उसमें डा खोदा। तबसे उसमें हाथ भर जल रहने लगा। तदनन्तर एक भेंसने खोदकर उसे दो हाथ गहरा कर दिया। महाराज! तबसे तो उसमें दो मासतक जल ठहरने लग गया। बनके छोटे-छोटे जीव प्याससे व्याकुल होनेपर उस जलको पीते थे। तदनन्तर इसके तीन वर्ष बाद एक हाथीने उस गड्डेको तीन हाथ गहरा कर दिया। अब उसमें तीन महीनेतक पर्याप्त जल ठहरने लग गया। फिर जल सूख जानेपर आप उस स्थानपर आये ओर मन्त्री बुद्धिसागककी सम्मतिसे सरोवर-निर्माणका कार्य चल पड़ा। फिर तो उसमें बहुत जल संचित हो गया और पत्थरोंसे दृढ़तापूर्वक घाट बँध जानेपर वह महान्‌ सरोवर ही बन गया। जलाशयनिर्माणके उपक्रममें अपने-अपने पुण्यसे क्रमशः ये लवा, शूकर, भैंस, हाथी और मन्त्री-पाँच जीव धर्मविमान पर आरूढ़ हुए हैं, अब छठे आप भी उसपर चढ़ जाइये।! धर्मराजके इन विचित्र तथा सुखद शब्दोंको सुनकर राजा वीरभद्र भी उस विमानपर जा बैठा। इस प्रकार जीर्णोद्धारका पुण्य अत्यन्त महान्‌ है, जिससे एक सरोवरके पुन:-पुन: उद्धारमें ये छः जीव धर्मविमानपर आरूढ़ हुए।

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