अद्वितीयता में किसी भी दूसरे
गुरु-माता-पिता कों नहीं जानता
माता कैकेयी की इच्छा और पिता दशरथ जी की मूक आज्ञा से राघवेन्द्र श्रीरामचन्द्र बन जाने को तैयार हुए। उनकी वन जाने की बात सुनकर लक्ष्मणजी ने भी साथ चलने की आज्ञा माँगी। भगवान् श्रीराम ने कहा–‘ भैया ! जो लोग माता, पिता, गुरु और स्वामी की सीख को स्वभाव से ही सिर चढ़ाकर उसका पालन करते हैं, उन्होंने ही जन्म लेने का लाभ पाया है, नहीं तो जगत् में जन्म व्यर्थ है।
मैं तुम्हें साथ ले जाऊँगा तो अयोध्या अनाथ हो जायगी। गुरु, माता, पिता, परिवार, प्रजा-सभी को बड़ा दुःख होगा। तुम यहाँ रहकर सबका परितोष करो। नहीं तो बड़ा दोष होगा। श्रीरामजी की इन बातों को सुनकर लक्ष्मणजी व्याकुल हो गये और उन्होंने चरण पकड़कर कहा – स्वामिन्! आपने मुझे बड़ी अच्छी सीख दी परंतु मुझे तो अपने लिये वह असम्भव ही लगी। यह मेरी कमजोरी है।
शास्त्र और नीति के तो वे ही नर श्रेष्ठ अधिकारी हैं, जो धैर्यवान् और धर्म धुरन्धर हैं। मैं तो प्रभु के स्नेह से पाला-पोसा हुआ छोटा बच्चा हूँ। भला, हंस भी कभी मन्दराचल या सुमेरु को उठा सकता है। मैं आपको छोड़कर किसी भी गुरु या माता-पिता को नहीं जानता।
यह मैं स्वभाव से ही कहता हूँ। आप विश्वास करें। जगत् में जहाँ तक स्नेह, आत्मीयता, प्रेम और विश्वास का सम्बन्ध वेदों ने बताया है, वह सब कुछ मेरे तो, बस, केवल आप ही हैं। आप दीनबन्धु हैं, अंतर्मन की जानने वाले हैं। धर्म-नीति का उपदेश तो उसे कीजिये, जिसको कीर्ति, विभूति या सदट्गरति प्यारी लगती है। जो मन, वचन, कर्म से चरणों में ही रत हो, कृपासिन्धु ! क्या वह भी त्याग ने योग्य है ?
श्रीरामचन्द्र का हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने लक्ष्मणजी को हदय से लगा लिया और सुमित्रा मैया से आज्ञा लेकर साथ चलने की अनुमति दे दी।