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स्वयं विद्वान होकर अर्थ समझो – बच्चों के लिए कहानी

स्वयं विद्वान होकर अर्थ समझो 

अपनी-अपनी सब कहें, सच्ची कहे न कोय। 

झूंठ-सांच का न्याय तो, बिन विद्या न होय॥
प्राचीन काल की बात है कि एक राजा के दरबार में  बड़े-बड़े विद्वान थे, परन्तु स्वयं राजा शास्त्र शून्य थे। एक  दिन एक थोड़ा पढ़ा लिखा, परन्तु चालाक पंडित राजा के दरबार में आया। उसने सोचा कि इस राज्य में मेरा जितना विद्वान नहीं होगा। मैं बड़ा विद्वान समझा जाऊंगा और पारितोषिक के रूप में मुझे बहुत धन प्राप्त होगा, परन्तु  खोजबीन करने पर उसे ज्ञात हुआ कि राजा के दरबार में  एक से बढ़कर एक विद्वान हैं। उसने जनता से पता लगाया कि दरबारी दरबार से अपने घर किस समय लौटते हैं।
लोगों ने बताया कि दरबारी दस बजे लौट आते हैं। वह चालाक पंडित राजा के दरबार में ग्यारह बजे पहुँचा। राजा ने उससे  पूछा- क्या आप पंडित हैं? उसने उत्तर दिया मेरी गणना  भारी पंडितों में होती है। राजा बोला- मेरे दरबार में भी दो ऐसे महापंडित हैं जिनकी गणना संसार के महापंडितों में की जाती है। 
understand the meaning by being a scholar yourself Anmol Kahani

यह सुनकर मुँह बनाकर विदेशी पंडित बोला-मैं सब जानता हूँ, वे ही पंडित हैं न जो प्रात: काल आपके सम्मुख आकर निम्न शलोक बोला करते हैं-
शुक्लाम्बरधरं विष्णु शशिवर्ण चतुर्भुजम्‌। 
प्रसन्नवदं ध्यायेत्सर्व विघ्नोपशान्तये॥ 
राजा ने पूछा कि क्‍या यह श्लोक बुरा है। पंडित ने उत्तर दिया–बुरा तो नहीं, परन्तु प्रातः:काल ईश्वर के भजन के समय आपसे रुपयों की भिक्षा माँगते हैं। ऐसे आदमियों को पंडित नहीं कहा जा सकता। राजा ने पूछा–पंडित जी इस शलोक क्‍या अर्थ है? पंडित जी ने बताया इस शलोक का  अर्थ है रुपया पैसा। राजा ने पूछा–कैसे? पंडितजी ने  बताया-“शुक्लाम्बरधरं ” वह रुपया है, सफेद वस्त्र को धारण किये है, देखिये ऊपर से सफेद होता है या नहीं, फिर वह रुपया कैसा है? ”विष्णुम्‌” ”विश प्रवेश ने धातु से विष्णु बनता है, रुपया जगत में गमन करता है. 
आज आपके पास है चार दिन में इलाहाबाद पहुँच गया, दस दिन में अयोध्या में विराजमान हो गया, महीने भर बाद काशी पहुँच गया। फिर रुपया कैसा है, ”चतुर्भुजम्‌” उसके चार भुजाएँ हैं, देख लीजिए, एक रुपये में चार चवन्नी होती हैं। फिर  रुपया कैसा है? ”प्रसन्नव्दं ध्यायेत” यदि कोई रुपये का  ध्यान कर ले तो उसका चेहरा खिल उठता है। ”सर्व विघ्नोपशान्तये ” यदि मिल जाये तो संसार के समस्त दुःख समाप्त हो जायें। राजा ने इस विदेशी को बड़ा भारी पंडित समझा, एक ही घंटे में शलोक और अर्थ दोनों ही कण्ठस्थ कर लिए। डेढ़ घंटा बैठकर यह पंडित बोला मुझे एक बड़ा आवश्यक कार्य है, मुझे जाने की आज्ञा दीजिये। 
राजा ने अपने मन में सोचा इतना बड़ा भारी पंडित तो प्रारब्ध से ही मिलता है, इसलिए उसे कुछ समय रुकने के लिए कहा, परन्तु जब वह नहीं माना तो मजबूरी में उसे विदा कर दिया। दूसरे दिन प्रातः जब पंडित दरबारी आये तो राजा ने उनसे कहा–” शुक्लाम्बधरं विष्णुम” इस शलोक का अर्थ बताओ। दरबारी पंडितों ने बतलाया कि शुभ्र वस्त्र धारण किये हुए शशिवर्ण चतुर्भुजी प्रसन्नवदन विष्णु का ध्यान करने से समस्त विघ्न-बाधाएँ दूर हो जाती हैं। इस अर्थ को सुनकर राजा बोले कि तुमको कुछ नहीं आता। आज से तुम सब बर्खास्त किये जाते हो। सब विद्वान दरबारी अपने-अपने घरों को चले गये। 
राजा के दरबार में बड़े-बड़े अन्य विद्वान आये और राजा सबसे “शुक्लाम्बरधरम्‌”’ का अर्थ पूछते। इसका अर्थ सब विष्णु बतलाते, किसी ने भी इसका अर्थ रुपया नहीं बतलाया। राजा उन सबको भगा देते। वर्षों तक यही  चलता रहा। एक दिन धूर्त पंडित आया। उसने सब पता  लगाया। बात को समझ कर वह राजा के पास पहुँचा। राजा ने इससे भी ”शुक्लाम्बरधरम्‌ विष्णुम्‌” का अर्थ पूछा। उसने उत्तर दिया राजन! कोई मूर्ख इसका अर्थ रुपया बताते हैं। परन्तु रुपया इसका अर्थ सम्भव नहीं है। ”शुक्लाम्बरधरम्‌”  का अर्थ है सफेद वस्त्र धारण करने वाला। रुपया सफेद  वस्त्र थोड़े ही धारण किये हैं, वह तो स्वतः सफेद है, फिर हम  कैसे कह सकते हैं कि रुपये ने सफेद वस्त्र धारण कर रखे हैं। राजा ने पूछा तो फिर इसका अर्थ क्‍या है? पंडितजी ने कहा इसका अर्थ है दही बड़ा। राजा ने पूछा वह कैसे? पंडित जी ने कहा–दही बड़ा कैसे है कि “शुक्लाम्बरधरम्‌” स्वयं तो बदामी है और ऊपर दही रूप  सफेद वस्त्र धारण कर रखा है।
राजा ने कहा–‘विष्णुम्‌” का अर्थ बताओ। 
पंडित जी ने कहा-वश प्रवेश ने धातु का है प्रवेश करता है। दही बड़े को मुख में रखिये, न जीभ चलानी पड़े, न दाँत घिसाने पड़े, मुख में रखते ही झट नीचे पेट में प्रवेश कर जाता है, इसी कारण इसको “’विष्णु” कहते हैं।
राजा ने पूछा -”शशिवर्णम्‌”’ का क्‍या अर्थ होगा? पंडितजी बोले कि चन्द्रमा जैसा वर्ण दही बड़े का है, इसमें शंका की जरा सी भी गुंजायश नहीं है। राजा ने कहा कि शलोक में “चतुर्भुजम ” भी है। पंडित जी ने समझाया कि यह ठीक ही है, “चतुर्णा मनुष्याणां भुजम्‌ भोजनम्‌” चतुर मनुष्यों क्रा भोजन है, गंवार व्यक्ति क्या जाने दही बड़ा को खाना और “प्रसन्न बदन ध्यायेत” कहीं दही बड़े का ध्यान करें तो मुख प्रसन्‍न हो जाये, मुँह में पानी भर जाये । इस बात को नहीं मानते हो तो अन्दाज लो तुम्हारे मुँह में भी पानी भर जायेगा। ”सर्वविध्नोपशन्तये ” यदि खाने को प्राप्त हो जाए तो खुशी का रोग दूर हो जाये, फिर एक भी बाधा न रहे।
इस विलक्षण अर्थ को सुनकर राजा ने कहा कि पंडित जी आप हमारे दरबार में रहें। पंडितजी ने उत्तर दिया यदि आप हमसे पढ़ेंगे तो हम आपके दरबार में अवश्य रहेंगे। राजा ने पंडित जी की शर्त स्वीकार कर ली। पंडित जी दरबार में रहकर राजा को पढ़ाने लगे। चार वर्ष में पंडित ने राजा को लघु कौमुदी तथा अमर कोष का ज्ञान करा दिया। जब राजा विद्वान हो गया तो एक दिन रात को अपने आप स्वयं इस शलोक का अर्थ करने लगा। न तो इसका अर्थ रुपया और न दही बड़ा है। राजा ने फौरन पंडितजी को बुलाकर कहा कि हम अब तुम्हें फाँसी देंगे, क्योंकि तुमने हमारे साथ धोखा किया है। ”शुक्लाम्बरधरम्‌” इस शलोक का अर्थ दही बड़ा नहीं होता। आपने “’विष्णु” विशेष्य को भी विशेषण बना दिया। श्लोक में विशेषण कर दिये विशेष्य एक भी न रहा, इसका अर्थ तो विष्णु ही बनता है। तुमने हमको धोखे में डाला है। अब हम तुमको फॉसी पर जरूर चढ़ायेंगे।  
यह सुनकर पंडित ने कहा यदि आपको फाँसी ही देनी है तो उसकी दीजिए जिसने आपको इस श्लोक का अर्थ रुपया बताया था तथा हमनें तो रुपया रूप अर्थ जाल में से निकालने के लिए तुमको इसका अर्थ दही बड़ा बताया था। हम इसका अर्थ दही बड़ा न बताते तो आप रुपया के जाल से नहीं निकल सकते थे। बनावटी अर्थ बनाकर आपको इस जाल से निकाला फिर पढ़ा कर तुमको विद्वान बनाया। अब हम आपको समझा सकते हैं कि इस शलोक का अर्थ विष्णु है।पर दिन तो आप दस हजार पंडितों के समझाने पर भी नहीं मानते।
राजा ने पंडित के चरण पकड़ लिए और पश्चाताप्‌ करने लगा। जो पंडित पहले उसने बर्खास्त कर दिये थे उनको बुलाकर उनसे राजनीति और धर्म की बातें सीखीं। 
है सज्जनों! जब मनुष्य सांसारिक व्यवहार में धोखा खाकर पछताता है तो फिर धर्म में धोखा खाकर तुमको पछताना पड़ेगा, इसका विचार तुम न करो। धर्म ज्ञान की हेतु पढ़ना और विद्या बुद्धि के द्वारा सत्य धर्म की कर उसके चरणों में सिर झुकाना मनुष्य मात्र का मुख्य कर्तव्य है।
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