Search

आत्मज्ञान से परम् शांति – Ultimate peace with enlightenment

आत्मज्ञान से परमशाँति

“करोतु भुवने राज्य विशत्वाग्भोदमम्ववा।

नात्मलाभाद्दते जन्तु विश्रान्तिमधिगच्छति॥” चाहे त्रिभुवन का राज्य मिल जाय, चाहे मेघ या जल के भीतर कोई प्रवेश कर ले, आत्म ज्ञान की प्राप्ति के बिना किसी को भी शान्ति नहीं मिलती। जो अपना कल्याण करना चाहता हो उसको चाहिये कि आत्म-ज्ञान के लिये प्रयत्न करे क्योंकि सब दुखों का नाश आत्मानुभव से होता है। यदि परम आत्मा का ज्ञान हो जाय तो सारे दुख का प्रवाह इस प्रकार नष्ट हो जायगा जिस प्रकार विष का प्रवाह खतम होते ही पियूचि का रोग शान्त हो जाता है। चित्त की शुद्धि से ही आत्मज्ञान होता है। सबसे पहली बात जो साधक को करनी चाहिये वह है मन की शुद्धि। क्योंकि बिना चित्त के शुद्ध हुए उसमें आत्मा का प्रकाश नहीं होता। मन शुद्ध हुए बिना न शास्त्र ही समझ में आते हैं और न गुरु के वाक्य, आत्मानुभव होना तो दूर रहा। इसलिये कहा है- “पूर्व राघव शास्त्रेण वैराग्येण परेणच।” तथा “सज्जन संगेन नीयताँ पुण्यताँ मनः।” सबसे पहले शास्त्रों के श्रवण से सज्जनों के सत्संग से और परम वैराग्य से मन को पवित्र करो। वैराग्य शास्त्र और उदारता आदि गुणरूपी यत्न से आपत्तियों को मिटाने के लिये आप ही मन को शुद्ध बनाना चाहिए।

7340992978 492261264f z

शास्त्राध्ययन सज्जनों के संग और शुत कर्मों के करने से जिनके पाप दूर हो गये हैं उनकी बुद्धि दीपक के समान चमकने वाली होकर सार वस्तु को जानने के योग्य हो जाती है। जब भोगों की वासनाएं त्यागकर देने पर इन्द्रियों की कुत्सित वृत्तियों के रुक जाने पर मन शान्त हो जाता है तब ही गुरु की शुद्धि वाणी मन में प्रवेश करती है, जैसे कि केसर के जल के छींटे श्वेत और धुले हुए रेशम पर ही लगते हैं। जब मन से वासना रूपी मल दूर हो गया तभी कमल दण्ड से तीर के समान गुरु वाक्य हृदय में प्रवेश करते हैं।

Share this article :
Facebook
Twitter
LinkedIn

Leave a Reply