सच्ची निष्ठा भगवान गणेश जी की कहानी
( गणेश जी की कृपा )
पहले समय की बात है। सिंधु देश की पलली नगरी में कल्याण नाम का एक धनी सेठ रहता था। उसकी पत्नी का नाम इन्दुमती था। विवाह होने के बहुत दिनों के बाद उनके पुत्र हुआ उसके जन्मोत्सव में उन लोगों ने अनेक दान-पुण्य किये, राग-रंग और आमोद-प्रमोद में पर्याप्त धन व्यय किया। उसका नाम रखा गया बल्लाल वह उन दोनों के नयनों का तारा था।
“कितना मनोरम वन है!’ सरोवर में अपने समवयस्क बाल गोपालों के साथ स्नान करते हुए बल्लाल ने अपने कथन का समर्थन कराना चाहा। वह उन्हें नित्य अपने. : साथ लेकर पल्ली से थोड़ी दूर स्थित वन में आकर सैर-सपाटा किया करता था। बालकों ने उसकी ‘हाँ में-हाँ’ मिलायी।
“चलो, हम लोग भगवान् विष्नेश्वर श्रीगणेश देवता की पूजा करें; उनको कृपा से समस्त संकट मिट जाते हैं।’ बललाल ने सरोवर के किनारे एक छोटे-से पत्थर को श्रीगणेश का श्रीविग्रह मानकर बालकों को पूजा करने की प्रेरणा दी। उसने श्रीगणेश-महिमा के सम्बन्ध में अनेक बातें घर पर सुनी थीं।
लता-पत्र एकत्र कर बालकों ने एक मण्डप बना लिया; उसमें तथाकथित श्रीगणेश-विग्रह की स्थापना करके मानसिक पूजा-फूल, धूप, दीप, नेवेद्य, फल, ताम्बूल, दक्षिणा आदि से –आरम्भ की। उनमेंसे कई एक पण्डितोंका स्वॉग बनाकर पुराणों और शास्त्रोंकी चर्चा करने लगे। इस प्रकार श्रीगणेशकी उपासनामें उनका मन लग गया। वे दोपहरको भोजन करने घर नहीं आते थे, इसलिये दुबले हो गये। उनके पिताओंने कल्याण सेठसे कहा कि यदि बललालका वनमें जाना नहीं रोक दिया जायगा तो हमलोग राजासे शिकायत करके आपको पल्लीनगरीसे बाहर निकलतवा देंगे। कल्याणका मन चिन्तित हो उठा।
‘ये तो नकली गणेश हैं, बच्चो। असली गणेशजी तो हृदयमें रहते हैं।’ कल्याणने हाथके डंडेसे बललालको सावधान किया।
‘पिताजी, आप जो कुछ भी कह रहे हैं, वह आपकी दृष्टिमें नितान्त सच है; पर मेरी निष्ठा तो श्रीगणेशके इसी श्रीविग्रहमें है। मैं पूजा नहीं छोड़ सकता।” बल्लालका इतना कहना था कि सेटठने ठसे मारता आरम्भ किया; अन्य बालक भाग निकले। सेटने मण्डप तोड़ डाला; बलल््लालको एक मोटे-से रस्सेसे पेड़के तनेमें बाँध दिया।
“यदि इम विग्रहमें श्रीगणेशजी हंंगे तो तुम्हारा बन्धन खुल जायगा। इस निर्जन वनमें वे ही तुम्हारी रक्षा करेंगे! कल्याणने घरका रास्ता लिया।
“निम्मन्देह श्रीगणेशजी ही मेंरे माता-पिता हैं। वे दयामय ही मेरी रक्षा करेंगे। वे विच्र विदाग्क, सिद्धिदायक, सर्वसमर्थ हैं। मैं उनकी शरणमें अभय हूँ।” बल्लालकी निष्ठा बोल उठी; वह हृदयमें करुणाका वेग समेटकर निर्निमेष दृष्टिसे श्रीगणेशके विग्रहकों देखने लगा।
“मेरा तन भले ही बाँधा जाय, पर मेरा मन स्वतन्त्र है; मैं अपना प्राण श्रीगणेशके चरणंमें अर्पित करूँगा।’ बल्लालके इस निश्चयसे पापाणसे श्रीगणेशजी प्रकट हो गये।
“तुम्हारी निष्ठा धन्य है, वत्स।” श्रीगणशने उसका आलिड्भन किया। वह बन्धनमुक्त हो गया। उसने अपने
आराध्यकी जी भर स्तुति की। गणेशजीने अभय दान दिया, और अततर्धात हो गये।