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यह जगत है परिवर्तन का – This is the world of change

यह जगत है परिवर्तन का

तुम्हें एक चेहरा दिखाई देता है, बहुत सुंदर है। और जब तुम उस सुंदर रूप को देखते हो तो भाव होता है कि यह रूप सदा ही ऐसा रहेगा। इस बात को ठीक से समझ लो। ऐसी अपेक्षा कभी मत करो कि यह सौंदर्य हमेशा रहेगा। और अगर तुम जानते हो कि यह रूप तेजी से बदल रहा है, कि यह इस क्षण सुंदर है और अगले क्षण कुरूप हो जा सकता है तो फिर आसक्ति कैसे पैदा होगी? असंभव है। एक शरीर को देखो, वह जीवित है; अगले क्षण वह मृत हो सकता है। अगर तुम परिवर्तन को समझो तो सब व्यर्थ है। बुद्ध ने अपना राजमहल छोड़ दिया, परिवार छोड़ दिया, सुंदर पत्नी छोड़ दी, प्यारा पुत्र छोड़ दिया। और जब किसी ने पूछा कि क्यों छोड़ रहे हैं तो उन्होंने कहा- ‘जहां कुछ भी स्थायी नहीं है, वहां रहने का क्या प्रयोजन? बच्चा एक न एक दिन मर जाएगा।’ बच्चे का जन्म उसी रात हुआ था, जिस रात बुद्ध ने महल छोड़ा। उसके जन्म के कुछ घंटे ही हुए थे। बुद्ध उसे अंतिम बार देखने के लिए अपनी पत्नी के कमरे में गए। पत्नी की पीठ दरवाजे की तरफ थी और वह बच्चे को अपनी बांहों में लेकर सोई थी। बुद्ध ने अलविदा कहना चाहा, लेकिन वे झिझके। उन्होंने कहा, ‘क्या प्रयोजन है?’ एक क्षण उनके मन में यह विचार कौंधा और कहा- ‘क्या प्रयोजन है? सब तो बदल रहा है। आज बच्चा पैदा हुआ है, कल वह मरेगा। एक दिन पहले वह नहीं था, अभी वह है, और एक दिन फिर नहीं हो जाएगा। तो क्या प्रयोजन है? सब कुछ तो बदल रहा है।’ वे मुड़े और विदा हो गए।

जब किसी ने पूछा कि आपने क्यों सब कुछ छोड़ दिया? तो बुद्ध ने कहा- ‘मैं उसकी खोज में हूं, जो कभी नहीं बदलता, जो शाश्वत है। यदि मैं परिवर्तनशील के साथ अटका रहूंगा तो निराशा ही हाथ आएगी। क्षणभंगुर से आसक्त होना मूढ़ता है; वह कभी ठहरने वाला नहीं है। मैं मूढ़ बनूंगा और हताशा हाथ लगेगी। मैं तो उसकी खोज कर रहा हूं, जो कभी नहीं बदलता, जो नित्य है। अगर कुछ शाश्वत है तो ही जीवन में अर्थ है, जीवन में मूल्य है, अन्यथा सब व्यर्थ है।’ बुद्ध की समस्त देशना का आधार परिवर्तन था। यह सूत्र सुंदर है। यह सूत्र कहता है- ‘परिवर्तन के द्वारा परिवर्तन को विसर्जित करो।’ बुद्ध कभी दूसरा हिस्सा नहीं कहेंगे; यह दूसरा हिस्सा बुनियादी रूप से तंत्र से आया है। बुद्ध इतना ही कहेंगे कि सब कुछ परिवर्तनशील है। इसे अनुभव करो। फिर तुम्हें आसक्ति नहीं होगी। और जब आसक्ति नहीं रहेगी तो धीरे-धीरे अनित्य को छोड़ते-छोड़ते तुम अपने केंद्र पर पहुंच जाओगे, उस केंद्र पर आ जाओगे, जो नित्य है, शाश्वत है। परिवर्तन को छोड़ते जाओ, तुम अपरिवर्तन पर, केंद्र पर, चक्र के केंद्र पर पहुंच जाओगे।

इसीलिए बुद्ध ने चक्र को अपने धर्म का प्रतीक बनाया, क्योंकि चक्र चलता रहता है, लेकिन उसकी धुरी, जिसके सहारे चक्र चलता है, ठहरी रहती है, स्थायी है। तो संसार चक्र की भांति चलता रहता है, तुम्हारा व्यक्तित्व चक्र की भांति बदलता रहता है, और तुम्हारा अंतरस्थ तत्व अचल धुरी बना रहता है, जिसके सहारे चक्र गति करता है। धुरी अचल रहती है। बुद्ध कहेंगे कि जीवन परिवर्तन है; वे सूत्र के पहले हिस्से से सहमत होंगे। लेकिन दूसरा हिस्सा तंत्र से आया है- ‘परिवर्तन से परिवर्तन को विसर्जित करो।’ तंत्र कहता है कि जो परिवर्तनशील है, उसे छोड़ो मत, उसमें उतरो, उसमें जाओ। उससे आसक्त मत होओ, लेकिन उसमें जाओ, उसे जीओ। डरना क्या है? उसमें उतरो; उसे जी लो। उसे घटित होने दो और तुम उसमें गति कर जाओ। उसे उसके द्वारा ही विसर्जित करो। डरो मत; भागो मत। भाग कर कहां जाओगे? इससे बचोगे कैसे? सब जगह तो परिवर्तन है।

तंत्र कहता है, बदलाहट सब जगह है। तुम भाग कर कहां जाओगे? कहां जा सकते हो? जहां भी जाओगे, वहां बदलाहट ही मिलेगी। सब भागना व्यर्थ है; भागने की कोशिश ही मत करो। तब करना क्या है? आसक्ति मत निर्मित करो। जीवन परिवर्तन है; तुम परिवर्तन हो जाओ। उसके साथ कोई संघर्ष मत खड़ा करो। उसके साथ बहो। नदी बह रही है, उसके साथ बहो। तैरो भी मत; नदी को ही तुम्हें ले जाने दो। उसके साथ लड़ो मत; उससे लड़ने में अपनी शक्ति मत गंवाओ। विश्राम में रहो, और जो होता है, उसे होने दो। नदी के साथ बहो। इससे क्या होगा? अगर तुम नदी के साथ बिना संघर्ष किए बह सके, बिना किसी शर्त के बह सके, अगर नदी की दिशा ही तुम्हारी दिशा हो जाए तो तुम्हें अचानक यह बोध होगा कि मैं नदी नहीं हूं। तुम्हें यह बोध होगा कि मैं नदी नहीं हूं।

इसे अनुभव करो; किसी दिन नदी में उतर कर इसका प्रयोग करो। नदी में उतरो, विश्रामपूर्ण रहो और अपने को नदी के हाथों में छोड़ दो; उसे तुम्हें बहा ले जाने दो। लड़ो मत; नदी के साथ एक हो जाओ। तब अचानक तुम्हें अनुभव होगा कि चारों तरफ नदी है, लेकिन मैं नदी नहीं हूं। यदि नदी से लड़ोगे तो तुम यह बात भूल जा सकते हो। इसीलिए तंत्र कहता है- ‘परिवर्तन से परिवर्तन को विसर्जित करो।’ लड़ो नहीं; लड़ने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि परिवर्तन तुममें प्रवेश नहीं कर सकता। डरो नहीं; संसार में रहो। डरो मत, क्योंकि संसार तुममें प्रवेश नहीं कर सकता। उसे जीओ। कोई चुनाव मत करो। दो तरह के लोग हैं।

एक वे हैं, जो परिवर्तन के जगत से चिपके रहते हैं और एक वे हैं, जो उससे भाग जाते हैं। लेकिन तंत्र कहता है कि जगत परिवर्तन है, इसलिए उससे चिपकना और उससे भागना दोनों व्यर्थ है। बुद्ध कहते हैं- ‘इस परिवर्तनशील में रहने से क्या प्रयोजन है?’ और तंत्र कहता है- ‘इससे भागने का क्या प्रयोजन है?’ दोनों व्यर्थ हैं। उसे बदलते रहने दो; तुम्हें उससे कुछ लेना-देना नहीं है। वह बदल ही रहा है; उसके लिए तुम्हारी जरूरत भी नहीं है। तुम नहीं थे और संसार बदल रहा था; तुम नहीं रहोगे और संसार बदलता रहेगा। फिर इसके लिए शोरगुल क्या करना?

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