मौन में बड़ी शक्ति है
सभी पांडव शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरु द्रोणाचार्य के यहां गए। वे परिश्रमी थे और अपना पाठ भली भांति याद कर लेते थे। युधिष्ठिर भी योग्य थे, परंतु किसी कारणवश वे अपने एक विशेष पाठ पर अंटक गए। गुरु के पूछने पर बताया, इसमें लिखा है कि सच बोलो। जब तक मैं इसे अपने स्वभाव में नहीं उतार लेता, मेरा ज्ञान वास्तविक नहीं होगा और मैं इस पाठ से आगे नहीं बढ़ा पाऊंगा।
धर्म के दस लक्षणों में एक लक्षण सचाई भी है। सामान्य तौर पर यह लक्षण वाणी से जुड़ा है। अर्थात जो देखा, सुना या समझा गया हो। यह सत्य की एक सरल परिभाषा है। पर ‘सत्यता’ का केवल यही आशय नहीं है। यद्यपि यह लक्षण उत्तम है, तब भी परिस्थितियों के अनुसार आप कभी इस अर्थ का त्याग भी कर सकते हैं।
उदाहरण के तौर पर यदि कोई व्यक्ति किसी असाध्य रोग से पीडि़त है, तो उसे ऐसा डाक्टरी तथ्य बताना ‘सत्य’ का पालन नहीं है। उसे कुछ प्रोत्साहित करने वाली बातें कहनी चाहिए। इससे उसकी पीड़ा कुछ कम हो सकती है, उसके बचने के आसार बढ़ सकते हैं। रोगी को वास्तविक डाक्टरी मत बताने से उसका साहस पस्त होगा। ऐसी सचाई झूठ बोलने से भी बुरी है, जिसका प्रभाव केवल घातक ही हो।
निस्संदेह सचाई एक श्रेष्ठ गुण है। कथनी और करनी के बीच तालमेल होना एक कुलीन गुण है। इसे प्रतिदिन के जीवन में उतारना चाहिए। पर कई बार बीते हुए कल के बारे में मौन रहना ज्यादा अच्छा होता है। यदि उनका खुलासा करने से एक नया तूफान खड़ा होता हो, तो वैसे अतीत के लिए मौन साध लेना ही ‘सत्यता’ है। उस मौन में शांति बनाए रखने की शक्ति है।
महाभारत के युद्ध में द्रोणाचार्य ने घातक ब्रह्मास्त्रों के प्रयोग शुरू किए, जिससे पांडव सेना की भारी क्षति हुई। कृष्ण को इससे बड़ा दुख हुआ। वे धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं, हम सब की रक्षा के लिए यदि आप असत्य का भी आश्रय लेते हैं तो आप को दोष नही लगेगा। लाखों लोगों की रक्षा के लिए बोला गया झूठ अधर्म नहीं हो सकता।
इस संहार को रोकने का उपाय था द्रोणाचार्य का मनोबल गिरा कर उनसे शस्त्र छुड़वा देना। अत: एक पूर्वनिश्चित योजना के अनुसार युधिष्ठिर ने जोर से कहा, अश्वत्थामा मारा गया। इसके बाद धीरे से बोले, अश्वत्थामा नाम का आदमी या हाथी। इसे द्रोणाचार्य अपने पुत्र अश्वत्थामा की मृत्यु का समाचार जान कर शस्त्र छोड़ देते हैं और दृष्टधुम्न की हत्या हो जाती है। पर प्रत्यक्षत: अनीतिपूर्ण और अनुचित लगने वाले कृष्ण के ये वचन वास्तव में धर्मप्रेरित थे।
यह पौराणिक कथा बताने का मतलब झूठ को बढ़ावा देना नहीं है। हमारा उद्देश्य यह साबित करना भी नहीं है कि सत्य का पालन व्यावहारिक नहीं। ईमानदारी वास्तव में धर्मानुरूप व नीतिपूर्ण आचरण से संबंधित है और प्रतिदिन के व्यवहार में उसका अवश्य पालन करना चाहिए। हम मिलावट न करें, अनैतिक लाभ न लें, अधिक मूल्य नहीं वसूलें, हमारे नापतौल सही हों, बहीखाते पारदर्शी हों। लेकिन यह भी सही नहीं है कि हम हरिश्चंद्र बन कर किसी
चोर या ठग को अपनी धन- संपत्ति के बारे में बता दें, जिससे उसे चोरी या डाका डालने में मदद मिले।
निस्संदेह हमें प्रतिदिन के व्यवहार में सत्यता और ईमानदारी का पालन करना चाहिए। जितना कम से कम हेरी-फेरी में उलझेंगे, हमारी आत्मा उतनी ही साफ होगी, हमारे शारीरिक और बौद्धिक विकार कम से कम होंगे। पर जीवन में बहुत बार ऐसे मौके आते हैं जहां मौन ही सोना है। कम बोलना, मीठा बोलना और अच्छाई के लिए बोलना ही बुद्धिमत्ता है। यह सत्यता का निचोड़ है। अपने तथ्यों को बिना कारण किसी को बताना अपने लिए शत्रु पैदा करना है। सचाई की डगर पर चलें, लेकिन ऐसा तालमेल रखते हुए कि सामाजिक शांति, अनुरूपता बनी रहे, आत्म सम्मान और मन की शांति बनी रहे।