मौन में हैं वाणी की समर्थता
प्रेम में वह शक्ति है जिसके कारण ईश्वर को अपना नियम बदलने को बाध्य होना पड़ता है। प्रेम के वशीभूत होकर पशु-पक्षी भी मित्र बन जाते हैं। वस्तुतः प्रेम दो प्रकार का होता है एक वाह्य या सांसारिक प्रेम जिसे सामान्य अर्थ में व्यवहार कुशलता भी कहा जा सकता है। दूसरा आंतरिक प्रेम सच्चे अर्थों में प्रेम अंतःकरण की वह स्थिति है जिसके कारण आनंद कंद परमात्मा मनुष्य के मन मंदिर में अनायास ही प्रतिष्ठित हो जाता है। ऐसी स्थिति में पहुँचा व्यक्ति जहाँ भी पहुँचता है वहाँ से वैरभाव तिरोहित होकर सर्वत्र आह्लाद का वातावरण छा जाता है।
प्रेम ही अहिंसा की प्रतिष्ठा करता है। यहाँ एक विचारणीय प्रश्न उपस्थित होता है कि अहिंसा से प्रेम प्रकट होता है या प्रेम से अहिंसा? गहन विचार करने पर यह लगता है कि प्रेम से ही अहिंसा प्रकट होती है। क्योंकि जहाँ प्रेम है वहाँ परमात्मा है जहाँ परमात्मा है वहाँ हिंसा हो ही नहीं सकती। श्रीराम चरित मानस में भगवान श्री राम की प्राप्ति के लिए प्रेम को ही प्रमुख बताते हुए तुलसीदास जी लिखते हैं- ‘रामहिं केवल प्रेम पिचारा, जानिलेहु जे जाननि हारा।’
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आजकल प्रायः यह समझा जाता है एक-दूसरे के प्रति आकर्षण ही प्रेम है। वस्तुतः प्रेम तत्व बहुत गहरा है प्रेम के मूल में ईश्वर के प्रति शरणागति ही आधार तत्व है। प्रेमी और प्रेमास्पद की स्थिति प्रदर्शन की नहीं अपितु मौन में गहन चिंतन की होती है। सांसारिक दृष्टि से भी प्रेमी और प्रेमिका के संयोग क्षणों की अपेक्षा वियोगा अवस्था अधिक स्मरणीय होती है, जिसका एक-एक पल मौन होते हुए भी न जाने कितनी बातों को मन-मस्तिस्क में तरंगित करने लगता है लेकिन परमात्मा से प्रेम की स्थिति तो अवर्णननीय आनन्द से भरी कशमकश होती है। प्रेम की इस स्थिति का केवल मौन रहकर अनुभव ही किया जा सकता है।
प्रेम की यह स्थिति गूँगे के स्वाद की तरह है वह चाहता है कि स्वाद को व्यक्त करें लेकिन उसके पास उस मधुरता को व्यक्त करने के लिए वाणी नहीं है। अतः यह कहा जा सकता है कि प्रेम तत्व तक पहुँचना शब्दों के वश में नहीं है। शब्द शांत हों तो प्रेम प्रकट हो और यह भी यथार्थ है कि जो शब्दों से पार खड़ा हो जाता है वह वर्णन करने में असमर्थ हो जाता है।
यहाँ एक बात यह भी विचारणीय है कि गूँगा आस्वाद को व्यक्त करने के लिए चेष्टाएँ तो करता है लेकिन प्रेम तो केवल प्रेम में ही डूब जाता है। वहाँ चेष्टाओं के लिए भी कोई स्थान नहीं है। वर्णन की कोई कामना शेष नहीं रह जाती क्योंकि न बोल सकें तो भी बोलना नहीं होता और बोलना चाहें तो भी बोलना नहीं होता है। दोनों प्रकार के न बोलने में बड़ा अंतर है क्योंकि एक में असमर्थता है तथा दूसरे में पूर्णता है।
वस्तुतः जो प्रेम में डूबता है, वह प्रेम ही बन जाता है। जो राम में डूबता है, वह राम ही हो जाता है। वेदांत दर्शन के अनुसार परमात्मा में प्रवेश और तदाकार वृत्ति एक साथ होती है। इसमें एक क्रम होता है और अनेक भी। इस विविधता के होते हुए भी रस की एक ही प्रतीति होती है। यह एक ऐसी चमत्कारपूर्ण घटना है जो कैसे, कब घटित हो जाती है यह बताना संभव नहीं।