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धीरताकी पराकाष्टा

जिन दिनों महाराज युधिष्ठिरके अश्वमेध-यज्ञका उपक्रम चल रहा था, उन्हीं दिनों रत्रपुराधीश्वर महाराज * पिरय्ध्वजका भी अश्वमेधीय अश्व छूटा था, इधर ‘ एण्डवीय अश्वकी रक्षामें श्रीकृष्ण-अर्जुन थे, उधर ‘ वप्रध्व्ज। मणिपुरमें दोनोंकी मुठभेड़ हो गयी। युद्धमें भगवदिच्छासे ही अर्जुनको पराजित करके ताम्रध्वज दोनों अश्लोंकी अपने पिताके पास ले गया। पर इससे प्रहागज मयूरध्वजके मनमें हर्षके स्थानपर घोर विषाद ही हुआ। कारण, वे श्रीकृष्णके अद्वितीय भक्त थे। इ्धर जब अर्जुनकी मूर्च्छा टूटी, तब वे घोड़ेके लिये बेतरह व्यग्र हो उठे। भक्त-परवश प्रभुने ब्राह्मणका वेष बनाया और अर्जुनको अपना चेला। बे राजाके पास पहुँचे। राजा मयूरध्वज इन लोगोंके तेजसे चकित हो गये। वे इन्हें प्रणाम करनेवाले ही थे कि इन लोगोंने स्वस्ति कहकर उन्हें पहले ही आशीर्वाद दे दिया। राजाने इनके इस कर्मकी बड़ी भर्त्सना की। फिर इनके पधारनेका कारण पूछा। श्रीकृष्णने कहा–‘मेरे पुत्रको सिंहने पकड़ लिया है। मैंने उससे बार-बार प्रार्थना की जिससे वह मेरे एकमात्र पुत्रको किसी प्रकार छोड़ दे। यहाँतक कि मैं स्वयं अपनेको उसके बदलेमें देनेको तैयार हो गया, पर उसने एक न मानी। बहुत अनुनयविनय करनेपर उसने यह स्वीकार किया है कि राजा मयूरध्वज पूर्ण प्रसन्नताके साथ अपने दक्षिणाड़्को + अपनी स्त्री-पुत्रके द्वारा चिरवाकर दे सकें तो मैं तुम्हारे : पुत्रको छोड़ सकता हूँ।’ राजाने ब्राह्मणरूप श्रीकृष्णका प्रस्ताव मान लिया। * उनकी रानीने अर्द्धांड्रिनी होनेके नाते अपना शरीर देना चाहा, पर ब्राह्मणने दक्षिणाड़की आवश्यकता बतलायी। * पुत्रने अपनेको पिताकी प्रतिमूर्ति बतलाकर अपना 1 अड़ देना चाहा, पर ब्राह्मणणने वह भी अस्वीकार * कर दिया। । अन्तमें दो खंभोंके बीच “गोविन्द, माधव, मुकुन्द’ : आदि नाम लेते महाराज बैठ गये। आरा लेकर रानी तथा : ताम्रध्वज चीरने लगे। जब महाराज मयूरध्वजका सिर * चीरा जाने लगा, तब उनकी बायीं आँखसे आँसूकी बूँदें. निकल गयीं। इसपर ब्राह्मणने कहा–‘दुःखसे दी हुई -< वस्तु मैं नहीं लेता।’ मयूरध्बजने कहा–‘ आँसू निकलनेका .< यह भाव नहीं है कि शरीर काटनेसे मुझे दुःख हो रहा  है। बायें अज़्को इस बातका क्लेश है-हम एक हो साथ जन्मे और बढ़े, पर हमारा दुर्भाग्य जो हम दक्षिणाड्रके साथ ब्राह्मणके काम न आ सके। इसीसे बायीं आँखमें आँसू आ गये।’ 
अब प्रभुने अपने-आपको प्रकट कर दिया। शहद, चक्र-गदा धारण किये, पीताम्बर पहने, सघन नीलवर्ण, दिव्य ज्योत्स्रामय श्रीश्यामसुन्दरने ज्यों ही अपने अमृतमय कर-कमलसे राजाके शरीरको स्पर्श किया, वह पहलेकी अपेक्षा भी अधिक सुन्दर, युवा तथा पुष्ट हो गया। वे सब प्रभुके चरणोंपर गिरकर स्तुति करने लगे। प्रभुने उन्हें वर मॉगनेको कहा। राजाने प्रभुके चरणोंमें निश्ल प्रेमकी तथा भविष्यमें “ऐसी कठोर परीक्षा किसीकी न झनत प्रारथा की। अन्तमें तीन दिनोंतक ग्रहणकर घोड़ा लेकर श्रीकृष्ण तथी अर्जुन वहाँ आगे बढ़े। 
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