ब्रजवासियो के टुकड़ों में जो आनन्द है, वह अन्यत्र कहीं नहीं है।
श्री वृन्दावनधाम के बाबा श्रीश्रीरामकृष्णदासजी महाराज बड़े ही उच्चकोटि के महापुरुष थे। आप गौड़ीय सम्प्रदाय के महान् विद्वान्, घोर त्यागी, तपस्वी संत थे। आप प्रातःकाल चार बजे श्रीयमुनाजीका स्नान करके अपनी गुफा में बैठा करते थे और भजन-ध्यान करके संध्याके समय बाहर निकलते थे। आप स्वयं व्रजवासियों के घर जाकर सूखे टूक माँग लाते और श्रीयमुनाजलमें भिगोकर उन्हें पा लेते। फिर भजन-ध्यानमें लग जाते।
बड़े-बड़े राजा-महाराजा करोड़पति सेठ आपके दर्शनार्थ आते, पर आप लाख प्रार्थना करनेपर भी न तो व्रज से
कहीं बाहर जाते और न किसीसे एक पाई लेते तथा न किसीका कुछ खाते। मिट्टीका करवा, कौपीन और व्रज के टूक-यही आपकी सारी सम्पत्ति थी। एक दिन मोटरकारमें राजस्थानके एक राजा साहब आये। उनके साथ फलों से भरे कई टोकरे थे। टोकरोंको नौकरोंसे उठवाकर राजा साहब बाबाके पास पहुँचे और साष्टाङ्ग प्रणाम करके उन्होंने टोकरे सामने रखवा दिये। बाबाने पूछा-‘कहाँ रहते हो?’ राजा साहब-जयपुर-जोधपुरकी तरफ एक छोटी-सी रियासत है।
बाबा-क्यों आये?
राजा साहब-दर्शन करने के लिये।
बाबा-इन टोकरों में क्या है?
राजा साहब-इनमें सेब, संतरे, अनार, अंगूर आणि फल हैं। बाबा-इन्हें क्यों लाये? राजा साहब-महाराज! आपके लिये। बाबा-हम इनका क्या करेंगे? राजा साहब-महाराज! इन्हें पाइये। बाबा-भाई! हमें इन फलोंसे क्या मतलब। हम तो व्रज-चौरासीको छोड़कर इन्द्र बुलाये तो भी न तो कहीं जायेंगे और न व्रजवासियोंके घरोंसे माँगे टक छोड़कर छप्पन प्रकारके भोजन मिलते हों तो उनकी ओर आँख उठाकर देखेंगे। हम तो अपने लालाके घर में हैं और उसीके घरके व्रजवासियों के टूक माँगकर खाते हैं तथा लालाका स्मरण करते हैं। हमें तुम्हारे यह फल आदि नहीं चाहिये। इन्हें ले जाकर और किसीको दे दो। भैया! कन्हैयाके इन व्रजवासियोंके सूखे टुकड़ों में जो आनन्द है वह अन्यत्र कहीं भी नहीं है। राजा साहब यह सुनकर चकित हो गये।