श्री चैत्तन्य का महान् त्याग
श्रीचैतन्य महाप्रभु उन दिनों नबद्वीप में निमाईं के नाम सै ही जाने जाते थे । उनकी अवस्था केवल सोलह वर्ष की थी। च्याकरण की शिक्षा समाप्त करके उन्हीं ने न्याय शास्त्र का महान् अध्ययन किया और उस पर एक ग्रन्थ भी लिख रहे थे । उनके सहपाठी पं० श्रीरघुनाथजी उन्हीं दिनों न्याय पर अपना ‘दीधिति’ नामक ग्रन्थ लिख रहे थे, जो इस विषय का प्रख्यात ग्रन्थ माना जाता है ।
पं० श्रीरघुनाथजी को पता लगा कि निभाईं भी न्याय पर कोई ग्रन्थ लिख रहे हैँ । उन्होंने उस ग्रन्थ को देखने की इच्छा प्रकट की। दूसरे दिन निभाई अपना म्रन्थ साथ ले आये और पाठशाला के मार्ग मे जब दोनों साथी नौका पर बैठे तब वहीं निमाई अपना ग्रन्थ सुनाने लगे । उस ग्रन्थ को सुनने से रघुनाथ पण्डित को बडा दुख हुआ। उनके नेत्रों से आँसू की बूंदे टपकने लगीं ।
The Great Sacrifice of Shri Chaitranya |
पढते-पढते निमाई ने बीच में सिर उठाया और रघुनाथ को रोते देखा तो आश्चर्य से बोले… भैया ! तुम रो क्यों रहे हो ?
रघुनाथ ने सरल भाव से कहा-मैं इस अभिलाषा सै एक भ्रन्थ लिख रहा था कि वह न्याय शास्त्र का सर्वश्रेष्ठ म्रन्थ माना जाय; किंतु मेरी आशा नष्ट हो गयी । तुम्हारे इस ग्रन्थ के सम्मुख मेरे भ्रन्थ क्रो पूछेगा कौन
‘बस, इतनी-सो बात के लिये आप इतने संतप्त हो रहे हैं ! ‘ निभाई तो चालकों के समान खुलकर हँस षड़े । बहुत बुरी है यह पुस्तक, जिसने मेरे मित्र क्रो इतना कष्ट दिया ! ‘ रघुनाथ कुछ समझें, इससे पूर्व तो निमाई ने अपने ग्रन्थ क्रो उठाकर गङ्ग भजी में बहा दिया । उसके फो भगवती भागीरथी कौ लहरों पर बिखरकर तैरने लगे ।
रघुनाथ के मुख से दो क्षण तो एक शब्द भी नहीं निकला और फिर वे निमाई के पेरों पर गिरने क्रो झुक पड्रे; किंतु निमाई की विशाल भुजाओँ ने उन्हें रोककर हदय से लगा लिया था ।