अध्यात्म की पहली सीढ़ी है स्वयं को साधना।
स्वयं को साधने के लिए सबसे पहले मौन होना होगा। पर क्या दूसरों से बातचीत बंद कर देना ही मौन है?
मौन का हम सीधा मतलब निकालते हैं-लोगों से बातचीत बंद कर संपर्क काट लेना, जबकि इसका सही अर्थ है निर्विचार हो जाना। मन-मस्तिष्क में उठने वाले विचारों से हमारा मन विचलित हो जाता है। किसी भी व्यक्ति
के विचार इस बात पर निर्भर करते हैं कि वह कैसे माहौल में रह रहा है या कैसा जीवन जी रहा है। अतीत की
यादें और भविष्य की कल्पना व्यक्ति को इतना असहज कर देती हैं कि वह वर्तमान को सही ढंग से जी नहीं
पाता है। व्यक्ति का मन कई तरह की आशंकाओं से भर जाता है, जिससे मन अशांत हो जाता है। ऐसी स्थिति में
हम सांस तो लेते हैं, लेकिन जीना भूल जाते हैं। हमें चिड़ियों का मधुर संगीत, बहते झरनों की कल-कल, बच्चों की मासूमियत दिखाई व सुनाई देनी बंद हो जाती है। यदि हम व्यस्त दिनचर्या में प्रतिदिन कुछ पल मौन रहने लगें, तो यह एक आदत बन जाएगी।
शुरुआत में अपने अंदर के अच्छे और बुरे दोनों तरह के विचार सुनाई देंगे। कुछ दिनों के अभ्यास के बाद मन
में गहरी शांति छाने लगती है। हम निर्विचार होने लगते हैं। मौन को सिर्फ बंद कमरे में ही नहीं, बल्कि बहुत शोर
के बीच भी साधा जा सकता है। बिना किसी विचार के होने से एक फायदा यह होता है कि अंदर बिखरी हुई ऊर्जा
एकत्रित होती जाती है और व्यक्तित्व में सकारात्मक परिवर्तन आने लगता है। हम स्वयं को साधने लग जाते हैं।
मौन हमें एकाकी नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक नया दृष्टिकोण देता है।