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तत्त्व ज्ञान जगत में दुःख भरे नाना – tatav gyan jagat mein dukh bhre nana – Kabir ke shabd

तत्त्व ज्ञान जगत में दुःख भरे नाना

avataran 2

जगत में दुःख भरे नाना ।
प्रेम धर्म की रीत समझ कर, सब सहते जाना।।

सरल सत्य शिव सुंदर कहना, हिल मिल कर के सब से रहना।
अपनी नींची और देख के, धीरज धन पाना।।

वे भी हैं पृथ्वी के ऊपर, जिन को जीना भी है दूभर।
उन की हालत में हमदर्दी, दिल से दिखलाना।।

अन्न वस्त्र में क्यों दुविधा हो, इन की तो सब को सुविधा हो।
भूखे या बेकार बन्धु को, हिम्मत पहुंचाना।।

यदि तन धन जन से विहीन हम, पर मन से क्यों बनें दीन हम।
भला ना सोचा अगर किसी का, भला ना सुझवाना।।

जितना हो दुनिया को देना, बदले में कम से कम लेंस।
जन हित में सर्वस्व मुक्त कर, सत्य मोक्ष पाना।।

ये सब कंचन कामनी वाले, पल भर को बनते मतवाले।
पर ये तो भीतर तृष्णा की, भट्ठी भड़काना।।

कण भर दुःख है मण भर दुःख है, विषय वासना का ये रुख है।
हाय हाय मचती रहती है , चैन नहीं पाना।।

काम भोग अनुकूल न पाएं, पर तृष्णा को नहीं बढ़ाएं।
इच्छा ईंधन सदा अनल में, ये न भूल जाना।।

जीवन जलत बुझत दीवट है, जल घटकों का यंत्र रहट है।
भरता है रीता होने को, रीता भर जाना।।

झूठे वैभव पर क्यों फुला, ये तो ऊँचा नींचा झूला।
धन यौन के चंचल बल पर, कभी ना इतराना।।

नीति सहित कृतव्य निभाना, अपने अपने खेल दिखाना।
सन्यासी हो या गृहस्थी, रंक हो कि राणा।। 
उठना गिरना हंसना रोना, पर चिंता में कभी ना सोना।
कर्म बन्ध के बीज न बोना, सत्य योग ध्याना।।

ईश्वर एक भरा हम सब में, श्रद्धा रहे राम या रब में।
सब के सुख में अपने सुख का, तत्त्व ना बिसराना।।

दिव्य गुणों की कीर्ति बढ़ाना, जग जीवन को स्वर्ग बनाना।
दुनिया का नंदन वन फुले, वह रस बरसाना।।

जीवन मुक्ति मर्म समझाना, हृदयों को स्थित प्रज्ञ बनाना।
सदा सत्य मय प्रेम मंत्र के, अम्र गीत गाना।।

सब ही शास्त्र बने हैं सच्चे, किंतु समझने में हम कच्चे।
पक्षपात का रंग चढ़ा कर, क्यों भ्र्म फैलाना।।

अविवेकी चक्कर खाता है, तब लड़ना भिड़ना भाता है।
राग द्वेष से वैर बिसा कर, धर्म ना लजवाना।।

सब धर्मों ने रस बरसाया, पाप अनल का ताप बुझाया।
वह रस भी अब तपा अनल में, अंग ना जलवाना।।

जाती भेद हैं इतने सारे, बने सभी सुविधार्थ हमारे।
मानवता का भाव भूल क्यों, मद में मस्ताना।।

धर्म पंथ में भेद भले हों, पर अपवाद विरोध टले हों।
एक सूत्र में विविध पुष्प की, माला पिरवाना।।

नैतिक नियमों की पाबन्दी, सन्त स्वतंत्र सदा अनंदी।
पर पर पीड़ा में भी उस को, आंसूं बह आना।।

युक्त आहार विहार सदा हो, फिर भी होना रोग बदा हो।
इस जीवन का नहीं भरोसा, मन को समझना।।

हर हालत में हों समभावी, बनें धर्म के सच्चे दावी।
सभी अवस्थाएं अस्थिर हैं, हर दम गम खाना।।

कोई हो ऐसा अन्यायी, बन जाए जग को दुखदाई।
उसे बचाना प्राण मोह है, यह न दया लाना।।

विनयी सत्य अहिंसक होना, पर भौतिक भी शक्ति न खोना।
पर के सिर पर किंतु शांति की, नींद नहीं आना।।

मन को सीधे पंथ चलाना, यथा लाभ सन्तुष्ट बनाना।
पर हित के आत्म प्रशंसक, गर्व नहीं लाना।।

छल प्रपंच पाखण्ड भुलाना, दुःस्वार्थों का दम्भ मिटाना।।
भेष दिखा कर के भोलों को, कभी ना बहकाना।। 
भूलें महा मोह की मस्ती, बस जाए फिर उजड़ी बस्ती।
हित कर मन हर सद्भावों को, सर्वस लहराना।।

ये सब नभ के मेघ रसीले, इंद्र धनुष हैं विविध रंगीले।
ऐसा ही बस अपना मन हो, मैल नहीं लाना।।

इन सफेद आँखों में लाली, उस में भी है फीकी काली।
भिन्न भिन्न मिल जाए स्नेह से, सुंदरता पाना।।

ये हल्की सी जीभ हमारी, रस चखती है भारी भारी।
पर क्यों इतनी विशुद्ध बुद्धि में, तत्त्व ना पहचाना।।

ज्वाला मुखी भूकम्प प्रलय सब, ये संकट आ जाते जब तब।
एक दिवस हम को मरणा है, फिर क्यों घबराना।।

ये तो प्रकृति देवी की लीला, क्षण क्षण में संघर्षन शीला।
यथा शक्ति सहयोग परस्पर, लेना दिलवाना।।

आधा नर है आधा नारी, मानव रथ दो चक्कर विहारी।
एक दूसरे के उपकारी, पूरक कहलाना।।

पूर्ण ब्रह्म का ध्रुव प्रकाश है, क्यों किस का जीवन निराश है।
सच्चे बन कर चिदानंद में, आप समा जाना।।

अन्तःस्थल में फैली माया, द्रोह मोह का घन तम छाया।
सत्य प्रेम के सूर्य चन्द्र की, किरणें चमकना।।
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