महाशक्ति ही पालिका हैं
सतयुग का काल था। स्वभाव से मानव कामना हीन था। मनुष्य का अन्त:करण -कलुषित नहीं हुआ था और न रजो गुण तथा तमो गुण के संघर्ष ही उसे क्षुब्ध कर सकते थे। निसर्ग पवित्र मानव-एकाक्षर प्रणव ही पर्याप्त था उसके लिये। त्रयी का कर्म-विस्तार न आवश्यक था और न शक्य; क्योंकि मनुष्य ने यज्ञ के भी संग्रह करना तब तक सीखा नहीं था। वह तो सहज अपरिग्रही था।
मनुष्य जब यजन नहीं करता, हमें यज्ञ भाग नहीं देता तो हमी वृष्टि की व्यवस्था का श्रम क्यों करें? देवराज के मन में ईर्ष्या जाग्रत् हुई–’सृष्टि के विधायक ने नियम बनाया है कि मनुष्य यज्ञ करके हमें भाग द्वारा पोषित करें और हम सुवृष्टि द्वारा अन्नो उत्पादन करके मनुष्यों को भोजन दें। परस्पर सहायता का यह नियम मानव ने प्रारम्भ में ही भङ्ग कर दिया। मनु की संतान जब हमें कुछ गिनती ही नहीं, तब हमारा भी उससे कोई सम्बन्ध नहीं।
देवराज असंतुष्ट हुए और मेघ आकाश से लुप्त हो गये। धरा के प्राण जब गगन सिञ्चित नहीं करेगा, तब अंकुरों का उदय और वीरुधों का पोषण होगा कहाँ से? तृण सूख गये, लताएँ सूखी लकड़ियों में बदल गयीं, वृक्ष मुरझा गये। घोर दुष्काल पड़ा। अन्न, फल,शाक, तृण-प्राणधारियों के लिये कोई साधन नहीं रह गया धरापर।
मनु की निष्पाप संतान-मानव में चिन्ता और कामना कहाँ आयी थी उस समय तक। ध्यान और तप उसे प्रिय लगते थे। निष्पत्र, शुष्क प्राय वनों में मानव ने जहाँ सुविधा मिली, आसन लगाया। उसे न चिन्ता थी और न था क्लेश। उसने बड़े आनन्द से कहा-‘परमात्मा ने तपस्या का सुयोग दिया है। धरा का पुण्योदय हुआ है।
जहाँ-तहाँ मानव ने आसन लगाकर नेत्र बंद कर लिये थे। सत्ययुगकी दीर्घायु, सत्ययुग की सात्त्विकताऔर सत्ययुग का सहज सत्त्व-मानव समाधि में मग्न हो जायगा तो देवराज का युगों व्यापी अकाल क्या कर लेगा उसका? परंतु मानव, यह क्यों करे। उसने अधर्म किया नहीं, कोई अपराध किया नहीं, तब वह भूखा क्यों रहे? उसे बलात् तप क्यों करना पड़े?
इन्द्र प्रमत्त हो गया कर्तव्य पालन में; किंतु अपने पुत्रों के पालन में विश्व की संचालिका, नियन्तृ का महाशक्ति जगज्जननी तो प्रमत्त नहीं होती। दिशाएँ आलोक से पूर्ण हो गयीं। मानव अपने आसन से आतुरतापूर्वक उठा और उसने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाये। गगन में सिंहस्थिता, रक्तवर्णा, शूल, पाश, कपाल, चाप, वज्र,बाण, अंकुश, मुसल, शङ्ख, चक्र, गदा, सर्प, खड्ग,अभय, खट्वाङ्ग एवं दण्डहस्ता, दशभुजा महामाया आदिशक्ति शाकम्भरी प्रकट हो गयी थीं।
धरित्री पर वर्षा हो रही थी-मेघों से जल की वर्षा नहीं, महाशक्ति के श्रीअङ्ग से अन्न, फल, शाक की वर्षा ।पृथ्वी के प्राणी की क्षुधा कितनी? महामाया देने लगें तो प्राणी कितना क्या लेगा? दिन दो दिन नहीं, वर्षों यह वर्षा चलती रही। देवराज घबराये। यदि महामाया इसी प्रकार अन्न-शाकादि की वर्षा करती रहें तो उनका इन्द्रत्व समाप्त हो चुका। पृथ्वी को उनके मेघों की क्याआवश्यकता? कभी भी मानव यज्ञ भाग देगा देवताओं को इसकी सम्भावना ही क्या? यही दशा रहे तो अब देवलोक में भुखमरी प्रारम्भ होने में कितने दिन लगेंगे? देवराज ने क्षमा माँगी जगद्धात्री से और आकाश बादलों से ढक गया।