शीतलता षष्ठी की कथा
किसी वैश्य के सात पुत्र थे मगर विवाहित होते हुए भी सब निसंतान थे। एक समय एक वृद्धा के उपदेश देने पर सातों पुत्रवधु ने शीतलता जी का ब्रत किया तथा पुत्रवती हो गई। एक बार वैश्य की पत्नी ने ब्रत की उपेक्षा करते हुए गर्म जल से स्नान कर भोजन किया तथा बहुओं से भी यह करवाया। उसी रात में उस वैश्य की पत्नी ने भयावह स्वप्न में पति को मृत देखा, रोती चिल्लाती पुत्रों तथा बहुओं को देखा तो उनको भी चिरशेय्या पर तथावत् मरणासन्न पाया। उसका रोना-बिलखना सुन कर पास पड़ोस के लोग माता शीतलता के प्रति किया गया उसका अपराध ही बताने लगे। अपने ही हाथ की कुल्हाड़ी अपनी देह में लगी देख वह पगली सी चीखकर वन में निकल पड़ी। मार्ग में उसे एक वृद्धा मिली जो उसी की तरह ज्वाला में तड़प रही थी वह वृद्धा स्वंय शीतलता मां थी। उन्होंने वेश्य की पत्नी से दही मांगी। उसने दही ले आकर भगवती शीतलता के सारे शरीर पर लेप किया। जिससे उनके शरीर की ज्वाला शांत हो गई। वैश्य की पत्नी ने अपने पूर्वकृत गर्हित कर्मों पर बहुत पश्चाताप किया तथा अपने पति को जिलाने की प्रार्थना की। तब देवी ने प्रसन्न होकर उसके पति, पुत्रों को जीवित कर दिया।