जगत में दुःख भरे नाना।
जगत में दुःख भरे नाना।
प्रेम धर्म की रीत समझ कर,सब सहते जाना।।
सरल सत्य शिव सुंदर कहना, हिलमिल करके सब से रहना।
अपनी नींची और देख कर, धीरज धन पाना।।
वे भी हैं पृथ्वी के ऊपर, जिनको जीना भी है दूभर।
उनकी हालत में हमदर्दी, दिल से दिखलाना।।
अन्न वस्त्र में क्यों दुविधा हो, इनकी तो सब को सुविधा हो।
भूखे या बेकार बन्धु को, हिम्मत पहुंचाना।।
यदि तन धन जन से विहीन हम, पर मन से क्यों बनें दीन हम।
भला ना सोचा अगर किसी का, बुरा ना सुझवाना।।
जितना हो दुनिया को देना, बदले में कम से कम लेना।
जनहित में सर्वस्व मुक्त कर, सत्य मोक्ष पाना।।
ये सब कंचन कामिनी वाले, पल भर को बनते मतवाले।
पर ये तो भीतर तृष्णा की, भट्ठी भड़काना।।
कण भर सुख है मन भर दुःख है, विषय वासना का ये रुख है।
हाय-२मचती रहती है, चैन नहीं पाना।।
काम भोग अनुकूल न पाएं, पर तृष्णा को नहीं बढ़ाएं
इच्छा ईंधन सदा अनल में, ये न भूल जाना।।
जीवन जलत बुझत दीवट है जल घटकों का यंत्र रहट है।
भरता है रीता होने को, रीता भर जाना।।
झूठे वैभव पर क्यों फुला, ये तो ऊँचा नींचा टीला।
धन यौवन के चंचलबल पर, कभी न इतराना।।
नीति सहित कर्तव्य निभाना, अपने-२ खेल दिखाना।।
सन्यासी हो या गृहस्थी, रंक हो के राणा।।
उठना गिरना हंसना रोना, पर चिंता में कभी ना सोना।
कर्म बन्ध के बीज ना बोना, सत्य योग ध्याना।।
ईश्वर एक भरा हम सब में, श्रद्धा रहे राम या रब में।
सब के सुख में अपने सुख का, तत्त्व ना बिसराना।।
दिव्य गुणों की कीर्ति बढ़ाना, जग जीवन को स्वर्ग बनाना।
दुनिया का नंदन वन फुले, वह रस बरसाना।।
जीवन मुक्ति मर्म समझना, हृदयों को स्थित प्रज्ञ बनाना।
सदा सत्यमयप्रेम मंत्र को, अम्र गीत गाना।।
सब ही शास्त्र बने हैं सच्चे, किंतु समझने में हैं हम कच्चे।
पक्ष पात का रंग चढ़कर क्यों भ्र्म फैलाना।।
अविवेकी चक्कर खता है, तब लड़ना भिड़ना भाता है।
राग द्वेष से वैर बीसा कर, धर्म ना लजवाना।।
सब धर्मों ने रस बरसाया, पाप अनल का ताप बुझया।
वह रस भी अब तपा अनल में, अंग ना जलवाना।।
जाति भेद हैं इतने सारे, बने सभी सुविधार्थ हमारे।
मानवता का भाव भूल, क्यों मद में मसताना।।
धर्म पंथ में भेद भले हों, पर अपवाद विरोध तले हों।
एक सूत्र मे विविध पुष्प की, माला पिरवाना।।
नैतिक नियमों की पाबंदी, सन्त स्वतंत्र सदा आनंदी।
पर परपीड़ा में उस को भी, आंसू बह आना।।
युक्त आहार विहार सदा हो, फिर भी होना रोग बदा हो।
इस जीवन का नहीं भरोसा, मन को समझाना।।
हर हालत में हो सम भावी, बनें धर्म के सच्चे दावी।
सभी अवस्थाएं अस्थिर हैं, हर दम गम खाना।।
कोई हो ऐसा अन्यायी, बन जाये जग को दुखदायी।
उसे बचाना प्राण मोह है, ये ना दया लाना।।
विनयी सत्य अहिंसक होना, पर भैतिक भी शक्ति न खोना।
पर के सिर प्रकिन्तु शांति की, नींद नहीं आना।।
मन को सीधे पंथ चलाना, यथा लाभ सन्तुष्ट बनाना।
पर हिट के आत्म प्रशंसक, गर्व नही लाना।।
छल प्रपंच पाखण्ड भुलाना, दुः स्वार्थों का दम्भ मिटाना।
भेष दिखा कर के भोलों को, कभी ना बहकाना।।
भूलें महामोह की मस्ती, बस जाए फिर उजड़ी बस्ती।
हित कर मन हर सदभावों का, सर्वस लहराना।।
ये सब नभ के मेघ रसीले, इंद्र धनुष हैं विविध रँगीले।
ऐसा ही बस अपना मन हो। मैल नहीं लाना।।
इन सफेद आँखों में लाली, उस में भी है फीकी काली।
भिन्न-२ मिल जाएं स्नेह से, सुंदरता पाना।।
ये हल्की सी जीभ हमारी, रस चखती है भारी-२।
पर क्यों इतनी विशुद्ध बुद्धि में, तत्त्व ना पहचाना।।
ज्वाला मुखी भूकम्प प्रलय सब, ये संकट आ जाते जब तब।
एक दिवस हम को मरणा है, फिर क्यों घबराना।।
ये तो प्रकृति देवी की लीला, क्षण-२में संघर्षण शीला।
यथा शक्ति सहयोग परस्पर, लेना दिलवाना।।
आधा न्र है आधा नारी, मानव रथ दो चक्कर विहारी।
एक दूसरे के उपकारी , पूरक कहलाना।।
पूर्ण ब्रह्म का ध्रुव प्रकाश है, क्यों किस का जीवन निराश है।
सच्चे बन कर चिदानंद में, आप समा जाना।।
अंत स्थल में फैली माया, द्रोह मोह का घन तम छाया।
सत्य प्रेम के सूर्य की, किरणें चमकाना।।