ध्यान की कुछ सरल विधियाँ : Excerpt from the book “Brahm Gyan”
ध्यान
Brahm Gyan अपने अनुभव से उन कुछ विधियों की चर्चा करने जा रही हूँ जिन विधियों से गुजर कर मैंने आत्म साक्षात्कार का प्रयास किया है।
ध्यान की विधियाँ चाहे जो हो अथवा चाहे जिस धर्म या परम्परा की हों। विधियाँ विधियाँ हैं। मैंने समर्पण भाव से इन्हें अपनाया है। इसी की चर्चा अत्यंत सरल शब्दों में करुँगी ताकि इक्छुक साधक स्वयं घर में ही कुछ साधना कर कम से कम मानसिक शांति प्राप्त कर सकें। जिसकी आज नितांत आवश्यकता है। आज के युग में ध्यान ही एक मात्र ऎसी जादुई छड़ी है जो सम्पूर्ण विश्व की हिंसात्मक वृति को रोक सकता है। हिंसा ! यह हिंसा क्यों है ? हिंसा ! मात्र ‘चाहना’ और अधिक ‘चाहना’ का प्रतिफल है। फ्रशटेशन की भूमि में उपजी फसल है हिंसा। ‘चाहना’ जितनी बढ़ेगी – स्पर्धा उतनी बढ़ेगी – भौतिक आविष्कार जितने होंगे उतना ही होगा असन्तोष। जितना होगा असन्तोष उतनी बढ़ेगी हिंसा। ” अपराध ” का आरंभ विवशता से होता है और फिर अपराधी बने रहने की विवशता हो जाती है। ” यदि एक आविष्कार हृदय की भूमि से हो तो अन्य सभी वैज्ञानिक आविष्कार फीके पड़ जायेंगे।
यदि इस हिंसात्मक उर्जा की धारा को ध्यान साधना की दिशा में मोड़ दिया जाये तब निश्चय की एक अध्यात्मिक क्रांति आएगी। सर्वत्र भाई-चारा होगा। वैसे यह कल्पना करना कि असन्तोष तो सृष्टि की प्रक्रिया में है; असन्तोष अज्ञान से है और अज्ञान माया से। माया के बिना तो ब्रह्मा की पहचान ही न होगी। बिना मृत्यु के जीवन नहीं और बिना रात के दिन नहीं हो सकता है। बिना अंधकार के प्रकाश का अस्तित्व कैसे ठहर पायेगा ? मेरा तात्पर्य यह है कि तामसिक वृतियाँ कम होनी चाहिए। ऎसी वृतियों पर ध्यान-साधना से अंकुश लगाया जा सकता है। यदि इस दिशा में शीघ्र ही समुचित कदम नहीं उठे तब संसार में हथियारों की होड़ और हिंसात्मक वृतियों में बेतहाशा वृद्धि होती जायगी। मानवीय संवेदना आज हासिये पर है कल समाप्त हो जायगी। ऐसी परिस्थिति में हमारा आपका दायित्व बनता है कि ध्यान साधना का प्रचार प्रसार बढ़े, अधिक से अधिक लोगों का झुकाव इस ओर हो। यदि एक साधक किसी एक का भी झुकाव इस ओर कर पाये- किसी एक हदय की भावना को शुद्ध कर पाए एक धड़कन भी संवेदना से स्पन्दित करा पाये तो इसकी श्रृंखला बनती चली जायगी।
एक बात ध्यान रखने की है। अनुकरण से साधना पूर्ण नहीं होगी। अनुकरण पर वर्ष दो वर्ष तक कोई टीक सकता है। इससे अधिक नहीं। अध्यात्म का उदय हदय से होगा तब साधना समग्र रूप से होगी। दुख से घबरा कर दो चार दिन की साधना से कोई साधक नहीं बन सकता है- वह तो याचक होगा। कर्त्तव्यों से विमुख होकर गुफा कन्दरा में जा कर ध्यान साधना करना भी सच्ची साधना नहीं होगी। वह भ्रामक होगा यदि भ्रामक न भी हो तो भी वह किसी काम की नहीं होगी। वह संसार का नहीं अपना भला करेगा। अकेले का उत्थान करेगा इस संसार की हलचल में रहकर अपने आस-पास के दायित्वों को निर्वाहते हुए प्रेम और सहज भाव से जो साधना करे वही कल्याणकारक है।
ध्यान में तर्क का कोई स्थान नहीं – बुद्धि और डिग्री की कोई आवश्यकता नहीं। बुद्धि से मतवाद खड़ा होगा श्रद्धा और विशवास नहीं पनपेगा। साधना के लिए दो ही शर्तें आवश्यक है प्रेम और समर्पण। जहाँ प्रेम होगा वहाँ समर्पण स्वमेव हो जायगा। कोई विधि कैसे बनी ? किसने बनाई ? किस परम्परा की है – से हमारा कोई लेना देना नहीं है। एक रोगी को दवा के इतिहास से कोई लेना-देना नहीं होता है। रोगी के लिए उचित दवा की उपलब्धता और दवा खाने का महत्व होता है। इसलिए तंत्र विज्ञान की विधि हो या बौद्धों की या हिन्दु परम्परा की, विधि तो विधि है। मैंने इन अनेकों विधियों से गुजर कर उनके सार रूप को लेकर ध्यान की एक पद्धति का खोज किया है जिसके सहारे गृहस्थ जीवन में रह कर ब्रह्म साक्षात्कार किया जा सकता है। यह विधि अत्यन्त सरल है अत: हमने इसे ‘सहज-योग साधना’ कहा है। उस परमतत्व से जुड़ने की सहज प्रक्रिया का नाम “सहज-योग साधना’ है।
जीव का शरीर संसार का सबसे बड़ा कारखाना है। शरीर के अन्दर दिन-रात मशीनें चलती रहती हैं और हन मशीनों तक पहुँचने का सहज माध्यम है श्वांस। श्वांस एक ऐसी वस्तु है जो सदा सर्वदा साथ रहती है। श्वांस नहीं तो तुम नहीं। श्वांस के लिए न तो कुछ खर्च करना पड़ता है और न कोई प्रयास ही। और न ही कभी भूल से कहीं छूट सकता है। श्वांस एक सरल, सुलभ और उत्कृष्ट माध्यम है ध्यान का। कभी तुमने महसूस किया कि हम लगातार श्वांस नहीं लेते है बल्कि श्वांस अन्दर जाती है तब और जब श्वांस बाहर जाती है तब भी श्वांस क्षण भर को रूक जाती है। यह दो श्वांसों का अन्तराल होता है। श्वांस के प्रति निरन्तर सजग रहते हुए दो श्वासों में अन्तराल उपलब्ध हो जाता है। और सहजता से एक दिन महाघटना घट जाती है, जिसके विषय में तुमने सुना भर है।
इस युग में जब न तो गुफा कन्दरा सुरक्षित है और न किसी के पास अलग से अधिक समय ही है। इस सहज योग साधना को अपना कर अपना और दूसरों का भी कल्याण करना चाहिए। तुमने महसूस किया होगा कि जब भी कुछ असामान्य परिस्थिति आती है तब तुम्हारी श्वासों की गति में परिवर्तन आ जाता है। वस्तुत: श्वासों को व्यवस्थित करने की यह सहज प्रक्रिया है। इस विधि की चर्चा तंत्र विज्ञान में है। लोग इसे बौद्धों की विधि मानते है। लेकिन गौतम इसी विधि से बुद्ध हुए। अर्थात् यह विधि बुद्ध से भी पहले की है।
यह मात्र बौद्धों की कैसे हुई ? भैरवतंत्र की इसी विधि को आज बौद्ध धर्म में अनापाना सति योग और विपश्यना कहा जाता है वास्तव में जितने उच्च कोटि के ध्यानी हुए उन्होंने श्वासों को ही ध्यान का माध्यम बनाया। विधियाँ अति नैतिक होती है। अर्थात् सबकी होती हैं। जैसे औषधि का धर्म अति नैतिक है। वह सब पर समान असर डालेगा चाहे औषधि जिस धर्म या जाति ने बनाई हो और चाहे जिस धर्म या जाति का व्यक्ति उसका सेवन करे। इसलिए विधियों पर बिना तर्क चल देना है। यह औषधि है। जिसकी आवश्यकता आज नितान्त रूप से सबको है।