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मौन के उद्गार – Silence of Silence

मौन के उद्गार

जो भयभीत है उसके लिए भय ही विधि है
जो भयभीत है उसके लिए भय ही विधि है

एक मरीज़ ऐसा है, जिसे एक बीमारी लगी हुई है कि वो सिर्फ़ डर से चलता है। डर के अलावा किसी और ताकत को मानता ही नहीं। उसे तुम्हें एक कदम भी चलवाना है, तो डराना होगा। पर याद रखना, जो भी मन केंद्र से वियुक्त होगा, वो ऐसा ही हो जाएगा। डर कोई ख़ास बीमारी नहीं है। आपकी जितनी भी बीमारियाँ हैं, उन सब में डर मौजूद है।
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कबीर के वचनों को समझने का प्रयत्न मानवता ने बारम्बार किया है। किन्तु संत को समझने के लिए कुछ संत जैसा होना प्रथम एवं एकमात्र अनिवार्यता है। संत जो कहते हैं उनके अर्थ दो तलों पे होते हैं – शाब्दिक एवं आत्मिक। समाज ने कबीर के वचनों के शाब्दिक अर्थ कर, सदा उन्हें अपने ही तल पर खींचने का प्रयास किया है, आत्मिक अर्थों तक पहुँच पाना उसके लिए दुर्गम प्रतीत होता है। आचार्य प्रशांत ने उन वचनों के आत्मिक अर्थों का रहस्योद्घाटन कर कुछ ऐसे मोती मानवता के समक्ष प्रस्तुत किये हैं जो जीवन की आधारशिला हैं। आज की परिस्थिति में जीवन को सरल एवं सहज भाव में व्यतीत कर पाने का साहस, आचार्य जी के शब्दों से मिलता है।

कबीर, जो सदा सत्य के लिए समर्पित रहे, उनके वचनों के गूढ़ एवं आत्मिक अर्थों से अनभिज्ञ रह जाना वास्तविक जीवन के मिठास से अपरिचित रह जाने के सामान है, कृपा को उपलब्ध न होने के सामान है।

प्रौद्योगिकी युग में थपेड़े खाते हुए मनुष्य के उलझे जीवन के लिए ये पुस्तक प्रकाश स्वरुप है।

आत्म-जिज्ञासा क्या है?

आत्म-जिज्ञासा क्या है?

ऐसे समझ लीजिए कि एक बिलकुल ही उद्धमी लड़का है और वो खूब तोड़-फोड़ कर रहा है। मैदान में है, गेंद फेंक रहा है पेड़, पौधे, पत्ते इन सब को नष्ट कर रहा है, परेशान कर रहा है। एक तरीका हो सकता है उसको देखने का कि आपने ये देखा कि वो क्या-क्या कर रहा है। आप देख रहे हैं कि वो अभी दाएँ गया, अभी बाएँ और आप दुनिया भर की चीज़ें गिन रहे हो। आप यह देख रहे हो कि यह जो कुछ कर रहा है उसमें मेरा कितना नुकसान हो रहा है। आप विधियाँ खोज रहे हो कि इसको कैसे काबू में लाना है। आप याद करने की कोशिश कर रहे हो कि और लोग इसको कैसे काबू में ले कर के आए थे और एक दूसरा तरीका ये हो सकता है कि आप कुछ भी नहीं देख रहे हो कि क्या चल रहा है आप बस ये देख रहे हो कि ये बच्चा है । उसके आस-पास क्या हो रहा है, वो किन वस्तुओं से सम्बन्धित है। आपकी उस पर कोई नज़र नहीं है क्योंकि उन वस्तुओं से वो बच्चा ही सम्बन्धित है ना! आपकी नज़र मात्र उस बच्चे पर है और आप उसको देखते हुए कहीं नहीं जा रहे हो स्मृतियों में, ये पता करने कि कल इसने क्या किया था?
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आचार्य प्रशांत द्वारा दिए गये बहुमूल्य व्याख्यान इन पुस्तकों में मौजूद हैं:

मन तुम्हारा पूरा भय से युक्त,कभी मत कहना तुम भय से मुक्त

मन तुम्हारा पूरा भय से युक्त,कभी मत कहना तुम भय से मुक्त

निर्भय नहीं है कोई, यह तो तथ्य है क्योंकि जब तक आप कोई हैं, कुछ भी हैं, तब तक निर्भय होने का प्रश्न ही नहीं उठता है आपके होने का अर्थ ही है डर का होना तो फिर क्या कह रहे हैं कबीर कि निर्भय होय न कोय? वो कह रहे हैं कि निर्भय होते हुए भी यह गुमान न पाल लें कि मैं निर्भय हूँ। दिक्कत निर्भयता में नही है, दिक्कत अपने आप को निर्भय मान लेने में है जब आप पूरे तरीके से भय हैं, हैं भय और मानते हैं अपने आप को निर्भय। दोनों बातें हो सकती हैं छोटी बीमारी है अगर आप सिर्फ एक झूठा दावा कर रहे हैं निर्भयता का।
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कबीर के वचनों को समझने का प्रयत्न मानवता ने बारम्बार किया है। किन्तु संत को समझने के लिए कुछ संत जैसा होना प्रथम एवं एकमात्र अनिवार्यता है। संत जो कहते हैं उनके अर्थ दो तलों पे होते हैं – शाब्दिक एवं आत्मिक। समाज ने कबीर के वचनों के शाब्दिक अर्थ कर, सदा उन्हें अपने ही तल पर खींचने का प्रयास किया है, आत्मिक अर्थों तक पहुँच पाना उसके लिए दुर्गम प्रतीत होता है। आचार्य प्रशांत ने उन वचनों के आत्मिक अर्थों का रहस्योद्घाटन कर कुछ ऐसे मोती मानवता के समक्ष प्रस्तुत किये हैं जो जीवन की आधारशिला हैं। आज की परिस्थिति में जीवन को सरल एवं सहज भाव में व्यतीत कर पाने का साहस, आचार्य जी के शब्दों से मिलता है।

कबीर, जो सदा सत्य के लिए समर्पित रहे, उनके वचनों के गूढ़ एवं आत्मिक अर्थों से अनभिज्ञ रह जाना वास्तविक जीवन के मिठास से अपरिचित रह जाने के सामान है, कृपा को उपलब्ध न होने के सामान है।

प्रौद्योगिकी युग में थपेड़े खाते हुए मनुष्य के उलझे जीवन के लिए ये पुस्तक प्रकाश स्वरुप है।

बोध में स्मृति का क्या स्थान है?

बोध में स्मृति का क्या स्थान है?

जैसे अनंत विस्तार का कोई केंद्र नहीं हो सकता न। कुछ सीमित है, तो उसका केंद्र बना सकते हो। अनंतता का, इन्फिनिटी का कोई केंद्र नहीं हो सकता। तो यह संभव है कि मन रहे पर मन का कोई केंद्र न रहे। यह बिलकुल संभव है। तब स्मृतियाँ रहेंगी, यादें रहेंगी पर कोई केंद्र नहीं होगा जहाँ से याद कर रहे हो।
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आप सभी आमंत्रित हैं:

जब आँखें खुलती हैं तो दुनिया बदल जाती है

जब आँखें खुलती हैं तो दुनिया बदल जाती है

परिवर्तन हमेशा पुराने के सन्दर्भ में होता है। परिवर्तन का अर्थ है कि पुराना गायब है और उसमें कोई थोड़ा सा बदलाव आ गया है। अगर मैं कह रहा हूँ कि दुनिया बदल गई तो मेरा अर्थ ये है कि पुराना पूर्णतया ख़त्म हो गया, परिवर्तन नहीं हो गया बल्कि ख़त्म हो गया, बदल गई। इसी कारण से हमें ये जान पाना करीब-करीब असंभव है कि खुली हुई आँखों से जब दुनिया को देखा जाता है तो वो कैसी दिखती है, क्योंकि वो एक परिवर्तित दुनिया नहीं होती है। परिवर्तित दुनिया की तो आप कल्पना कर लोगे। वो आपकी मान्यताओं के आस-पास की ही है तो आप उसकी कल्पना कर लोगे। खुली आँखों से जो दुनिया देखी जाती है वो बिलकुल ही अलग होती है।
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दशहरा, और रावण के दस सिर

दशहरा, और रावण के दस सिर

राम वो जो सदा स्वकेंद्रित है, वो जहाँ पर है, वहीं पर केंद्र आ जाता है। रावण वो जिसके अनेक केंद्र हैं और वो किसी भी केंद्र के प्रति पूर्णतया समर्पित नहीं है। इस केंद्र पर है तो वो खींच रहा है, उस केंद्र पर है तो वो खींच रहा है। इसी कारण वो केंद्र-केंद्र भटकता है, घर-घर भटकता है, मन-मन भटकता है। जो मन-मन भटके, जो घर-घर भटके, जिसके भीतर विचारों का लगातार संघर्ष चलता रहे, वो रावण।
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तीन मार्ग- ध्यानयोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग
तीन मार्ग- ध्यानयोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग

कर्मयोग, याद रखना, उनके लिए है जो करने के शिकार हैं। जो संसार से बहुत बंधे हुए हैं, कर्म माने संसार, जो संसार से बहुत बंधे हुए हैं। जो कहते हैं कि, “दुकान छोड़ ही नहीं सकते, खानदानी दुकान है और दुकान छोड़ने के नाम से ही हम काँप जाते हैं”, तो उनको कहा जाता है कि, ‘ठीक है बैठो दुकान पर, पर मानो कि कन्हैया की दुकान है और आमदनी हो जाए शाम को तो ये न कहो कि मैंने कमा लिया, कहो कि प्रसाद मिला है।’

कृष्ण का प्रसाद है।

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आचार्य प्रशांत द्वारा दिए गये बहुमूल्य व्याख्यान इन पुस्तकों में मौजूद हैं:

केंद्र पर है जीवन शांत, सतह पर रहे तो मन आक्रांत
केंद्र पर है जीवन शांत, सतह पर रहे तो मन आक्रांत

पूर्णता की लीला है कि उसमें से अपूर्णता का भाव उदित होता है और ये जो अपूर्णता का भाव है, ये फिर पूरे संसार को नचाता है- ‘तीन लोक नाती ठगे’। ये पूरे संसार की रचना करता है; ये पूरे संसार को फिर घुमाता-फिराता रहता है। सारा चक्र इसीलिए चल रहा है कि मैं किसी तरीके से एक साथी पा लूँ जो मेरे भीतर के खालीपन को भर दे। वो साथी कोई भी हो सकता है, कोई विचार हो सकता है, चीज़ें, वस्तुएँ, रुपया-पैसा, व्यक्ति, कुछ भी हो सकता है, पर हमारी पूरी तलाश बस यही रहती है कि किसी तरीके से भीतर की रिक्तता भर जाए।

‘तीन लोक नाती ठगे, पंडित करो विचार’
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कबीर के वचनों को समझने का प्रयत्न मानवता ने बारम्बार किया है। किन्तु संत को समझने के लिए कुछ संत जैसा होना प्रथम एवं एकमात्र अनिवार्यता है। संत जो कहते हैं उनके अर्थ दो तलों पे होते हैं – शाब्दिक एवं आत्मिक। समाज ने कबीर के वचनों के शाब्दिक अर्थ कर, सदा उन्हें अपने ही तल पर खींचने का प्रयास किया है, आत्मिक अर्थों तक पहुँच पाना उसके लिए दुर्गम प्रतीत होता है। आचार्य प्रशांत ने उन वचनों के आत्मिक अर्थों का रहस्योद्घाटन कर कुछ ऐसे मोती मानवता के समक्ष प्रस्तुत किये हैं जो जीवन की आधारशिला हैं। आज की परिस्थिति में जीवन को सरल एवं सहज भाव में व्यतीत कर पाने का साहस, आचार्य जी के शब्दों से मिलता है।

कबीर, जो सदा सत्य के लिए समर्पित रहे, उनके वचनों के गूढ़ एवं आत्मिक अर्थों से अनभिज्ञ रह जाना वास्तविक जीवन के मिठास से अपरिचित रह जाने के सामान है, कृपा को उपलब्ध न होने के सामान है।

प्रौद्योगिकी युग में थपेड़े खाते हुए मनुष्य के उलझे जीवन के लिए ये पुस्तक प्रकाश स्वरुप है।

गगन दमदमा बाजिया:

एक गुरु से पाना चाहे और कुछ नहीं पाता है, दूजा गुरु के प्रेम में पाना भूल जाता है
एक गुरु से पाना चाहे और कुछ नहीं पाता है, दूजा गुरु के प्रेम में पाना भूल जाता है

कष्ट की समाप्ति थोड़े ही होती है, कष्ट का विस्मरण होता है।

तुम्हें जो समाधान मिलता है वो दवा से नहीं मिलता, वो प्रेम से मिलता है। या यूँ कह लो कि प्रेम ही दवा है। कबीर का, कि लल्लेश्वरी का, इनका तुम्हारी रोज़-मर्रा की समस्याओं से लेना-देना क्या है। तुम्हारी समस्याएं हैं ज़मीन की, और ये अनंत आकाश में उड़ने वाले हँस हैं। तुम्हारी समस्याओं का तो वास्तव में इन्हें कुछ पता ही नहीं। तुम इन्हें अपनी समस्याएं बताओगे, ये तुम्हें हैरत से देखेंगे। ये कहेंगे, “कैसी ये समस्याएं हैं। हमें तो कभी होती नहीं।” इनका तुम्हारी समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं। तो तुम अगर ये सोच के जाते हो कि कबीर, कि जीज़स, तुम्हारी समस्याओं का निवारण कर देंगे, तो तुम कुछ बात को समझ ही नहीं रहे।

वो निवारण नहीं करते, वो सिर्फ़ ये प्रदर्शित करते हैं कि वो कौन हैं। वो तुम्हें दिखाते हैं कि, “देखो! समस्याओं से कितनी आगे, कितनी दूर भी कुछ होता है, और हम वहाँ पर स्थित हैं।” और तुम ये देख कर के अपनी छोटी-छोटी समस्याओं को भूल ही जाते हो। ऐसे होता है निवारण।

निवारण है निकटता में, और कोई निवारण नहीं है।

बदले स्थिति न बदले तुम्हारा स्थान, राजा वो जो आसन पर विराजमान
बदले स्थिति न बदले तुम्हारा स्थान, राजा वो जो आसन पर विराजमान

आपको जो करना है करिये।

आपको सपने में मज़े लेने है, लीजिये।

आपको जागृति में मज़े लेने है, लीजिये।

आपको रोना है, रोइए।

आपको पगलाहट दिखानी है, वो दिखाइए।

आपको जो करना है करिए, अपनी गद्दी मत छोड़िये बस। उस गद्दी पर बैठ कर आप जो भी करेंगे, आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

हाँ! जब आप इतने आकर्षित हो जायें कि होश खो बैठें और गद्दी छोड़ के कूद पड़ें, तब ख़त्म हो गया काम।

यह करीब-करीब वही है कि लक्ष्मण रेखा बना दी गयी थी, जो करना, करना, इसके भीतर रहना।

तो वही है, समझिये यह जो लक्ष्मण रेखा है, उसका नाम होश है।

संत वो जो तुम्हें विशुद्ध तुम ही बना दे
संत वो जो तुम्हें विशुद्ध तुम ही बना दे

जितनी बार तुम उचित दिशा में क़दम उठाओगे,
उतनी बार आगे की राह और आसान हो जाएगी।
तुम्हारा एक-एक क़दम निर्धारित कर रहा है कि
अगला क़दम आसान पड़ेगा, या मुश्किल।

केंद्र की ओर जो भी क़दम उठाओगे,
वो अगले क़दम का पथ प्रशस्त करेगा।
और केंद्र से विपरीत जो भी क़दम उठाओगे,
वो केंद्र की ओर लौटना और मुश्किल बनाएगा।

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