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श्री कृष्ण ने किया था एकलव्य का वध, मगर क्यों?-Shri Krishna killed Eklavya, but why?

महाभारत काल मेँ प्रयाग (इलाहाबाद) के तटवर्ती प्रदेश मेँ सुदूर तक फैला श्रृंगवेरपुर राज्य एकलव्य के पिता निषादराज हिरण्यधनु का था। गंगा के तट पर अवस्थित श्रृंगवेरपुर उसकी सुदृढ़ राजधानी थी। उस समय श्रृंगवेरपुर राज्य की शक्ति मगध, हस्तिनापुर, मथुरा, चेदि और चन्देरी आदि बड़े राज्योँ के समकक्ष थी। निषाद हिरण्यधनु और उनके सेनापति गिरिबीर की वीरता विख्यात थी।
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निषादराज हिरण्यधनु और रानी सुलेखा के स्नेहांचल से जनता सुखी व सम्पन्न थी। राजा राज्य का संचालन आमात्य (मंत्रि) परिषद की सहायता से करता था। निषादराज हिरण्यधनु को रानी सुलेखा द्वारा एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम “अभिद्युम्न” रखा गया। प्राय: लोग उसे “अभय” नाम से बुलाते थे। पाँच वर्ष की आयु मेँ एकलव्य की शिक्षा की व्यवस्था कुलीय गुरूकुल मेँ की गई।

बालपन से ही अस्त्र शस्त्र विद्या मेँ बालक की लगन और एकनिष्ठता को देखते हुए गुरू ने बालक का नाम “एकलव्य” संबोधित किया। एकलव्य के युवा होने पर उसका विवाह हिरण्यधनु ने अपने एक निषाद मित्र की कन्या सुणीता से करा दिया। एकलव्य धनुर्विद्या की उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहता था। उस समय धनुर्विद्या मेँ गुरू द्रोण की ख्याति थी। पर वे केवल ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वर्ग को ही शिक्षा देते थे और शूद्रोँ को शिक्षा देने के कट्टर विरोधी थे। महाराज हिरण्यधनु ने एकलव्य को काफी समझाया कि द्रोण तुम्हे शिक्षा नहीँ देँगे। पर एकलव्य ने पिता को मनाया कि उनकी शस्त्र विद्या से प्रभावित होकर आचार्य द्रोण स्वयं उसे अपना शिष्य बना लेँगे। पर एकलव्य का सोचना सही न था – द्रोण ने दुत्तकार कर उसे आश्रम से भगा दिया।

एकलव्य हार मानने वालोँ मेँ से न था और बिना शस्त्र शिक्षा प्राप्त तिए वह घर वापस लौटना नहीँ चाहता था। इसलिए एकलव्य ने वन मेँ आचार्य द्रोण की एक प्रतिमा बनायी और धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। शीघ्र ही उसने धनुर्विद्या मेँ निपुणता प्राप्त कर ली। एक बार द्रोणाचार्य अपने शिष्योँ और एक कुत्ते के साथ उसी वन मेँ आए। उस समय एकलव्य धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहे थे। कुत्ता एकलव्य को देख भौकने लगा। कुत्ते के भौंकने से एकलव्य की साधना में बाधा पड़ रही थी अतः उसने अपने बाणों से कुत्ते का मुँह बंद कर दिया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाये थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी। कुत्ता द्रोण के पास भागा। द्रोण और शिष्य ऐसी श्रेष्ठ धनुर्विद्या देख आश्चर्य मेँ पड़ गए। वे उस महान धुनर्धर की खोज मेँ लग गए अचानक उन्हे एकलव्य दिखाई दिया जिस धनुर्विद्या को वे केवल क्षत्रिय और ब्राह्मणोँ तक सीमित रखना चाहते थे उसे शूद्रोँ के हाथोँ मेँ जाता देख उन्हेँ चिँता होने लगी। तभी उन्हे अर्जुन को संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने के वचन की याद आयी। द्रोण ने एकलव्य से पूछा- तुमने यह धनुर्विद्या किससे सीखी? एकलव्य- आपसे आचार्य एकलव्य ने द्रोण की मिट्टी की बनी प्रतिमा की ओर इशारा किया। द्रोण ने एकलव्य से गुरू दक्षिणा मेँ एकलव्य के दाएँ हाथ का अगूंठा मांगा एकलव्य ने अपना अगूंठा काट कर गुरु द्रोण को अर्पित कर दिया।

कुमार एकलव्य अंगुष्ठ बलिदान के बाद पिता हिरण्यधनु के पास चला आता है। एकलव्य अपने साधनापूर्ण कौशल से बिना अंगूठे के धनुर्विद्या मेँ पुन: दक्षता प्राप्त कर लेता है। आज के युग मेँ आयोजित होने वाली सभी तीरंदाजी प्रतियोगिताओँ मेँ अंगूठे का प्रयोग नहीँ होता है, अत: एकलव्य को आधुनिक तीरंदाजी का जनक कहना उचित होगा।

पिता की मृत्यु के बाद वह श्रृंगबेर राज्य का शासक बनता हैl अमात्य परिषद की मंत्रणा से वह न केवल अपने राज्य का संचालन करता है, बल्कि निषाद भीलोँ की एक सशक्त सेना और नौसेना गठित करता है और अपने राज्य की सीमाओँ का विस्तार करता है।

विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण में उल्लिखित है कि निषाद वंश का राजा बनने के बाद एकलव्य ने जरासंध की सेना की तरफ से मथुरा पर आक्रमण कर यादव सेना का लगभग सफाया कर दिया था। यादव वंश में हाहाकर मचने के बाद जब कृष्ण ने दाहिने हाथ में महज चार अंगुलियों के सहारे धनुष बाण चलाते हुए एकलव्य को देखा तो उन्हें इस दृश्य पर विश्वास ही नहीं हुआ।

एकलव्य अकेले ही सैकड़ों यादव वंशी योद्धाओं को रोकने में सक्षम था। इसी युद्ध में कृष्ण ने छल से एकलव्य का वध किया था। उसका पुत्र केतुमान महाभारत युद्ध में भीम के हाथ से मारा गया था।

जब युद्ध के बाद सभी पांडव अपनी वीरता का बखान कर रहे थे तब कृष्ण ने अपने अर्जुन प्रेम की बात कबूली थी।

कृष्ण ने अर्जुन से स्पष्ट कहा था कि “तुम्हारे प्रेम में मैंने क्या-क्या नहीं किया है। तुम संसार के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहलाओ इसके लिए मैंने द्रोणाचार्य का वध करवाया, महापराक्रमी कर्ण को कमजोर किया और न चाहते हुए भी तुम्हारी जानकारी के बिना भील पुत्र एकलव्य को भी वीरगति दी ताकि तुम्हारे रास्ते में कोई बाधा ना आए”।

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