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शब्द समाना जो रहै, गुरु वाइक बीधा-संत दादू दयाल जी-shabd samaanaa jo rahai, guru vaaek bidhaa।

संत दादू दयाल जी
संत दादू दयाल जी हिन्दी कविता
दादरा
शब्द समाना जो रहै, गुरु वाइक बीधा।
उनहीं लागा एक सौं, सोई जन सीधा।टेक।
ऐसी लागी मर्म की, तन-मन सब भूला।

जीवत मृतक ह्नै रहै, गह आतम मूला।1।
चेतन चितहिं न बीसरे, महा रस मीठा।

शब्द निरंजन गह रह्या, उन साहिब दीठा।2।
एक शब्द जन उध्दरे, सुन सहजैं जागे।

अंतर राते एक सौं, शर सन्मुख लागे।3।
शब्द समाना सन्मुख रहै, पर आतम आगे।

दादू सीझे देखतां, अविनाशी लागे।4।

2 त्रिताल
अहो नर नीका है हरि नाम,
दूजा नहीं नाम बिन नीका, कहले केवल राम।टेक।
निर्मल सदा एक अविनाशी, अजर अकल रस ऐसा।

दृढ़ गह राख मूल मन माँहीं, निरखि देख निज कैसा।1।
यहु रस मीठा महा अमीरस, अमर अनूपं पीवे।

राता रहै प्रेम सौं माता, ऐसे जुग-जुग जीवे।2।
दूजा नहीं आसैर को ऐसा, गुरु अंजन कर सूझे।

दादू मोटे भाग हमारे, दास विवेकी बूझे।3।
3 त्रिताल
कब आवेगा कब आवेगा,
पिव परकट आप दिखावेगा, मिठड़ा मुझको भावेगा।टेक।
कण्ठड़े लाग रहूँ रे, नैनों में बाहि धारूँ रे,

पीव तुझ बिन झूर मरूँ रे।1।
पावों मस्तक मेरा रे, तन-मन पिवजी तेरा रे,

हौं राखूँ नैनहुँ नेरा रे।2।
हियड़े हेत लगाऊँ रे, अब के जे पिव पाऊँ रे,

तो बेर-बेर बलि जाऊँ रे।3।
सेजड़िये पिव आवे रे, तब आनंद अंग न मावे रे,

दादू दर्श दिखावे रे।4।

4 मल्लिकामोद ताल
पिरी तूं पांण समाइडे, मूं तनि लागी भाहिड़े।टेक।
पांधी वींदो निकरीला, असां साण गल्हाइड़े।

सांईं सिकां सडकेला, गुझी गालि सुनाइड़े।1।
पसां पाक दीदार केला, सिक असां जी लाहिड़े।

दादू मंझि कलूब मैला, तोड़े बीयां न काइड़े।2।

5 मल्लिकामोद ताल
को मेड़ी दो सजणा, सुहारी सुरति केला, लगे डीहु घणां।टेक।
पीरीयां संदी गाल्हड़ीला, पांधीड़ा पूछां।

कड़ी इंदो मूं गरेला, डीदों बाँह असां।1।
आहे सिक दीदार जीला, पिरी पूरा पसां।

इयं दादू जे ज्यंद येला, सजणा सांण रहां।2।

6 पंजाबी त्रिताल
हरि हाँ दिखाओ नैना,
सुन्दर मूरति मोहना, बोल सुनाओ बैना।टेक।

प्रकट पुरातन खंडना, महीमान सुख मंडना।1।

अविनाशी अपरंपरा, दीन दयाल गगन धारा।2।

पारब्रह्म परिपूरणा, दर्श देहु दु:ख दूरणा।3।

कर कृपा करुणामई, तब दादू देखे तुम दई।4।

7 पंजाबी त्रिताल
राम सुख सेवक जाणे रे, दूजा दु:ख कर माने रे।टेक।
और अग्नि की झाला, फंद रोपे हैं जम जाला।

सम काल कठिन शर पेखे, ये सिंह रूप सब देखे।1।
विष सागर लहर तरंगा, यहु ऐसा कूप भुवंगा।

भयभीत भयानक भारी रिपु करवत मीच विचारी।2।
यहु ऐसा रूप छलावा, ठग फाँसी हारा आवा।

सब ऐसा देख विचारे, ये प्राण घात बटपारे।3।
ऐसा जन सेवक सोई, मन और न भावे कोई।

हरि प्रेम मगन रँग राता, दादू राम रमै रस माता।4।

8 जय मंगल ताल
आप निरंजन यों कहै, कीरति करतार।
मैं जन सेवक द्वै नहीं, एकै अंग सार।टेक।
मम कारण सब परहरै, आपा अभिमान।

सदा अखंडित उर धारे, बोले भगवान।1।
अंतर पट जीवे नहीं, तब ही मर जाइ।

विछुरे तलफे मीन ज्यों, जीवे जल आइ।2।
क्षीर-नीर ज्यों मिल रहै, जल जलहि समान।

आतम पाणी लौंण ज्यों, दूजा नाँहीं आन।3।
मैं जन सेवक द्वै नहीं, मेरा विश्राम।

मेरा जन मुझ सारिखा, दादू कहै (रे) राम।4।

9 जय मंगल ताल
शरण तुम्हारी केशवा, मैं अनंत सुख पाया।
भाग बड़े तूं भेटिया, हौं चरणों आया।टेक।
मेरी तपत मिटी तुम देखतां, शीतल भयो भारी।

भव बंधान मुक्ता भया, जब मिल्या मुरारी।1।
भरम भेद सब भूलिया, चेतन चित लाया।

पारस सौं परिचय भया, उन सहज लखाया।2।
मेरा चंचल चित निश्चल भया, अब अनत न जाई।

मगन भया शर बेधिया, रस पीया अघाई।3।
सन्मुख ह्नै तैं सुख दिया, यहु दया तुम्हारी।

दादू दर्शन पावई, पीव प्राण अधारी।4।

10 तिलवाड़ा ताल
गोविन्द राखो अपणी ओट,
काम-क्रोधा भये बट पारे, ताकि मारैं उर चोट।टेक।
वैरी पंच सबल सँग मेरे, मारग रोक रहे।

काल अहेड़ी बधिक ह्नै लागे, ज्यों जिव बाज गहे।1।
ज्ञान-धयान हिरदै हरि लीना, संग ही घेर रहे।
समझ न परई बाप रमैया, तुम बिन शूल सहे।2।
शरण तुम्हारी राखो गोविन्द, इन सौं संग न दीजे।

इनके संग बहुत दु:ख पाया, दादू को गह लीजे।3।
11 रंगताल
राम कृपा कर होहु दयाला, दर्शन देहु करहु प्रतिपाला।टेक।

बालक दूधा न देई माता, तो वह क्यों कर जिवे विधाता।1।
गुण-अवगुण हरि कुछ न विचारे, अंतर हेत प्रीति कर पाले।2।

अपनों जान करे प्रतिपाला, नैन निकट उर धारे गोपाला।3।

दादू कहे नहीं वश मेरा, तूं माता मैं बालक तेरा।4।

12 त्रिताल
भक्ति माँगूँ बाप भक्ति माँगूँ, मूने ताहरा नाम नों प्रेम लागो।
शिवपुर ब्रह्मपुर सर्व सौं कीजिए, अमर थावा नहीं लोक माँगूँ।टेक।
आप अवलम्बन ताहरा अंगनों, भक्ति सजीवनी रंग राचूँ।

देहनैं गेहनौं बास बैकुण्ठ तणों, इन्द्र आसण नहिं मुक्ति जाचूँ।1।
भक्ति वाहली खरी, आप अविचल हरी, निर्मलो नाम रस पान भावे।

सिध्दि नैं ऋध्दि नैं राज रूड़ौ नहीं, देव पद म्हारे काज न आवे।2।
आत्मा अंतर सदा निरंतर, ताहरी बापजी भक्ति दीजे।

कहै दादू हिवै कोड़ी दत्ता आपै, तुम्ह बिना ते अम्हें नहिं लीजे।3।

13 राज विद्याधार ताल
एह्नो एक तूं रामजी नाम रूड़ो, ताहरा नाम बिना बीजो सब ही कूड़ो।टेक।
तुम्ह बिना अवर कोई कलिमां नहीं, सुमरतां संत नै स्वाद आपै।

कर्म कीधा कोटि छोडवै बाँधाौ, नाम लेतां खिणत ही ये काँपै।1।
संत नै साँकड़ो दुष्ट पीड़ा करै, वाहरैं वाहलौ वेग आवे।

पापना पुंज परहाँ करी लीधो, भाजिया भय भ्रम योनि न आवे।2।
साधानैं दुहेलो तहाँ तूं आकुलो, म्हारो म्हारो करी नैं धाए।
दुष्ट नैं मारिबा संत नैं तारिबा, प्रकट थावा तहाँ आप जाए।3।
नाम लेतां खिण नाथ तैं एकलै, कोटिनां कर्मनां छेद कीधा।

कहै दादू हिवैं तुम्ह बिना को नहीं, साखि बोलैं जे शरण लीधा।4।

14 राज विद्याधार ताल
हरि नाम देहु निरंजन तेरा, हरि हर्ष जपे जिय मेरा।टेक।
भाव भक्ति हेत हरि दीजे, प्रेम उमँग मन आवे।

कोमल वचन दीनता दीजे, राम रसायन भावे।1।
विरह वैराग्य प्रीति मोहि दीजे, हृदय साँच सत भाखूँ।

चित चरणों चिंतामणि दीजे, अन्तर दृढ़ कर राखूँ।2।
सहज संतोष शील सब दीजें, मन निश्चल तुम लागे।

चेतन चिन्तन सदा निवासी, संग तुम्हारे जागे।3।
ज्ञान धयान मोहन मोहि दीजे, सुरति सदा सँग तेरे।
दीन दयाल दादू को दीजे, परम ज्योति घट मेरे।4।

15 झपताल
जय जय जय जगदीश तूं, तूं समर्थ सांई।
सकल भुवन भाने घड़े, दूजा को नाँहीं।टेक।
काल मीच करुणा करैं, यम किंकर माया।

महा जोधा बलवंत बली, भय कँपै राया।1।
जरा मरण तुम तैं डरे, मन को भय भारी।

काम दलन करुणामई, तू देव मुरारी।2।
सब कंपैं करतार तैं, भव बंधान पासा।

अरि रिपु भंजन भय गता, सब विघ्न विनाशा।3।
शिर ऊपर सांई खड़ा, सोई हम माँहीं।

दादू सेवक रामका, निर्भय न डराहीं।4।

16 त्रिताल
हरि के चरण पकर मन मेरा, यहु अविनाशी घर तेरा।टेक।
जब चरण कमल रज पावे, तब काल व्याल बौरावे।

तब त्रिविधि ताप तन नाशे, तब सुख की राशि बिलासे।1।
जब चरण कमल चित लागे, तब माथे मीच न जागे।

तब जन्म जरा सब क्षीना, तब पद पावन उर लीना।2।
जब चरण कमल रस पीवे, तब माया न व्यापे जीवे।

तब भरम कर्म भय भाजे, तब तीनों लोक विराजे।3।
जब चरण कमल रुचि तेरी, तब चार पदारथ चेरी।

तब दादू ओर न बाँछे, जब मन लागे साँचे।4।

17 राजमृगांक ताल
संतों और कहो क्या कहिए,
हम तुम सीख इहै सद्गुरु की निकट राम के रहिए।टेक।
हम तुम माँहिं बसे सो स्वामी, साचे सौं सचु लहिए।

दर्शन परसन जुग-जुग कीजे, काहे को दु:ख सहिए।1।
हम-तुम संग निकट रहैं नेरे, हरि केवल कर गहिए।

चरण-कमल छाडि कर ऐसे, अनत काहे को बहिए।2।
हम तुम तारन तेज घन सुन्दर, नीके सौं निरबहिए।

दादू देख और दु:ख सब ही, ता में तन क्यों दहिए।3।

18 राजमृगांक ताल
मन रे बहुर न ऐसे होई,
पीछे फिर पछतायेगा रे, नींद भरे जिन सोई।टेक।
आगम सारै संचु करीले, तो सुख होवे तो ही।

प्रीति करी पीव पाइए, चरणों राखो मोही।1।
संसार सागर विषय अति भारी, जिन राखे मन मोही।
दादू रे जन राम नाम सौं, कुश्मल देही धोई।2।

19
साथी सावधान ह्नै रहिए,
पलक माँहिं परमेश्वर जाने, कहा होइ कहा कहिए।टेक।
बाबा बाट घाट कुछ समझ न आवे, दूर गमन हम जाना।
परदेशी पंथ चले अकेला, औघट घाट पयाना।1।
बाबा संग न साथी कोइ नहिं तेरा, यहु सब हाट पसारा।
तरुवर पंखी सबै सिधाये, तेरा कौण गँवारा।2।
बाबा सबै बटाऊ पंथ शिरानैं, सुस्थिर नाँहीं कोई।

अंत काल को आगे-पीछे, विछुरत बार न होई।3।
बाबा काची काया कौण भरोसा, रैन गई क्या सोवे।

दादू संबल सुकृत लीजे, सावधान किन होवे।4।

20 शूल ताल
मेरा-मेरा काहे को कीजे, रे जे कुछ संग न आवे।
अनत करी नै धान धारीला, रे तेऊ तो रीता जावै।टेक।
माया बंधान अंधा न चेते रे, मेर माँहिं लपटाया।

ते जाणूं हूँ यह विलासौं, अनत विरोधो खाया।1।
आप स्वारथ यह विलूधा रे, आगम मरम न जाणे।

जमकर माथे बाण धारीला, ते तो मन ना आणे।2।
मन विचारि सारी ते लीजे, तिल माँहीं तन पड़िबा।

दादू रे तहँ तन ताड़ीजै, जेणे मारग चढिबा।3।

21 शूल ताल
सन्मुख भइला रे, तब दु:ख गइला रे, ते मेरे प्राण अधारी।
निराकार निरंजन देवा रे, लेवा तेह विचारी।टेक।
अपरम्पार परम निज सोई, अलख तोरा विस्तारं।

अंकुर बीजे सहज समाना रे, ऐसा समर्थ सारं।1।
जे तैं कीन्हा किन्हि इक चीन्हा रे, भइला ते परिमाणं।
अविगत तोरी विगति न जाणूं, मैं मूरख अयानं।2।
सहजैं तोरा एक मन मोरा, साधान सौं रँग आई।

दादू तोरी गति नहिं जाने, निर्वाहो कर लाई।3।

22 त्रिताल
हरि मारग मस्तक दीजिए, तब निकट परम पद लीजिए।टेक।
इस मारग माँहीं मरणा, तिल पीछे पाव न धारणा।

अब आगे होइ सो होई, पीछे सोच न करणा कोई।1।
ज्यों शूरा रण झूझे, तब आपा पर नहिं बूझे।

शिर साहिब काज सँवारे, घण घावाँ आपा डारे।2।
सती सत्य गह साँचा बोले, मन निश्चल कदे न डोले।

वाके सोच-पोच जिय न आवे, जग देखत आप जलावे।3।
इस शिर सौं साटा कीजे, तब अविनाशी पद लीजे।

ताका तब शिर साबत होवे, जब दादू आपा खोवे।4।

23 त्रिताल
झूठा कलियुग कह्या न जाइ, अमृत को विष कहें बणाय।टेक।
धान को निर्धान निर्धान को धान, नीति अनीति पुकारे।

निर्मल मैला मैला निर्मल, साधु चोर कर मारे।1।
कंचन काच काच को कंचन, हीरा कंकर भाखे।

माणिक मणियाँ-मणियाँ माणिक, साँच झूठ कर नाखे।2।
पारस पत्थर पत्थर पारस, कामधोनु पशु गावे।

चंदन काठ काठ को चंदन, ऐसी बहुत बनावे।3।
रस को अणरस अणरस को रस, मीठा खारा होई।

दादू कलियुग ऐसा बरते, साँचा विरला कोई।4।

24 ललित ताल
दादू मोहि भरोसा मोटा,
तारण तिरण सोई संग मेरे, कहा करे कलि खोटा।टेक।
दौं लागी दरिया तैं न्यारी, दरिया मंझ न जाई।

मच्छ-कच्छ रहैं जल जेते, तिन को काल न खाई।1।
जब सूवे पिंजर घर पाया, बाज रह्या बन माँहीं।

जिनका समर्थ राखणहारा, तिनको को डर नाँहीं।2।
साँचे झूठ न पूजे कब हूँ, सत्य न लागे काई।

दादू साँचा सहज समाना, फिर वै झूठ बिलाई।3।

25 प्रतिताल
सांई को साँच पियारा,
साँचे-साँच सुहावे देखो, साँचा सिरजनहारा।टेक।
ज्यों घण घावाँ सार घड़ीजे, झूठ सबै झड़ जाई।

घण के घाऊँ सार रहेगा, झूठ न माँहिं समाई।1।
कनक कसौटी अग्नि मुख दीजे, पंक सबै जल जाई।

यों तो कसणी साँच सहेगा, झूठ सहै नहिं भाई।2।
ज्यों घृत को ले ताता कीजे, ताइ-ताइ तत कीन्हा।

तत्तवै तत्तव रहेगा भाई, झूठ सबै जल खीना।3।
यों तो कसणी साँच सहेगा, साँचा कस-कस लेवे।

दादू दर्शन साँचा पावे, झूठे दर्श न देवे।4।

26 प्रतिताल
बातैं बाद जाहिगी भइये, तुम जिन जाने बात न पइये।टेक।
जब लग अपना आप न जाने, तब लग कथनी काची।

आपा जान सांई को जाने, तब कथणी सब साँची।1।
करणी बिन कंत नहिं पावे, कहे सुणे का होई।

जैसी कहै करे जे तैसी, पावेगा जन सोई।2।
बातन हीं जे निर्मल होवे, तो काहे को कस लीजे।

सोना अग्नि दहे दश वारा, तब यहु प्राण पतीजे।3।
यों हम जाना मन पतियाना, करणी कठिन अपारा।

दादू तन का आपा जारे, तो तिरत न लागे बारा।4।

27 पंजाबी त्रिताल
पंडित, राम मिले सो कीजे,
पढ-पढ वेद-पुराण बखाने, सोइ तत्तव कह दीजे।टेक।
आत्मा रोगी विषम बियाधी, सोई कर औषधि सारा।

परसत प्राणी होइ परम सुख, छूटे सब संसार।1।
ये गुण इन्द्री अग्नि अपारा, ता सन जले शरीरा।
तन-मन शीतल होइ सदा सुख, सो जल न्हाओ नीर।2।
सोई मारग हमहिं बताओ, जेहि पंथ पहुँचे पारा।

भूल न परे उलट नहिं आवे, सो कुछ करहू विचारा।3।
गुरु उपदेश देहु कर दीपक, तिमर मिटे सब सूझे।

दादू सोई पंडित ज्ञाता, राम मिलण की बूझे।4।

28 प्रतिताल
हरि राम बिना सब भरम गये, कोई जन तेरा साँच गहै।टेक।
पीवे नीर तृषा तन भाजे, ज्ञान गुरु बिन कोइ न लहै।

परकट पूरा समझ न आवे, तातैं सो जल दूर रहै।1।
हर्ष शोक दोउ सम कर राखे, एक-एक के सँग न बहै।

अनतहि जाइ तहाँ दुख पावे, आपहि आपा आप दहै।2।
आपा पर भरम सब छाडे, तीन लोक पर ताहि धारै।

सो जन सही साँच को परसे, अमर मिले नहिं कबहुँ मरै।3।
पारब्रह्म सौं प्रीत निरंतर, राम रसायण भर पीवे।

सदा अनंद सुखी साँचे सौं, कहै दादू सो जन जीवे।4।

29 प्रतिताल
जग अंधा नैन न सूझे, जिन सिरजे ताहि न बूझै।टेक।
पाहण की पूजा करै, कर आत्मा घाता।

निर्मल नैन न आवई, दोजख दिशि जाता।1।
पूजैं देव दिहाडिया, महा-माई मानैं।

परकट देव निरंजना, ताकी सेव न जानैं।2।
भैरूँ भूत सब भरम के, पशु-प्राणी धयावैं।

सिरजनहारा सबनका, ताको नहिं पावैं।3।
आप स्वारथ मेदनी, का का नहिं कर ही।

दादू साँचे राम बिन, मर-मर दु:ख भर ही।4।

30 रंगताल
साँचा राम न जाणे रे, सब झूठ बखाणे रे।टेक।
झूठे देवा झूठी सेवा, झूठा करे पसारा।

झूठी पूजा झूठी पाती, झूठा पूजणहारा।1।
झूठा पाक करे रे प्राणी, झूठा भोग लगावे।

झूठा आड़ा पड़दा देवे, झूठा थाल बजावे।2।
झूठे वक्ता झूठे श्रोता, झूठी कथा सुनावे।

झूठा कलियुग सबको माने, झूठा भरम दृढावे।3।
स्थावर-जंगम जल-थल महियल, घट-घट तेज समाना।

दादू आतम राम हमारा, आदि पुरुष पहचाना।4।

31 चौताल
मैं पंथी एक अपार का, मन और न भावे।
सोइ पंथ पावे पीव का, जिसे आप लखावे।टेक।
को पंथ हिन्दू-तुरक के, को काहूँ राता।

को पंथ सोफी सेवड़े, को संन्यासी माता।1।
को पंथ जोगी जंगमा, को शक्ति पंथ धयावे।

को पंथ कमड़े कापड़ी, को बहुत मनावे।2।
को पंथ काहू के चलै, मैं और न जानूँ।

दादू जिन जग सिरजिया, ताही का मानूँ।3।

32 चौताल
आज हमारे रामजी, साधु घर आये।
मँगलाचार चहुँ दिशि भये, आनन्द बधाये।टेक।
चौक पुराऊँ मोतियाँ, घिस चन्दन लाऊँ।

पंच पदारथ पोइ के, यह माल चढाऊँ।1।
तन-मन-धान करूँ वारने, प्रदक्षिणा दीजे।

शीश हमारा जीव ले, नौछावर कीजे।2।
भाव भक्ति कर प्रीति सौं, प्रेम रस पीजे।

सेवा वन्दन आरती, यहु लाहा लीजे।3।
भाग हमारा हे सखी, सुख सागर पाया।

दादू को दर्शन भया, मिले त्रिभुवन राया।4।

33 दादरा
निरंजन नाम का रस माते, कोई पूरे प्राणी राते।टेक।
सदा सनेही राम के, सोई जन साँचे।

तुम बिन और न जान हीं, रंग तेरे ही राचे।1।
आन न भावे एक तूं, सत्य साधु सोई।

प्रेम पियासे पीव के, ऐसा जन कोई।2।
तुम हीं जीवन उर रहे, आनन्द अनुरागी।

प्रेम मगन पिव प्रीतड़ी, लै तुम सौं लागी।3।
जे जन तेरे रँग रँगे, दूजा रँग नाँहीं।

जन्म सफल कर लीजिए, दादू उन माँहीं।4।

34 दादरा
चल रे मन जहाँ अमृत बना, निर्मल नीके सन्त जना।टेक।

निर्गुण नाम फल अगम अपार, सन्तन जीवन प्राण अधार।1।

शीतल छाया सुखी शरीर, चरण सरोवर निर्मल नीर।2।

सुफल सदा फल बारह मास, नाना वाणी धवनि प्रकाश।3।

तहाँ बास बसे अमर अनेक, तहँ चल दादू इहैं विवेक।4।

35 चौताल
चलो मन म्हारा, जहाँ मित्रा हमारा,
तहँ जामण मरण नहिं जाणिये, नहिं जाणिये।टेक।

मोह न माया मेरा न तेरा, आवागमन नहीं जम फेरा।1।

पिंड न पड़े प्राण नहिं छूटे, काल न लागे आयु न खूटे।2।

अमरलोक तहँ अखिल शरीरा, व्याधि विकार न व्यापे पीरा।3।

राम राज कोइ भिड़े न भाजे, सुस्थिर रहणा बैठा छाजे।4।

अलख निरंजन और न कोई, मित्रा हमारा दादू सोई।5।

36 त्रिताल
बेली आनन्द प्रेम समाइ,
सहजैं मगन राम रस सींचे, दिन-दिन बधाती जाइ।टेक।
सद्गुरु सहजैं बाही बेली, सहज गगन घर छाया।

सहजैं-सहजैं कोंपल मेल्हे, जाणे अवधू राया।1।
आतम बेलि सहजैं फूले, सदा फूल फल होई।
काया बाड़ी सहजैं निपजे, जाणे बिरला कोई।2।
मन हठ बेली सूखण लागी, सहजैं युग-युग जीवे।

दादू बेलि अमर फल लागे, सहज सदा रस पीवे।3।

37 त्रिताल
सन्तो राम बाण मोहि लागे,
मारत मिरग मरम तब पायो, सब संगी मिल जागे।टेक।
चित चेतन चिन्तामणि चीन्हा, उलट अपूठा आया।

मन्दिर पैसि बहुर नहिं निकसे, परम तत्तव घर पाया।1।
आवे न जाइ जाइ नहिं आवे, तिहिं रस मनवा माता।

पान करत परमानन्द पाया, थकित भया चल जाता।2।
भयो अपंग पंक नहिं लागे, निर्मल संग सहाई।

पूरण ब्रह्म अखिल अविनाशी, तिहिं तज अनत न जाई।3।
सो शर लाग प्रेम परकाशा, प्रकटी प्रीतम वाणी।

दादू दीनदयाल हि जाणे, सुख में सुरति समाणी।4।

38 झपताल
मधय नैन निरखूं सदा, सो सहज स्वरूप।
देखत ही मन मोहिया, है सो तत्तव अनूप।टेक।
त्रिवेणी तट पाइया, मूरति अविनाशी।

युग-युग मेरा भावता, सोई सुख राशी।1।
तारुणी तट देख हूँ, तहाँ सुस्थाना।
सेवक स्वामी संग रहै, बैठे भगवाना।2।
निर्भय थान सुहात सो, तहँ सेवक स्वामी।

अनेक यतन कर पाइया, मैं अन्तरयामी।3।
तेज तार परमिति नहीं, ऐसा उजियारा।

दादू पार न पाइये, सो स्वरूप सँभारा।4।

39 झपताल
निकट निरंजन देख हौं, छिन दूर न जाई।
बाहर-भीतर एकसा, सब रह्या समाई।टेक।
सद्गुरु भेद लखाइया, तब पूरा पाया।

नैनन हीं निरखूँ सदा, घर सहजैं आया।1।
पूरे सौं परिचय भया, पूरी मति जागी।

जीव जाण जीवण मिल्या, ऐसे बड़ भागी।2।
रोम-रोम में रम रह्या, सो जीवन मेरा।

जीव-पीव न्यारा नहीं, सब संग बसेरा।3।
सुन्दर सो सहजैं रहै, घट अन्तरयामी।

दादू सोई देख हों, सारों संग स्वामी।4।

40 त्रिताल
सहज सहेलड़ी हे, तूं निर्मल नैन निहारि।
रूप-अरूप निर्गुण-अवगुण में, त्रिभुवन दाता देव मुरारि।टेक।
बारंबार निरख जग जीवन, इहि घर हरि अविनाशी।

सुन्दरि जाइ सेज सुख विलसे, पूरण परम निवासी।1।
सहजैं संग परस जग जीवन, आसण अमर अकेला।

सुन्दरि जाइ सेज सुख सोवे, जीव ब्रह्म का मेला।2।
मिल आनन्द प्रीति कर पावन, अगम निगम जहँ राजा।

जाइ तहाँ परस पावन को, सुन्दरि सारे काजा।3।
मंगलाचार चहूँ दिशि रोपे, जब सुन्दरि पिव पावे।

परम ज्योति पूरे सौं मिलकर, दादू रंग लगावे।4।

41 त्रिताल
तहँ आपै आप निरंजना, तहँ निश वासर नहिं संयमा।टेक।
तहँ धारती अम्बर नाँहीं, तहँ धूप न दीसे छाँहीं।

तबँ पवन न चाले पाणी, तहँ आपै एक बिलाणी।1।
तहँ चन्द न ऊगै सूरा, मुख काल न बाजै तूरा।

तहँ सुख दु:ख का गम नाँहीं, ओ तो अगम अगोचर माँहीं।2।
तहँ काल काया नहिं लागे, तहँ को सोवे को जागे।

तहँ पाप-पुन्य नहिं कोई, तहँ अलख निरंजन सोई।3।
तहँ सहज रहै सो स्वामी, सब घट अन्तरजामी।

सकल निरन्तर बासा, रट दादू संगम पासा।4।

42 त्रिताल
अवधू बोल निरंजन बाणी, तहँ एकै अनहद जाणी।टेक।
तहँ वसुधा का बल नाँहीं, तहँ गगन घाम नहिं छाहीं।

तहँ चंद सूर नहिं जाई, तहँ काल काया नहिं भाई।1।
तहँ रैणि दिवस नहिं छाया, तहँ वायु वरण नहिं माया।

तहँ उदय-अस्त नहिं होई, तहँ मरे न जीवे कोई।2।
तहँ नाँहीं पाठ पुराना, तहँ अगम निगम नहिं जाना।

तहँ विद्या वाद न ज्ञाना, नहिं तहँ योग रु धयाना।3।
तहँ निराकार निज ऐसा, तहँ जाण्या जाइ न जैसा।

तहँ सब गुण रहिता गहिये, तहँ दादू अनहद कहिये।4।

43 प्रतिताल
बाबा को ऐसा जन जोगी,
अंजन छाडे रहे निरंजन, सहज सदा रस भोगी।टेक।
छाया माया रहै विवर्जित, पिंड ब्रह्मंड नियारे।

चंद-सूर तैं अगम अगोचर, सो गह तत्तव विचारे।1।
पाप-पुन्य लिपे नहिं कबहूँ, रो पंख रहिता सोई।

धारणि-आकाश ताहि तैं ऊपरि, तहाँ जाइ रत होई।2।
जीवन-मरण न बाँछे कबहूँ, आवागमन न फेरा।

पाणी पवन परस नहिं लागे, तिहिं संग करे बसेरा।3।
गुण आकार जहाँ गम नाँहीं, आपैं आप अकेला।

दादू जाइ तहाँ जन योगी, परम पुरुष सौं मेला।4।

44 राज विद्याधार ताल
योगी जान-जान जन जीवे,
बिन हीं मनसा मन हि विचारे, बिन रसना रस पीवे।टेक।
बिन हीं लोचन निरख नैन बिन, श्रवण रहित सुन सोई।

ऐसे आतम रहै एक रस, तो दूसर नाम न होई।1।
बिन हीं मारग चले चरण बिन, निश्चल बैठा जाई।

बिन हीं काया मिले परस्पर, ज्यों जल जलहि समाई।2।
बिना हीं ठाहर आसण पूरे, बिन कर बैन बजावे।

बिन हीं पाँऊँ नाचे निशि दिन, बिन जिह्ना गुण गावे।3।
सब गुण रहिता सकल बियापी, बिन इन्द्री रस भोगी।

दादू ऐसा गुरु हमारा, आप निरंजन योगी।4।

45 रूपक ताल
इहै परम गुरु योगं, अमी महा रस भोगं।टेक।

मन पवना थिर साधां, अविगत नाथ अराधां, तहँ शब्द अनाहद नादं।1।

पंच सखी परमोधां, अगम ज्ञान गुरु बोधां, तहँ नाथ निरंजन शोधां।2।

सद्गुरु माँहिं बतावा, निराधार घर छावा, तहँ ज्योति स्वरूपी पावा।3।

सहजैं सदा प्रकाशं, पूरण ब्रह्म विलासं, तहँ सेवक दादू दासं।4।

46 त्रिताल
मूनै येह अचम्भो थाये,
कीड़ीये हस्ती विडारयो, तैन्हैं बैठी खाये।टेक।
जाण हुतौ ते बैठो हारे, अजाण तेन्हैं ता वाहे।

पांगुलोउ जाबा लाग्यो, तेन्हैं कर को साहै।1।
नान्हो हुतो ते मोटो थायो, गगन मंडल नहिं माये।

मोटे रो विस्तार भणीजे, ते तो केन्हे जाये ।2।
ते जाणैं जे निरखी जोवे, खोजी नैं बलि माँहें।

दादू तेन्हौं मर्म न जाणैं, जे जिह्ना विहूंणौं गाये।3।
। इति राग रामकली सम्पूर्ण।
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