
आत्म-सुधार जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है। प्रत्येक व्यक्ति को बाल्यावस्था से लेकर मृत्यु तक परिस्थितियों के अनुसार अपना सुधार करना पड़ता है। हमारे अंदर जो भी उत्कृष्ट गुण छिपा है , उसे बाहर निकालने की विधि जीवन की सबसे बड़ी शिक्षा है , जो किसी भी पाठशाला में हमको नहीं पढ़ाई जाती। यह तो अनुभवों से ही प्राप्त होती है। पृथ्वी के अंदर अमूल्य हीरे छिपे हैं , लेकिन खोदने वाला मजदूर यदि जौहरी नहीं है , तो वह हीरे की खोज नहीं कर पाता। जिस दिन हम अपने अंदर छिपे पारस को जौहरी बनकर पहचान लेंगे , उसी दिन से हमारा जीवन सुख और आनंद से परिपूर्ण हो जाएगा। मेंढक और गिरगिट जैसे प्राणी शत्रुओं से अपनी रक्षा करने के लिए रंग बदल लेते हैं। मेंढक शीत ऋतु में जब भोजन का अकाल हो जाता है , जमीन के अंदर जाकर बिना खाए-पिए समाधिस्थ हो जाते हैं और बसंत ऋतु में ही पुन: बाहर निकलते हैं। पेड़-पौधे भी जीवित रहने के लिए आत्म-परिवर्तन करते हैं। मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है , जो इस कला को ठीक से नहीं अपनाता। आज के भौतिकवादी , भोगवादी समाज में हर व्यक्ति सम्पन्नता की चाह में नैतिक-अनैतिक सभी साधनों को अपनाने में लगा है। प्रतिस्पर्धा में हर व्यक्ति अपने जमीर को बेच रहा है। लेकिन वह घुटन भी महसूस कर रहा है , क्योंकि परनिन्दा और छीना-झपटी के माहौल में कोई भी सुखी नहीं हो सकता। लेकिन हम खुद को बदलना भी नहीं चाहते। लाखों पढ़े-लिखे युवा , रोजगार की तलाश में भटक रहे हैं , आत्महत्याएं कर रहे हैं , क्योंकि उन्हें स्वावलंबी बनने की शिक्षा नहीं दी गई। सरकारी पद और प्रतिष्ठा की चाह में भटकने वाले लोग अपने अमूल्य जीवन का दुरुपयोग कर रहे हैं। लेकिन देश- काल , समय और परिस्थिति के अनुसार उन्हें अपनी सोच में जो बदलाव करना चाहिए , वह वे करना ही नहीं चाहते। जब बेटी को दूसरे घर में ब्याह दिया जाता है , तो नए घर के नए परिवेश में वह उस घर की मान्यताओं एवं संस्कारों को पूर्णत: आत्मसात नहीं कर पाती। उसे अपने को बदलने में बहुत ही कष्ट सहने पड़ते हैं। कभी-कभी इतना अधिक स्वयं में परिवर्तन न कर पाने के कारण वह घुटन की शिकार बनती है , कई बार समायोजन न होने के कारण उसे प्रताड़ना भी सहनी पड़ती है। लेकिन आत्म-परिवर्तन द्वारा नए घर के नवीन परिवेश में अपने को ढाल लेना , दूध में पानी जैसा हिल-मिल जाना ही उसके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा है। आत्म-परिवर्तन के बिना हम दूसरों का हृदय परिवर्तन नहीं कर सकते। राष्ट्र के कर्णधार माने जाने वाले राष्ट्र की उन्नति एवं परिवर्तन की बात करते हैं , लेकिन वे स्वयं आत्म- परिवर्तन नहीं कर पाते। जब तक हम अपने अंदर छिपे रत्न को नहीं पहचानेंगे , हमारे बाहर का जगत प्रकाशित नहीं होगा। जब तक प्रकाश नहीं होगा , तब तक हमें दूसरों की बुराइयां ही नजर आती रहेंगी। जब हम अपने अंदर छिपे रत्न को नहीं पहचान पा रहे हैं , तब हम दूसरों के भीतर छिपे हीरे को कैसे पहचान पाएंगे ? यही कारण है कि आज समाज में हमें हिंसा , घृणा , द्वेष और भ्रष्टाचार की बहुलता दिखलाई दे रही है। दूसरों को पहचानने के पहले हमें अपने को पहचानना चाहिए। हमारे अंदर न जाने कितने प्रकार के दैत्य घमासान करते रहते हैं। जब तक हम इन तामसिक प्रवृत्ति वाले दैत्यों का नाश नहीं कर पाएंगे , हमारा अंत:करण प्रज्ज्वलित नहीं हो पाएगा। सारा का सारा काफिला आज यही भूल करता जा रहा है। जितने भी महान संत हुए हैं , उन्होंने सर्वप्रथम अपने अंत:करण की पवित्रता हेतु अपनी आत्मा की आवाज की ओर अपना ध्यान केंद्रित किया। अपने द्वारा किए गए पाप कृत्यों के लिए प्रायश्चित तथा दूसरों के कृत्यों के प्रति क्षमा भाव अपनाते हुए उनकी अच्छाइयों को ही उजागर किया। आत्म- परिवर्तन , अंतर जगत की पवित्रतम यात्रा है। सभी तीर्थयात्राएं इस यात्रा के सामने व्यर्थ साबित होती हैं। इस प्रकार आत्म-परिवर्तन से ही सामाजिक परिवर्तन और युग परिवर्तन की आधार शिला बनती है। बुद्ध ने आत्म-परिवर्तन के पश्चात ही अंगुलीमाल का हृदय परिवर्तन किया था। बाबा भारती ने खड़क सिंह को आत्म-सुधार के पश्चात ही सही राह दिखाई थी। गांधी ने आत्मानुशासन के बल पर ही सत्य , अहिंसा जैसे उत्कृष्ट मूल्यों द्वारा देश को आजादी दिलवाई। आत्म-परिवर्तन से ही हृदय परिवर्तन के बीज अंकुरित होते हैं।.