आत्म संयम – मन पर पूर्ण नियंत्रण
“ओम नमो भगवते वासुदेवायः”मनुष्य के मन एक बहुत महत्वपूर्ण निकाय है | मन में अपार क्षमता होती है | यह मन ही है जो मनुष्य को बड़े बड़े खोज करने के योग्य बनाता है | यह मन मनुष्य को उसकी महानता की उचाइओं तक ले जाता है| लेकिन इस मन की दूसरी विशेषता यह है कि यह बहुत अस्थिर होता है, इतना कि इसका एक पल केलिए भी शांत होता अत्यंत कठिन है| एक अनियंत्रित मन मनुष्य के लिए पतन का कारण बन सकता है| यह मन भौतिक मनुष्य में ना प्रकार की भौतिक इक्षाएं उत्पन्न करता है जिनमे बंधकर मनुष्य इस भौतिक जगत से मोहित होता है| अगर भौतिक इक्षा एक हद से बढ़ जाये तो बासना का रूप ले लेती है जिससे मनुष्य में दूसरे दुर्गुणों जैसे इर्ष्या, क्रोध का जन्म होता है|इस प्रकार मनुष्य के मन उसके अस्तित्व का केंद्र बिंदु है | इसलिए यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने मन को भली भांति समझे और उसपर नियंत्रण रखे| सारांश में इस मन को निम्न रूप में समझा जा सकता हैमन मनुष्य का मित्र भी शत्रु भी—————————————जैसा कि हम जानते हैं मनुष्य की तीन मुख्या भौतिक निकायों इन्द्रियां, मन और बुधि में मन केंद्र में होता है| इस कारण से मन का प्रभाव इन्द्रियों और बुधि दोनों पर होता है| हम यह भी जानते हैं कि मनमनुष्य शरीर में सबसे शक्तिशाली भौतिक इकाई है और सबसे ज्यादा प्रयोगमें होने वाला भी| एक छोटे कार्य से लेकर महान वैज्ञानिक खोज का श्रोत यह मन ही होता है| सारी इन्द्रियां मन के अधीन ही होती हैं | लेकिन एक तरफ यह मन अत्यंत शक्तिशाली होता है तो इसका दूसरा गुण यह है कि यह बहुत अस्थिर होता है| मनुष्य में सभी प्रकार की इक्षाओं के श्रोत भी यही होता है, अगर इसपर नियंत्रण न किया जाये तो यह मनुष्य को सांसारिक दलदल में घसीट सकता है|अगर मन पर नियंत्रण हो तो मनुष्य महान कार्य कर सकता है लेकिन अगर मन अनियंत्रित हो जाये तो यह मनुष्य के पतन का कारण भी हो सकता है, यह एक मान्य तथ्य है,भगवान श्री कृष्ण ने इसे स्पस्ट रूप में निम्न प्रकार से वर्णित किया है:
Ch6.Sh 5उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् ।आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥संधि विक्छेद————–उद्धरेत् आत्मना आत्मानं न आत्मानं अवसादयेत् ।आत्मा एव हि आत्मनो बंधुः आत्मा एव रिपुः आत्मनः ॥[मनुष्य को] अपने मन को जीतकर अपना उद्धार करना चाहिए न कि इसके अधीन होकर पतन को प्राप्त होना चाहिए| मन मनुष्य का मित्र भी है और शत्रु भी|Ch6.Sh6बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मनाजितः ।अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥संधि विक्छेद————–बंधुः आत्मा आत्मनः तस्य येन आत्मा एव आत्मना जितः ।अनात्मनः तु शत्रुत्वे वर्तेत आत्मा एव शत्रुवत् ॥जिसने अपने मन को जीत लिया, मन उसका सबसे अच्छा मित्र है लेकिन जिसने अपने मन को नहीं जीता तो वही मन उसका सबसे बड़ा शत्रु हो जाता है|———————————————————————–ऊपर के श्लोक में पूर्ण रूप से स्पस्ट है कि अगर मन को नियंत्रित कर लिया जाये तो यह मनुष्य के सबसे बड़ा मित्र है| नियंत्रित मन की शक्ति का प्रयोग करके मनुष्य महान कार्यों को कर सकता हैं| लेकिन अगर मनुष्यमन पर नियंत्रण नहीं करता है तो यही मन मनुष्य को भौतिक लालसाओं और वासनाओं में घसीटकर उसके पतन का कारण बन सकता है| अनियंत्रत मन मनुष्यका सबसे बड़ा शत्रु होता है|अयिन्त्रित मन मनुष्य के अध्यात्मिक विकास में बाधा——————————————————————अनियंत्रित मन का एक और प्रभाव यह है कि यह मनुष्य के अध्यात्मिक और सांसारिक विकास के लिए बाधा उत्पन्न करता है | इन्द्रियां तो पूरी तरहमन अधीन होती ही हैं, मन का प्रभाव बुद्धि पर भी पडता है| अगर मन अनियंत्रित हो जाये तो इन्द्रियों पर नियंत्रण बहुत मुश्किल हो जाता है और उसकी बुद्धि दूषित हो जाती है| ऐसी अवस्था में वैसे मनुष्य का जिसका मन अनियंत्रित हो उसका सांसारिक और अध्यात्मिक विकास बाधित हो जाता है|Ch6. Sh36असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥जिसका मन नियंत्रित नहीं है उसके लिए योग में सिद्धि (आत्मज्ञान ) कठिन होता है लेकिन जिसने अपने मन पर नियंत्रण कर लिया है और दृढ निश्चित है वह अवश्य [जीवन में] सफल होता है| यह मेरा मत है|मन पर नियंत्रण आत्मज्ञान का मार्ग———————————————मन पर नियंत्रण से मनुष्य सांसारिक सफलता तो प्राप्त करता ही है इससे आत्मज्ञान का मार्ग भी प्रशस्त करता है| जिस मनुष्य ने मन पर नियंत्रणकर लिया है उसके लिए परमात्मा तक पहुँचाना अत्यंत सरल हो जाता है| ऐसा मनुष्य इसी जीवन में भय, मोह और दुखों के बंधन से मुक्त हो जाता है और मोक्ष का भागी होता है|Ch6.Sh7जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥जिसने अपने मन को जीत लिया है, वह परम शांति से युक्त होकर परमात्मा में समाहित हो जाता है| [फिर] उसके लिए सर्दी, गर्मी, सुख, दिख, मान और अपमान सब सामान हो जाते हैं |नियंत्रित मन पर इक्षाओं का प्रभाव नहीं पडता————————————————————————जैसा हम जानते हैं इसी संसार में सब रहते हैं, ज्ञानी भी अज्ञानी भी,संत भी और पापी भी| भौतिक जगत की अच्छी और बुरी चीजों से सबका सामनाहोता है| लेकिन एक जगह हम देखते हैं थोड़ी सी कामनाएं एक मनुष्य को भटकादेती है वहीँ अनगिनत इक्षाएं भी एक स्थिर प्रज्ञ मनुष्य को डिगा नही पाते|यह मनुष्य के आतंरिक शक्ति और अपने मन के ऊपर उसके नियंत्रण पर निर्भरकरता है कि कौन से मनुष्य दुर्गुणों से प्रभावित होता है या नही | जैसेएक छोटी से नदी में थोडा भी ज्यादा पानी आ जाए तो नदी उफनने लगता है लेकिन एक सागर हलाकि जल से परिपूर्ण होता है फिर भी लगातार पानी का प्रवाह भी उसकी गंभीरता को भंग नही कर पाता| सागर सदा शांत बना रहता है|जो मनुष्य अपने मन पर नियंत्रण कर लेता है उसके ऊपर फिर इक्षाओं का प्रभाव नहीं पडता| वह इन्द्रिओं के प्रवाह को वैसे ही अपने दृढ मन में समाहित कर लेता है जैसे एक समुद्र हलाकि जल से पूर्ण होता है लेकिन फिर भी सभी ओर से प्रवाहित नदियों को अपने में विलीन कर लेता है:Ch2:Sh70आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं-समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वेस शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥भावार्थ : जैसे अनेक नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सभी कामनाएं स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं| ऐसा स्थित प्रज्ञ [मनुष्य] परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं॥———————————————————————-एक जीते हुए मन पर किसी सांसारिक दुर्गुणों का कोई दुष्प्रभाव नहीं पडता | वह इक्षाओं के सभी प्रवाह को अपने आप में समाहित कर लेता है और सदा शांत बना रहता है | वैसा मानुष इस जीवन में परम शांति प्राप्त करताहै और जीवन के बाद मोक्ष का भागी होता है:Ch6.Sh19यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥जैसे निर्वात (हवा से रहित स्थान) में दीपक का की लौ स्थिर हो जाती है उसी प्रकार वह योगी जिसने अपने मन को जीत लिया है, अपने आत्म तत्व में स्थिर हो जाता है|———————————————————————-इस प्रकार मन की उपयोगिता सिद्ध होती है| अगर मानुष अपने मन पर नियंत्रण कर ले तो वह सभी सांसारिक सफलता तो प्राप्त करता ही है अपने जीवन में अपर शांति से युक्त होता है और अपनी आत्मा का साक्षात्कार करने के योग्य होता है| इस प्रकार नियंत्रित मन मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र होता है|लेकिन अगर मन नियंत्रण में न हो तो यह मनुष्य को घोर वासना, मोह और चारित्रिक दोषों में लिप्त कर सकता है जिससे मनुष्य का पूर्ण पतन हो सकता है| इस प्रकार एक अनियंत्रित मन मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु ओ सकता है|इस तथ्य को जानकर हम सभी मनुष्यों को अपने मन को नियंत्रण में रखने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि मन पर नियंत्रण ही मनुष्य के लिए सांसारिक और अध्यात्मिक विकास प्रशस्त करता है|“श्री हरि ओम तत् सत्
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