यथाऽऽसीत् सुत्यचाऽपालादत्येन्द्रायमुखच्युतम् ॥
महर्षि अत्रिका आश्रम उनकी तपस्या का पवित्र प्रतीक था। चारों ओर अनुपम शान्ति और दिव्य आनन्द की वृष्टिं निरन्तर होती रहती थी । यज्ञ की धूम शिखाओं और वेद-मन्त्रों के उच्चारण से आश्रम के कण-कण में रमणीयता का निवास था । महर्षि आनन्दमग्न रहकर भी सदा उदास दीख पड़ते थे। उनकी उदासी का एकमात्र कारण थी अपाला । वह उनकी स्नेह सिक्ता कन्या थी । चर्मरोग से उसका शरीर बिगड़ गया था। श्वेत कुष् के दागों से उसकी अङ्ग-कान्ति म्लान दीखती थी । पति ने इसी रोग कै कारण उसे अपने आश्रम से निकाल दिया था, वह बहुत समय से अपने पिता के ही आश्रम में रहकर समय काट रही थी । दिन-प्रतिदिन उसका यौवन गलता जा रहा था; महर्षि अत्रि के अनन्य स्नेह से उसके प्राण की दीप-शिखा प्रकाशित थीं । चर्मरोग की निवृत् तिके लिये अपाला ने इन्द्र की शरण ली । वह बड़ी निष्ठा से उनकी उपासना में लग गयी । यह जानती थी कि इन्द्र सोमरस से प्रसन्न होते हैं । उसकी हार्दिक इच्छा थी कि इन्द्र प्रत्यक्ष दर्शन देकर सोम स्वीकार करें ।।
Result of Worship |
निस्संदेह आज इन्द्र मुझ से बहुत प्रसन्न हैं, मुझे अपना सर्वत्र मिल गया । उसने रास्ते में सौमलता देखी और परीक्षा के लिये दाँत से लगाते ही सोमाभिषेक सन्पन्न हो गया, उसके दाँत से सोमरस-कण पृथ्वी पर गिर पड़े। सौमलता -प्राप्ति से उसे महान् आनन्द हुआ है। उसकी तपस्या सोमलता के रूप में मूर्तिमती हो उठी ।अपाला ने रात में ही एक दिव्य पुरुष का दर्शन किया।
मैं सोनगन के लिये घर-घर घूमता रहता हूँ । आज इस समय तुम्हारी सोमाभिव क्रिया से मैं अपने आप चला आया । दिव्य स्वर्णरथ से उतरकर इन्द्र ने अपना परिचय दिया । देवराज ने सोमपान किया । उन्होंने तृप्ति स्वर में वरदान माँगने की प्रेरणा दी ।
आपकी प्रसन्नता ही मेरी इच्छा पूर्ति है। उपास्यका दर्शन हो जाय, इससे बढ़कर दूसरा सौभाग्य ही क्या हैं ! ब्रह्मवादिनी ऋषिजन्या ने इन्द्र की स्तुति की ।।
सच्ची भक्ति कभी निष्फल नहीं होती है, देवि !! इन्द्र ने अपाला को पकड़कर अपने रथ-छिद्र से उसे तीन वार निकाला। उनकी कृपा से चर्मरोग दूर हो गया, वह सूर्य की प्रभा-सी प्रदीप्त हो उठीं । ऋषि अत्रिने कन्या को आशीर्वाद दिया । अपाला अपने पति के घर गयी । उपासना के फलस्वरूप उसका दाम्पत्य-जीवन सरस हो उठा।