आपका राज्य कहॉ तक है?
महाराज जनक के राज्य में एक ब्राह्मण रहता था। उससे एक बार कोई भारी अपराध बन गया। महाराज जनक ने उसको अपराध के फलस्वरूप अपने राज्य से बाहर चले जाने की आज्ञा दी। इस आज्ञा को सुनकर ब्राह्मण ने जनक से पूछा “महाराज! मुझे यह बतला दीजिये कि आपका राज्य कहाँ तक है? क्योंकि तब मुझे आपके राज्य से निकल जाने का ठीक-ठीक ज्ञान हो सकेगा।’
महाराज जनक स्वभावत: ही विरक्त तथा ब्रह्मज्ञान में ग्रविष्ट रहते थे। ब्राह्मण के इस प्रश्न को सुनकर वे विचारने लगे–पहले तो परम्परागत सम्पूर्ण पृथ्वी पर ही उन्हें अपना राज्य तथा अधिकार-सा दीखा। फिर मिथिला नगरी पर वह अधिकार देखने लगे। आत्मज्ञान के झोंके में पुन उनका अधिकार घटकर प्रजा पर, फिर अपने शरीर में आ गया और अन्त में कहीं भी उन्हें अपने अधिकार का मान नहीं हुआ। अन्त में उन्होंने ब्राह्मण को अपनी सारी स्थिति समझायी और कहा कि “किसी वस्तु पर भी मेरा अधिकार नहीं है। अतएव् आपकी जहाँ रहने की इच्छा हो, वहीं रहिये और जो इच्छा हो, भोजन करिये।’
इस पर ब्राह्मण को आश्चर्य हुआ और उसने उनसे पूछा–‘ महाराज! आप इतने बड़े राज्य को अपने अधिकार में रखते हुए किस तरह सब वस्तुओं से निर्मम हो गये हैं और क्या समझकर सारी पृथ्वी पर अधिकार सोच रहे थे?’
जनक ने कहा–‘ भगवन् ! संसार के सब पदार्थ नश्वर हैं। शास्त्रानुसार न कोई अधिकारी ही सिद्ध होता है और न कोई अधिकार-योग्य वस्तु ही। अतएव में किसी वस्तु को अपनी कैसे समझूँ? अब जिस बुद्धि से सारे विश्व पर अपना अधिकार समझता हूँ, उसे सुनिये। मैं अपने संतोष के लिये कुछ भी न कर देवता, पितर, भूत और अतिथि-सेवा के लिये करता हूँ। अतएव पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, और अपने मन पर भी मेरा अधिकार है।!
जनक के इन वचनों के साथ ही ब्राह्मण ने अपना चोला बदल दिया। उसका विग्रह दिव्य हो गया और बोला कि “महाराज! मैं धर्म हूँ। आपकी परीक्षा के लिये ब्राह्मण-वेष से आपके राज्य में रहा तथा यहाँ आया हूँ। अब भली भाँति समझ गया कि आप सत्त्वगुणरूप नेमि युक्त ब्रह्मप्राप्िरूप चक्र के संचालक हैं । जा० श०