Kabir ke Shabd
रामनाम की मौज गुरु से पाईये।
हीरा हाथ चढाय, न फेर गंवाइए।।
प्रेम प्रीत परतीत, सनेह बढाईये।
अवगत अंतरधार, सभी बिसराईये।।
जतन जतन कर राख रत्न सी देह को।
इस तन सेती त्याग, जगत के नेह को।।
चला चली को देख, सवेरा चेत रे।
अमरपुरी मुकाम जाए, क्यों न लेत रे।।
इस दुनिया के बीच, बसेरा रैन का।
करो महल की शैल, जहां घर चैन का।
चला जाए तो चाल, दाँव ये खूब है
पहुंचेंगे उस देश, जहां महबूब हैं।।
अष्ट सिद्धि नव निद्धि, नाम की दास है।
सुख सम्पत्ति भोग, भक्ति के पास हैं।।
गुरू गुमानी दास, ब्रह्म उजास है।
नित्यानन्द भज लेंय, तो कारज रास है।