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चोरी का दण्ड

ऋषि “शद्भ’ और ‘लिखित’ दो भाई थे। दोनों ही बड़े तपस्वी थे और दोनों ही अलग-अलग आश्रम बनाकर रहते थे। एक बार लिखित शह्ड॒ुके आश्रमपर आये। दैववश उस समय शझ्गु बाहर गये हुए थे। लिखितकों भूख लगी थी, इसलिये शट्डुके आश्रमके वृक्षोंसे फल तोड़कर खाने लगे। इतनेमें ही शट्ठु आ गये। उन्होंने उनसे पूछा–‘ भैया! तुम्हें ये फल कैसे मिले?’ लिखितने हँसते हुए कहा–‘ये तो इसी सामनेके वृक्षसे हमने तोड़े हैं।! “तब तो तुमने चोरी की’ लिखितने कहा। ‘अतएवं अब तुम राजाके पास जाओ और उनसे कहो –“मुझे वह दण्ड दीजिये जो चोरको दिया जाता है।’ लिखित बड़े भाईके इस आदेशसे बड़े प्रसन्न हुए कि भाईने मुझे एक आदर्शके त्यागरूप पापसे बचा लिया। वे राजा सुद्युम्रके पास गये और कहा –*राजन्‌! मैंने बिना आज्ञा लिये अपने बड़े भाईके फल खा लिये हैं, इसलिये आप मुझे दण्ड दीजिये।’ 

सुद्युम्नने कहा –‘विप्रवर! यदि आप दण्ड देनेमें राजाको प्रमाण मानते हैं, तो उसको क्षमा करनेका भी तो अधिकार है। अत: मैं आपको क्षमा करता हूँ। इसके अतिरिक्त मैं आपकी और क्‍या सेवा करूँ?” पर लिखितने अपना आग्रह बराबर जारी रखा। अन्तमें राजाने उनके दोनों हाथ कटवा दिये। अब वे पुनः शहुके पास आये और क्षमा माँगी। 
शह्ुने कहा, “भैया! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम तो धर्मज्ञ हो। यह तो धर्मोल्लड्डनका दण्ड है। अब वुम इस नदीमें जाकर विधिवत्‌ देवता और पितरोंका तर्पण करो। भविष्यमें कभी अधर्ममें मन मत ले जाना।/ लिखित नदीके जलमें स्रान करके ज्यों ही तर्पण करने लगे, उनकी भुजाओंमेंसे कमलके समान दो हाथ प्रकट हो गये। इससे उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने आकर भाईको हाथ दिखलाये। शह्डुने कहा–‘ भाई! शट्डभा न करो, मैंने अपने तपके प्रभावसे ये हाथ उत्पन्न कर दिये हैं।! लिखितने पूछा–‘यदि आपके तपका ऐसा प्रभाव है तो आपने पहले ही मेरी शुद्धि क्यों नहीं कर दी?” शह्डुने कहा-यह ठीक है; पर तुम्हें दण्ड देनेका अधिकार मुझे नहीं, राजाको ही था। इससे राजाकी भी शुद्धि हुई और पितरोंके सहित तुम भी पवित्र हो गये।’ लिखितको जहाँ बाहु उत्पन्न हुए थे, उस नदीका उस दिनसे नाम ‘बाहुदा’ हो गया। – 

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