तरक्की बाज बाबू
करे तरक्की तर्क की, बाबू सौ-सौ बार।
प्राणों पर जब आ गई, डूब गए मझधार॥
एक बार एक नव शिक्षित तरक्की बाज बाबू को किसी गाँव में जाना पड़ा जो नदी के पार था। बाबू साहब कई कलाओं में पारंगत थे तथा उनके विचार आधुनिक कल्पित मिथ्या तरक्की से ओत-प्रोत थे। जैसे ही वे नाव में बैठे तो नाविक को उन्हें अपनी कला कौशलता दिखाने का भूत सवार हो गया। उन्होंने केवट से पूछा – क्या तुम ज्योतिष जानते हो? नाविक बोला – नहीं, मैंने पहले कभी यह नाम नहीं सुना। बाबू उससे बोला तब तो तुम्हारा जीवन का एक चौथाई भाग व्यर्थ ही गया।थोड़ी देर बाद बाबू ने नाविक से फिर पूछा-क्या तुम्हें कोई दस्तकारी आती है? वह बोला – इस समय तो मुझे कोई दस्तकारी नहीं आती है, हाँ जब मैं कोई नो वर्ष का था तब मुझे एक दो बार दस्त आये थे।
यह सुनकर तरक्की बाज बाबू कुछ देर चुप रहकर फिर बोला – तुम्हें ज्योतिष विद्या नहीं आती, दस्तकारी में भी कोरे हो तो अब यह बताओ कि हम खाली बेठे हैं, इससे आओ शतरंज खेलें। केवट ने उत्तर दिया – बाबू साहब मुझे शतरंज भी नहीं आती। मुझे न कभी सौ रंज हुए, न कभी 90 रंज हुए। इस पर बाबू ने कहा तुम्हारा तो आधा जीवन व्यर्थ गया।
थोड़ी देर बाद बाबू ने फिर पूछा क्या तुम्हें घड़ी देखनी आती है। केवट बोला – मैंने न तो कोई शास्त्र पढ़ा, दस्तकारी भी नहीं जानता और शतरंज से भी अनिभिन्ञ हूँ। नदी में नाव चलाकर अपने परिवार का पेट भरता हूँ। मुझे घड़ी देखनी भी नहीं आती। बाबू गुस्से में भरकर बोला, तुम्हें आधुनिक वस्तुओं का ज्ञान नहीं है। तुम्हारे जीवन के तीन चौथाई भाग यों ही नष्ट हो गये। केवट बोला – बाबू साहब क्या ये सब चीजें आप जानते हें? बाबू ने कहा – मूर्ख मैं इनसे भी ज्यादा जानता हूँ।
संयोग से अचानक नदी में बाढ़ आ गई। बातों ही बातों में जल तरंगें आकाश चूमने के लिए उतावली हो गईं। नौका बीच भंँवर में फंस गई। नाव में पानी भर गया। केवट ने अनुकूल अवसर देखकर बाबूजी से पूछा – आपको अनेक विद्याएँ आती हैं परन्तु क्या आपको तैरना भी आता है? मेरे जीवन का तो आपने तीन भाग नष्ट हुआ बता दिया, परन्तु यदि आपको तैरना नहीं आता तो आपका तो पूरा जीवन ही नष्ट हुआ समझो। अन्त समय में भगवान को स्मरण कीजिए। इतना कहकर केवट नदी में कूद कर तैरकर किनारे पर पहुँच गया।
कहने का तात्पर्य यह है कि सब विद्याओं में पारंगत होने पर भी तैरना न आने के कारण तरक्की बाज बाबू को नदी के गर्भ में यातना भोगनी पड़ी, इसी प्रकार संसार की कोई भी शिक्षा हमें इस दुःख सागर से वास्तविक रूप में कभी नहीं बचा सकती। अत एव प्राणी को उसका अभिमान नहीं करना चाहिए। जिस कला के अभ्यास से हम इस अथाह संसार सागर से तर कर पाप ताप, आधि-व्याधि, शोक दुःख, सन्देह, रोग आदि लौकिक पारलौकिक उन्नति पा सकते हैं, उसी कला को सीखना मनुष्य जीवन का ध्येय है और वही कला तर्क से दूर श्रद्धा भक्ति में है।
इसी से सत्य के सत्य स्वरूप को पाकर मनुष्य-परम तत्व को भली प्रकार जानकर दुःखों से छुटकारा पा सकता है और अपना कल्याण कर सकता है।
यह कहावत सत्य है- जाको राखे साइयाँ मार सके ना कोय।