Kabir ke Shabd
प्रेम का मार्ग बांका रे,
जानत है बहु शीश प्रेम में अर्पण जाका रे।।
ये तो घर है प्रेम का रे, खाला का घर नाय।
शीश काट चरणों धरै रे, जब गेर फेटे घर माय
देख कायर मन साका रे।।
प्रेम प्याला जो पियें रे, शीश दक्षिणा देय।
लोभी शीश न देय सके रे, नाम प्रेम का लेंय
नहीं वो प्रेमी वा का रे।।
प्रेम न बाड़ी उपजै रे, प्रेम न हाट बिकाय।
रानी राजा जो चाहें रे, सिर सांटे ले जाये।
खुलै मुक्ति का नाका रे।।
जोगी जंगम सेवड़ा रे, सन्यासी दुर्वेश।
बिना प्रेम पहुंचे नहीं रे, ना पावै वो देश।
शेष जहां वर्णन थाका रे।।
प्याला पीवै प्रेम का रे, चाखत अधिक रसाल।
कबीर पीनी कठिन है रे, माँगै शीश कराल
के वो तेरा बाबा काका रे।।