महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका । महाराज युधिष्ठिर एक सम्राट के रूप में अभिषिक्त कर दिये गये । अब भगवान् श्रीकृष्ण सुभद्रा को लेकर द्वार का लौट रहे थे । यात्रा करते हुए भगवान् मारवाड़ देश में वहाँ जा पहुँचे जहाँ अमित तेजस्वी उत्तङ्क मुनि रहते थे। भगवान् ने उनका दर्शन किया और पूजा भी की है।
तत्पश्चात् मुनि ने भी उनका स्वागत-सत्कार किया । फिर कुशल-प्रश्न होने लगे । अन्त मे जब श्रीकृष्ण ने कौरवों के संहार की बात सुनायी तब मुनि क्रोध में भर गये और बोले-मधुसूदन | कौरव तुम्हारे सम्बन्धी और प्रेमी थे। शक्ति रहते हुए भी तुमने उनकी रक्षा नहीं की। अतः आज मैं तुम्हें शाप दूंगा । ओह ! कुरुवंश के सभी श्रेष्ठ वीर नष्ट हो गये और तुमने सामर्थ्य रहते भी उनकी उपेक्षा की !
श्रीकृष्ण बोले-भूगुनन्दन ! पहले मेरी बात तो सुन लीजिये । आपने जो बाल्यावस्था से ब्रह्मचर्य का पालन कर कठोर तपस्या की है और गुरुभक्ति से अपने गुरु को संतुष्ट किया है, मैं वह सब जानता हूँ, पर इतना याद रख लीजिये कि कोई भी पुरुष थोडी-सी तपस्या के बल पर मेरा तिरस्कार नहीं कर सकता अथवा मुझे शाप नहीं दे सकता। मैं आपको कुछ अध्यात्म तत्व सुनाता हूँ, उसे सुनकर पीछे आप विचार कीजियेगा महृषि ! आपको मालूम होना चाहिये थे रुद्र, वसु, सम्पूर्ण दैत्य, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, नाग और अप्सराओं का मुझमे ही प्रादुर्भाव हुआ है । असत्, सदसत् तथा उससे परे जो अव्यक्त जगत् है, वह भी मुझ सनतिन देवाधि देव से पृथक नहीं है । मै धर्म की रक्षा तथा स्थापना के लिये महात्माओ के साथ अनेक बार अनेक योनि में अवतार धारण करता हूँ। मैं ही ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इन्द्र तथा सब की उत्पत्ति और प्रलय का कारण हैं । जब-जब धर्म का ह्रास और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब में विभिन्न योनियम प्रविष्ट होकर धर्म मर्यादा की स्थापना करता हूँ । जब देव योनि में अवतार लेता हूँ, तब मेरे सारे आचार-व्यवहार देवताओं के सदृश होते हैं । गन्धर्व-योनि मे अवतार लेने पर गन्धर्वो कै समान तथा नाग, यक्ष, राक्षस योनियो मे अवतार लेने पर उन उन योनियों के सदृश आचार-व्यवहार का पालन करता हैं। इस समय में मनुष्यरूप में प्रकट हुआ हूँ । अत एव मैंने कौर से दीनतापूर्वक प्रार्थना की, किंतु मोह ग्रस्त होने के कारण उन्होंने मेरी बात नहीं मानी। अतः युद्ध में प्राण देकर इस समय वे स्वर्ग में पहुंचे हैं।
इस पर उत्तङ्क ने कहा-जनार्दन ! मैं जानता हूँ, आप जगदीश्वर हैं। अब मैं आपको शाप नहीं दूंगा ।। आप कृपा कर अपना विश्वरूप मुझे दिखलायें । तत्पश्चात् भगवान् ने उन्हें सनातन विष्णु-स्वरूप का दर्शन कराया और वर मॉगने के लिये प्रेरित किया । उत्तङ्क ने उस मरुभूमि में जल मिलने का वर मॉग। भगवान् ने कहा-जब भी जल की आवश्यकता हो, तत्र तत्र मेरा स्मरण कीजिये। यह कहकर श्रीकृष्ण द्वारका को चल पडे।
एक दिन उत्तङ्क मुनि को बडी प्यास लगी । वे पानी के लिये चारों ओर घूमने लगे । इतने में ही उन्हें श्रीकृष्ण की बात स्मरण हो आयीं । उन्होंने श्री कृष्ण को याद किया । नत्र तक देखते क्या हैं -एक नगधडग, कुत्तों से घिरा भी पण आकार का चाण्डाल चला आ रहा है। उस चाण्डाल के मूत्रेन्द्रिय से अजन्न जल की धारा गिरती दिखायी देती थी। वह मुनि के निकट आकर बोला-‘महर्षे ! आपको प्यास से व्याकुल देखकर मुझे बड़ी दया लगती है। आप जल्दी आकर मेरे पास जल पी लीजिये। यह सुनकर कुपित होकर उत्तङ्क उस चाण्डाल को डॉटने लगे तथा वर देने वाले श्रीकृष्ण को भी भला-बुरा बकने लगे । उनके इनकार करने पर कुत्तों के साथ चाण्डाल वहीं गायब हो गया। यह देखकर महात्मा उत्तङ समझ गये कि श्रीकृष्ण की ही यह सब माया है। तब तक भगवान् श्रीकृष्ण शङ्ख, चक्र, गदा धारण किये वहाँ प्रकट हो गये । उनको देखते ही उत्तङ्क बोल उठे-केशव ! प्यासे ब्राह्मण को चाण्डाल का मूत्र देना आपको उचित नहीं।
श्री कृष्णा ने बड़े मधुर शब्द मे कहा-मनुष्य को प्रत्यक्ष रूप से अमृत नहीं पिलाया जाता। इससे मैंने चाण्डाल वेष धारी इन्द्र को गुप्तरूप से अमृत पिलाने भेजा था किंतु आप उन्हें पहचान न सके। पहले तो देवराज आपको अमृत देने को तैयार नहीं थे। पर मेरे बार-बार अनुरोध करने पर वे इस शर्त पर आपको अमृत पिलाने तथा अमर बनाने पर तैयार हो गये कि यदि ऋषि चाण्डाल-वेषम तथा कथित ढग से अमृत पी लेंगे, तब तो मैं उन्हें दे दूंगा और यदि वे न लेगे तो अमृत से वञ्चित रह जायँगे। पर खेद है आपने अमृत नहीं ग्रहण किया। आपने उनको लौटाकर बड़ा बुरा किया। अस्तु ! अब मैं आपको पुनः वर देता हैं कि जिस समय आप पानी पीने की इच्छा करेगे, उसी समय बादल मरुभूमि मे पानी बरसाकर आपको स्वादिष्ट जल देंगे । उन मेघ का नाम उत्तङ्क-मेघ-होगा।
भगवान् के यों कहने पर उत्तङ्क तब से बड़ी प्रसन्नता से वहीं रहने लगे। अब भी उत्तङ्क-मेघ मारवाड की मरुभूमि में पानी बरसाते रहते हैं।