धन के द्वारा दूसरों का उपकार कभी नहीं हुआ
धन के द्वारा दूसरों का उपकार कभी नहीं हुआ, हो सकता नहीं। वह परमात्मा की तरफ भी नहीं ले जा सकता। उपकार उदारता से हो सकता है धन से नहीं। रूपयों महत्त्व नहीं हाकिन्तु रूपयों के खर्च (त्याग) का महत्त्व है।रूपयों का खर्च ही उदार बना सकता है।
जो धनी होने पर भी दान न दे और दरिद्र होने पर भी कष्ट सहन न करे। इन दो प्रकार के मनुष्यों को गले में पत्थर बाँध कर पानी में डुबो देना चाहिए।
मुझे धन की इच्छा नहीं है।धन संसार में बाँधने वाला एक जाल है।उस में फंसे हुए मनुष्य का फिर उद्दार नहीं होता।इस लोक और परलोक में भी जो धन के दौष हैं उन्हें सुनो।धन होने पर चोर,बन्धु-बंध्व तथा राजा से भी भय प्राप्त होता है। सब मनुध्य उस धन को हड़पने के लिए हिंसक जंतुओं की भांति धनी व्यक्ति को मार डालने कि अभिलाश रखते हैं।फिर धन कैसे सुखद हो सकता है। धन प्राणों का घातक और पाप का साधक है धनी का घर काम और काल आदि का निकेतन बन जाता है।अतः धन दुर्गति का प्रधान कारण है।
धन का क्या उपयोग है? उस की सहायता से अन्न वस्त्र और निवास स्थान प्राप्त किये जा सकते हैं बस उन के उपयोग की मर्यादा इतनी ही है। आगे नहीं है। निस्संदेह धन के बल पृश्व्र तुझे नहीं दिखाई दे सकता। अतः धन से जीवन की कुछ सार्थकता नहीं है।यही विवेक की दिशा है।क्या तूँ इसे समझ गया?।
धनी व्यक्ति धर्म का ज्यादा पालन नहीं कर सकता।गरीब जितना दान करे धनी उत्ननहीं कर सकता। चींटी में जितना बल होता है उतना हाथी में नहीं होता।
जिस को धन की तृष्णा है वह विद्वान होने पर भी मूढ़, शांत होने पर भी क्रोधी और बुद्धिमान होने पर भी मुर्ख है।धन के लिए मनुष्य बन्धु बांधुओं से वैर करता है। अनेक प्रकार के पाप करता है। बल तेज विद्या शूरवीरता यश कुलिन्ता और मान-सभी को धन की तृष्णा नष्ट कर देती है। धन का लोभी अपमान व् क्लेश की चिंता नहीं करता पाप को पाप नहीं समझता। वह अपने हाथों अपने लियेदुख और नर्क का मार्ग उत्साह पूर्वक बनाता है।
जिस की धन में आसक्ति है उस की मुक्ति कभी नहीं होती । धन में मादकता है मोह है माया है और झूठ है।धन मिलते ही चोर से राजा से यहां तक की अपने ही परिवार के लोगों से भय लगने लगता है।अविश्वास हो जाता है सब पर।। सब धन के लिए परस्पर द्वेष करते हैं। काम, क्रोध ,अहंकार ,का तो धन निवास है।यह दुर्गति कराने वाला है।
अपने लिए इस धरती पर धन इकट्ठा मत करो। जहां कीड़े और काई बिगाड़ते हैं और जहां चोर सेंध लगाते और चुराते हैं।परंतु अपने लिए स्वर्ग में धन इकट्ठा करो , जहां न तो कीड़े और काई ही बिगाड़ते हैं और न चोर हो चुराते हैं।क्यों कि जहां तेरा धन होगा, वहां तेरा मन भी लगा रहेगा।
एक दिन द्रोपदी ने युधिष्टर महाराज से कहा कि आप धर्म को छोड़ कर एक कदम भी आगे नहीं रखते,पर आप वनबास में दुःख भोग थे हैं। और दुर्योधन धर्म की किंचन मात्र भी परवाह न कर के केवल स्वार्थ परायण हो रहा है।पर वह राज्य भोग रहा है,आराम से रह रहा है,और सुख भोग रहा है। ऐसी शंका करने पर युधिष्टर जी ने कहा कि जो सुख पाने की इच्छा से धर्म का पालन करते हैं,वे धर्म के तत्व को जानते ही नहीं। वे तो पशुओं की तरह सुख भोगने के लिए लौलुप और दुःख से भयभीत रहते हैं।फिर वे बेचारे धर्म के तत्व को कैसे जानें।इसलिये मनुष्य की मनुष्यता इसी में है कि वे अनुकूलता और प्रतिकूलता की परवाह न करके शास्त्रज्ञानुसार केवल अपने धर्म का पालन करते रहें
धन की वृद्धि के साथ कंजूसी भी बढ़ती जाती है और उदारता, दया, क्षमा आदि सद्गुण प्रायः नष्ट हो जाते हैं।
जिस व्यक्ति के पास धन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं वह महा दरिद्र है।
धन से अच्छे गन नहीं मिलते,धन अच्छे गुणों से मिलता है।